कोमा का चरित्र-चित्रण: प्रेमपूर्ण भावुकता कोमा के चरित्र की सबसे बड़ी विभूति है, परंतु वह जीवन की यथार्थ स्थितियों का भी महत्व समझती है। इसी बल पर संघ
कोमा का चरित्र-चित्रण - Koma ka Charitra Chitran
प्रेमपूर्ण भावुकता कोमा के चरित्र की सबसे बड़ी विभूति है, परंतु वह जीवन की यथार्थ स्थितियों का भी महत्व समझती है। इसी बल पर संघर्ष में पड़े हुए शकराज को वह समझाने का प्रयास करती है। कोमा की भावुकता में दार्शनिकता का योग है। मानव शक्ति से परे भी एक महाशक्ति है, इसे वह मानती है। अभावमयी लघुता में मनुष्य जो अपने को महत्वपूर्ण दिखाने का अभिनय करता है, वह उसे अच्छा नहीं लगता। वह पाषाणों के भीतर बहने वाले मधुर स्रोत की शीतल जलधारा के समान निर्मल और शांतिमयी रहना चाहती है।
प्रसाद की नारीसृष्टि में कोमा एक सुंदर कल्पित पात्र है। कोमा प्रणय, भावुकता और कोमलता की वह मूर्ति है जो भूल से कठोर, बर्बर शकराज से प्रेम कर बैठती है। वह यौवन के स्पर्श से सद्य प्रफुल्ल कुसुम-कलिका के समान कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत है। प्रणय के लिए सर्वस्व दान करने का उत्साह ही उसके जीवन का आदर्श है, इस पर भी उसे क्या मिलता है - निराशा, निष्पीड़न और उपहास । फिर भी वह प्रेम को नारी जीवन की दीपावली के आलोक का महोत्सव ही समझती है। कोमा प्रेममयी कोमल नारी है जो यौवन के प्रभात में ही अज्ञात रूप से प्रेम कर बैठती है ।
कोमा की चरित्रगत विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. प्रेम तथा दया: कोमा की कथा इस नाटक में अत्यंत करुणाजनक है । उसका हृदय प्रेम, दया तथा सहानुभूतिपूर्ण है। एक ओर पिता का प्रेम है और दूसरी ओर उसके सामने अपने प्रेमी का स्नेह। वह दोनों के अंतर्द्वन्द्व में पड़ी रहती है। वह प्रेम की उपासिका बनकर जीवन का सुख लूटना चाहती है।
2. कोमलता: कोमा का हृदय अत्यंत ही कोमल है। उसका हृदय इतना कोमल है कि वह किसी प्रकार का दूसरों का दुःख नहीं देख सकती । युद्ध की भीषणता से तो उसे अत्यंत घृणा है। इसलिए वह शकराज से कहती है—“संसार के नियम के अनुसार आप अपने से महान् के सम्मुख थोड़ा-सा विनीत बनकर इस उपद्रव से अलग रह सकते थे । "
वह शकराज को भी कोमलता की शिक्षा देती है - " पाषाणी ! हाँ राजा ! पाषाणी के भीतर भी कितने ही मधुर स्रोत बहते रहते हैं। उनमें मदिरा नहीं, शीतल जल की धारा बहती है।"
जब कोमा खिंगल के मुँह से नई रानी ध्रुवस्वामिनी के आगमन की सूचना सुनती है तो वह एकदम चौंक उठती है, क्योंकि वह समझती थी कि शकराज उसे प्यार करता है और उसका हृदय कोमल है। अत: वह शकराज से बड़ी दृढ़ता से कहती है- “किन्तु राजनीति का प्रतिशोध, क्या एक नारी को कुचले बिना नहीं हो सकता।"
3. भावुकता: कोमा कोमलता की मूर्ति होने के साथ-ही-साथ एक भावुक युवती भी है। उसे कितने ही कठोर आद्यात लगते हैं। शकराज के द्वारा उसके प्रति अनुचित व्यवहार होने पर भी वह उसकी रक्षा करने का अंत तक प्रयास करती है। वह उसका साथ नहीं छोड़ती। पिता के साथ जाते समय उसके हृदय में जो द्वन्द्व छिड़ता है वह तो नाटक को पढ़ने पर ही ज्ञात होता है - " तोड़ डालूँ पिताजी, मैंने जिसे अपने आँसुओं से सींचा, वही दुलारभरी बल्लरी, मेरे आँख बंद कर चलने में मेरे ही पैरों से उलझ गई है। दे दूँ एक झटका, उसकी हरी-भरी पत्तियाँ कुचल जाएँ और वह छिन्न-भिन्न होकर धूल में लोटने लगे। न ऐसी कठोर आज्ञा न दो।"
जब शकराज कोमा से पूछता है कि क्या नई रानी का आना तुम्हें अच्छा नहीं लगा तो उस समय कोमा बड़े ही निर्विकार भाव से उसका उत्तर देती है- "संसार में बहुत-सी बातें बिना अच्छी हुए भी अच्छी लगती हैं, और बहुत-सी अच्छी बातें बुरी मालूम पड़ती हैं। "
4. प्रेमिका: कोमा शकराज की प्रेमिका है। वह एक आदर्श प्रेमिका है। अपने प्रेमी शकराज की दुश्चिंताओं में भी वह हाथ बँटाना चाहती है। जब शकराज अपने जीवन पथ पर डगमगाने लगता है तो वह उसे सँभालने का प्रयास करती है- “मेरे राजा ! आज तुम एक स्त्री को अपने पति से विच्छिन्न कराकर अपने गर्व की तृप्ति के लिए कैसा अनर्थ कर रहे हो ?" जब रानी उससे पूछती है कि तुम्हें प्रेम का क्या दण्ड मिला तो वह कहती है- "वह जो स्त्रियों को प्रायः मिला करता है - निराशा, निष्पीड़न और उपहास । "
शकराज की मृत्यु हो जाने के बाद प्रणय के कारण ही वह अपने पिता के साथ शकराज का शव माँगने आती है। उसे विश्वास है कि ध्रुवस्वामिनी एक स्त्री होने के नाते उसकी व्यथा समझ सकेगी - "रानी ! तुम भी स्त्री हो ! क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी। आज तुम्हारी विजय का अंधकार तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढँक ले, किन्तु सबके जीवन में एक बार प्रेम की दीपावली जलती है। तुम्हारी जीवन में भी जली होगी अवश्य, तुम्हारे भी जीवन में वह आलोक का महोत्सव आया होगा, जिसमें हृदय-हृदय को पहचानने का प्रयत्न करता है, उदार बनता है और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता है । मुझे शकराज का शव चाहिए।"
प्रेम के नाम पर जलने वाली कोमा का राजधिराज के सैनिकों द्वारा वध हो जाना अत्यंत करुणाजनक है।
5. दार्शनिकता: कोमा भावुक तथा कोमल होने के साथ-साथ दार्शनिक भी है। दार्शनिकता उसे अपने पिता आचार्य मिहिरदेव से मिली है। साधारण वार्तालाप में भी वह दार्शनिकों की-सी बातें करती है - "संसार में बहुत-सी बातें बिना अच्छी हुए भी अच्छी लगती हैं और बहुत-सी अच्छी बातें बुरी मालूम पड़ती हैं।" इस प्रकार का ज्ञान उसे पिता से ही प्राप्त हुआ है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ध्रुवस्वामिनी के समान कोमा भी प्रेमविदग्धा है। दोनों ही पुरुषों द्वारा प्रताड़ित, अपमानित और लांछित होती हैं, किन्तु एक उस प्रताड़ित अपमान के विरुद्ध विद्रोह करती है और दूसरी उसके साथ चिपटी रहती है। ध्रुवस्वामिनी कोमा की तरह दार्शनिक नहीं है, वह अधिक लौकिक है, नियति पर उसका विश्वास है, पर वह वास्तविकता से मुँह नहीं मोड़ती। ठीक इसके विपरीत कोमा बुद्धिवादी है, उसमें विवेक अधिक है। वह अनुचित के प्रति विरोध भी करती है, फिर भी वह नारी की भावुकता से भरी हुई है, पुरुष को त्याग सकने में असमर्थ है। वह रूढ़ियों से जकड़ी हुई है। उसे नारीत्व का शाश्वत रूप तो नहीं कहा जा सकता, पर वह उस रूप का प्रतिनिधित्व अवश्य करती है, जिस रूप से लेकर अधिकांश हिंदू नारियाँ आत्मसंतोष प्राप्त करती रही हैं। एक बात उनमें कोमा से भिन्न है । जहाँ धर्मशास्त्रों अथवा धर्म के ठेकेदारों ने उन्हें वैसा अनुभव करने और मानने को विवश कर दिया है, कोमा उस स्थिति को भावुकतावश ग्रहण करती है। आत्म-समर्पण, दैन्य और त्याग के सहारे वह अपने प्रेम का अंत तक निर्वाह करती है। उसे परवाह नहीं है कि उसका प्रेमी क्या है, कैसा है। कोमा का व्यक्तित्व भावुकता से भरा हुआ है, जिसके कारण विवेक उसका साथ नहीं दे पाता। वह किसी युग की आदर्श नारी कही जा सकती है, किन्तु आज की स्थिति में वह लोगों की दृष्टि में दया के पात्र से अधिक कुछ नहीं है।
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