शकराज का चरित्र चित्रण: शकराज महत्वाकांक्षी, रणकुशल एवं कूटनीतिज्ञ है, साथ ही वह क्रूर, दुर्विनीत एवं विलासी प्रकृति का भी है। शकराज के चरित्र में दुर
शकराज का चरित्र चित्रण - Shakraj Ka Charitra Chitran
शकराज महत्वाकांक्षी, रणकुशल एवं कूटनीतिज्ञ है, साथ ही वह क्रूर, दुर्विनीत एवं विलासी प्रकृति का भी है। शकराज के चरित्र में दुर्गुणों की प्रबलता है, अतः उसकी सफलताएँ पराजय में परिणत हो जाती हैं। शकराज अपने पूर्वजों के समान अपने पराक्रम द्वारा शत्रुओं को प्रताड़ित करके प्रतिशोध लेने का अभिलाषी है। उसका पराक्रम पुरुषार्थ–सापेक्ष है। प्रकट के अभाव में पूर्व का निदर्शन असम्भव है। शकराज पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता है। वह पुरुषार्थ के पूर्व पराक्रम एवं रणकुशलता द्वारा रामगुप्त की समस्त सेना को गिरि-पथ पर रोककर चतुर्दिक अवरोध द्वारा उसके शिविर का संबंध राज-पथ से काट देता है। शत्रु को इस प्रकार विवश करके, वह अपनी कूटनीति द्वारा शत्रु पक्ष का धन और जन लेने के साथ ही उसका कुल - गौरव भी हस्तगत करने की योजना प्रस्तुत कर देता है। इस प्रकार एक सेनानी के रूप में वह आंशिक रूप से सफल है।
शकराज के चरित्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. भौतिकवादी: शकराज भौतिक सुख और विलास को ही सर्वश्रेष्ठ समझता है। वह अपनी प्रेयसी को भी विवाद करने से रोकता है। वह कहता है- “ यह शिक्षा अभी रहने दो कोमा, मैं किसी से बड़ा नहीं हूँ तो छोटा भी नहीं बनना चाहता।"
2. पुरुषार्थ का प्रेमी: वह सौभाग्य और दुर्भाग्य को मनुष्य की दुर्बलता समझता है। वह कहता है-“सौभाग्य और दुर्भाग्य मनुष्य की दुर्बलता के नाम हैं। मैं तो पुरुषार्थ को ही सबका नियामक समझता हूँ, हाँ मैं इस युद्ध के लिए उत्सुक नहीं था कोमा, मैं दिग्विजय के लिए नहीं निकला था।"
शकराज की बर्बरता यह है कि अपने पूर्वजों की पराजय का प्रतिशोध गुप्त सम्राट रामगुप्त से लेता है। जब खिंगल शकराज से आकर कहता है कि रामगुप्त ने उसका संधि प्रस्ताव मान लिया है तो वह प्रसन्नता से खिंगल के हाथ झकझोरने लगता है - "खिंगल ! तुमने कितना सुंदर समाचार सुनाया। आज देवपुत्रों की स्वर्गीय आत्माएँ प्रसन्न होंगी। उनकी पराजय का यह प्रतिशोध है ।"
3. राजनीति का खिलाड़ी: शकराज कुशल राजनीतिज्ञ है। वह रामगुप्त की कमजोरी का पूरा-पूरा लाभ उठाता है। विजय में वह इतना विवेकहीन हो जाता है कि आचार्य मिहिरदेव का अपमान कर बैठता है और अंत में यहाँ तक कह देता है— "बस बहुत हो चुका। आपके महत्व की भी एक सीमा होगी। यदि आप यहाँ से नहीं जाते हैं, तो मैं ही चला जाता हूँ।"
4. दृढ़ता की कमी: शकराज के हृदय में दृढ़ता का अभाव है। धूमकेतु के उदय से अमंगल की आशंका से वह कितना भयभीत हो जाता है, यह तो देखते ही बनता है - "ओह ! भयावनी पूँछ वाला धूमकेतु, आकाश का उच्छृंखल पर्यटक ! नक्षत्रलोक का अभिशाप । कोमा, आचार्य को बुलाओ। वे जो आदेश देंगे वही मैं करूँगा । इस अमंगल की शांति होनी चाहिए।" उस समय शकराज की स्थिति अत्यंत दयनीय हो जाती है। अंत में चंद्रगुप्त के साथ द्वन्द्व-युद्ध में वह मारा जाता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है। कि शकराज 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक का एक ऐसा पात्र है, जिस पर घटना- क्रम का विकास निर्भर करता है और उसके लिए प्रसादजी ने पूरा एक अंक दिया है। उसके जीवन में चढ़ाव-उतार का कोई स्थल नहीं है। वह दम्भ और अभिमान का प्रतीक है। वह अपने सामने दूसरों को कुछ नहीं समझता। नियति पर उसका विश्वास नहीं है। वह सौभाग्य और दुर्भाग्य को मनुष्य की दुर्बलता का भय मानता है। पुरुषार्थ को ही वह सबका नियामक समझता है । वह मानता है कि पुरुषार्थ ही सौभाग्य को खींच लाता है। वह पुरुषार्थ के भरोसे ही सदा जीवन-मरण के लिए प्रश्न सुलझाने में लगा रहता है। इतना होने पर भी वह युद्ध के लिए उत्सुक नहीं है।
ध्रुवस्वामिनी नाटक के अन्य चरित्र चित्रण
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार पर चंद्रगुप्त का चरित्र-चित्रण
ध्रुवस्वामिनी नाटक के आधार कोमा का चरित्र-चित्रण
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