प्रदत्त प्रस्थिति का अर्थ स्पष्ट कीजिए: प्रस्थिति प्रदत्त प्रस्थिति वह है जिसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को किसी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं
प्रदत्त प्रस्थिति का अर्थ स्पष्ट कीजिए (Pradatt Prasthiti ka Arth Spasht Kijiye)
प्रदत्त प्रस्थिति (Ascribed Status) ― प्रस्थिति प्रदत्त प्रस्थिति वह है जिसे प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को किसी प्रकार के प्रयत्न की आवश्यकता नहीं होती बल्कि समाज की व्यवस्थाओं के अनुरूप स्वतः ही प्राप्त हो जाती है। व्यक्ति के विकास के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति को समाज द्वारा कुछ ऐसी प्रस्थितियां मिलें जिससे वह स्वयं को समाज के साथ अधिक से अधिक समायोजित कर सके। दूसरे अर्थ में प्रदत्त प्रस्थिति व्यक्ति को समाज का सदस्य होने के नाते परम्परागत मान्यताओं के आधार पर प्राप्त हो जाती है।
जैसे - जन्म के आधार पर व्यक्ति की जाति आजन्म रहती है चाहे उसका कर्म कुछ भी और कैसा भी या निन्दनीय हो। अतः स्पष्ट है कि प्रदत्त प्रस्थिति पर व्यक्ति का कोई नियंत्रण नहीं होता। ये प्रस्थितियां समाज में पहले से विद्यमान रहती हैं और जन्म लेने वाली पीढ़ियों को हस्तांतरित होती उसके मृत्युपर्यन्त प्रदत्त ही रहती हैं। इसके लिए व्यक्ति को किसी भी प्रयास या योग्यता की आवश्यकता नहीं होती ।
प्रदत्त प्रस्थिति के आधार (Basis of Ascribed Status)
प्रदत्त प्रस्थिति के कुछ प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं जो व्यक्ति के प्रारंभिक जीवन से ही तय होती हैं।
1) लिंगभेद ( Sex Dichotomy ) — प्राचीन काल से लेकर आज तक व्यक्तियों की प्रस्थिति निर्धारण में लिंग भेद महत्वपूर्ण रहा है। प्राणिशास्त्रीय दृष्टि से स्त्रियों को पुरुषों से निम्न समझा जाता रहा है। कुछ समाजों और संस्कृतियों के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि स्त्री व पुरुषों की प्रस्थिति और भूमिका में बहुत अंतर होता है। यही कारण है कि पुरुषों को परिवार के बाहर के कार्य करने तथा स्त्रियों को परिवार के अन्दर घरेलू कार्य तथा बच्चों की देखभाल के कर्तव्य सौंप दिये गये । इस तरह पुरुष बाहर आर्थिक उत्पादन, जीविकोपार्जन सुरक्षा आदि कार्य संपन्न करने लगे और इसी आधार पर पुरुषों और स्त्रियों की प्रदत्त प्रस्थितियों में अंतर बढ़ता रहा और सामाजिक व्यवस्था ने इसे स्वीकृत भी कर लिया। वर्तमान समय में स्त्री व पुरुषों के कुछ कार्यों छोड़कर शेष कार्यों में समानता के अवसर परिलक्षित होने लगे हैं ।
2) आयु भेद (Age Difference) — प्रत्येक समाज या समूह में व्यक्ति को आयु भिन्नता के आधार पर निश्चित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है जैसे बाल, किशोर, युवा, प्रौढ़ तथा वृद्ध । इन सब अवस्थाओं में पर्याप्त भेद होने के कारण व्यक्ति की स्थिति में भेद रहता है। विशेष रूप से भारतीय परिप्रेक्ष्य में जितना आदर और सम्मान वृद्ध और उम्रदराज व्यक्ति को प्राप्त होता है, उतना युवा या अन्य कम उम्र वाले को नहीं मिलता । लुण्डबर्ग ने Sociology में लिखा है - " किसी समाज में किस उम्र के व्यक्ति की प्रस्थिति क्या होगी, इसका निर्धारण उस समाज की संस्कृ ति के द्वारा होता है ।" इससे स्पष्ट होता है कि अपनी आयु से बड़े व्यक्तियों को मान-सम्मान देना चाहिए क्योंकि उनकी आयु ही सिर्फ बड़ी नहीं होती, बल्कि उन्हें जीवन का अनुभव अधिक होता है । परिवार का मुखिया वही होता है जो वयोवृद्ध हो। आश्रम व्यवस्था के विभाजन का आधार भी उम्र ही है। यही नहीं विश्व की सभी संस्कृतियों में प्रस्थिति भेद का आधार आयु है।
3) नातेदारी (Kinship) — समाज में व्यक्ति को नातेदारी के आधार पर अनेक प्रस्थितियां प्राप्त होती हैं, जो प्रदत्त और विशिष्ट होती हैं। एक नवजात शिशु जन्म लेते ही नातेदारी के बाद रिश्तों में बंध जाता है । वास्तव में नातेदारी में जैविकीय एवं सांस्कृतिक दोनों ही तत्वों का समावेश रहता है अर्थात् रक्त संबंध और विवाह संबंध जो बच्चे की समाज के साथ नातेदारी को निर्धारित करते हैं। जिसमें व्यक्ति के कुछ अधिकार और दायित्व भी जुड़े रहते हैं । यदि माता–पिता उच्च स्थिति के व्यक्ति रहे हैं तो बच्चे को भी उच्च दृष्टि से देखा जाता है। माता-पिता की निम्न स्थिति बच्चे को अमहत्वपूर्ण बनाती है। जैसे - राजा का पुत्र राजपद का भागीदार होता है ।
कई बार वय के आधार पर भांजा या भतीजी भले ही बड़ी उम्र के हों, पर उम्र में छोटे मामा और मौसी से नातेदार के रूप में छोटे ही मान्य होते हैं और व्यवहार में भी उनसे नीचे प्रस्थिति प्राप्त करते हैं । इस तरह नातेदारों की सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक स्थिति व्यक्ति को अनेक प्रस्थिति प्रदान करने में सहयोगी बनती है।
4) जाति भेद ( Caste Difference ) — भारतीय समाज की महत्वपूर्ण विशेषता है जाति व्यवस्था, जो व्यक्ति की प्रस्थिति को निर्धारित करती है । उच्च जातियों जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जाति से उत्पन्न बच्चे की स्थिति निम्न जाति, शूद्र या अस्पृश्य जाति में उत्पन्न बच्चों से ऊंची मानी जाती रही है। वर्तमान में भारत में निम्न जातियों को संवैधानिक, सुविधाएँ और संरक्षण प्रदान किया गया है और इनमें से कइयों ने अपनी योग्यता व कुशलता में वृद्धि कर समाज में विशिष्ट पद भी हासिल किया है। आज भी हमारा ग्रामीण मानस जाति प्रथा के दायरे से निकल नहीं पाया है पदों पर आसीन व्यक्तियों को जाति के आधार पर प्रतिष्ठित और उसी के अनुसार व्यवहार भी किया जाता है। पद कितना भी ऊंचा क्यों न हो, जाति संस्तरण में व्यक्ति की स्थिति जाति के आधार पर ही उच्च या निम्न होती है।
5) अन्य आधार (Other Bases) — प्रदत्त प्रस्थिति के निर्धारण में लिंग, आयु, नातेदारी और जाति ही सब कुछ नहीं है। प्रजातीय भिन्नता, जन्म की वैधता, जैविकीय विश्वास, परिवार की परम्पराएं और माता पिता की वैवाहिक स्थिति भी प्रदत्त प्रस्थिति के आधार माने जा सकते हैं। जैसे गोरी और नीग्रो प्रजाति, अवैध बच्चे, अंधविश्वासी और पुरानी मान्यताएं, गोद लिए बच्चे, बिना विवाह के साथ रहने वाले स्त्री पुरुष, आदि उदाहरण व्यक्ति के प्रदत्त स्थिति के आधार माने जा सकते हैं।
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