गांधारी का चरित्र चित्रण: गांधारी राजा धृतराष्ट्र की महारानी और सौ कौरवों की ममतामयी माँ है किन्तु महाभारत में केवल उसके नाम का उल्लेख किया गया है और
अन्धायुग की गांधारी का चरित्र चित्रण
गांधारी का चरित्र चित्रण: गांधारी राजा धृतराष्ट्र की महारानी और सौ कौरवों की ममतामयी माँ है किन्तु महाभारत में केवल उसके नाम का उल्लेख किया गया है और उसके चरित्र की पूर्णतः उपेक्षा की गयी है। इतना भीषण संग्राम हुआ, उसके सभी सौ पुत्र केवल अठारह दिनों में उस युद्ध की भेंट चढ़ गये किन्तु फिर भी गांधारी की पीड़ा को अव्यक्त ही रखा गया है। वह कितनी अभागी माँ है अपने पुत्रों को एक-एक करके मरते देखकर भी किसी से कुछ नहीं कह सकती। महाभारत एवं अन्य पौराणिक ग्रंथों में उसके विषय में केवल इतना ही कहा गया है कि वह एक पति-परायणा साध्वी स्त्री थी और पति के अंधत्व के प्रति अपनी सहानुभूतिस्वरूप अपनी आँखों पर भी पट्टियाँ बाँध ली थीं । इसके अतिरिक्त गांधारी के विषय में सभी पौराणिक ग्रंथ मौन हैं।
किन्तु 'अंधायुग' में गांधारी का चोट खाया हुआ नारी-हृदय साकार हो उठा है। उसकी आँखों की पट्टियों को नाटककार ने प्रतीकार्थ रूप में प्रयोग किया है और यह प्रतीकार्थ है उसकी अंधी ममता । उसे अपने पुत्रों से इतनी ममता है कि जब धृतराष्ट्र अपने पुत्रों के मरण का वृत्तान्त कहते हैं तो गांधारी चीत्कार कर उठती है-
'महाराज ! मत दोहरायें वह, सह नहीं पाऊँगी।'
वह जानती थी कि महाभारत के सूत्रधार कृष्ण ही हैं। यदि वह चाहते तो यह युद्ध टल सकता था किन्तु उन्होंने अपनी कूटनीति से उसके पुत्रों को एक-एक कर मार डाला। इस पर भी जब विदुर उसके सामने कृष्ण की प्रशंसा करते हैं तो उसका आक्रोश इन शब्दों से फूट पड़ता है-
'इसमें संदेह है, और किसी को मत हो मुझको है । 'अर्पित कर दो मुझको मनोबुद्धि, उसने कहा है यह, जिसने पितामह के बाणों से आहत हो, अपनी सारी ही मनोबुद्धि खो दी थी? उसने कहा है यह, जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार ?'
वह कृष्ण को मर्यादाहीन कहकर अपनी निर्भीकता का परिचय देती है। उसकी निर्भीकता और स्पष्टवादिता कृष्ण की कटु आलोचनाओं में देखी जा सकती है। वह झूठे आडम्बर से घृणा करती है इसीलिए उसने आँखें रहते हुए भी अपनी आँखों पर पट्टियाँ बाँध ली हैं-
'लेकिन अन्धी नहीं थी मैं।
मैंने यह बाहर का वस्तु-जगत अच्छी तरह जाना था
धर्म, नीति, मर्यादा, यह सब है केवल आडम्बर मात्र,
मैंने यह बार-बार देखा था।
निर्णय के क्षण में विवेक और मर्यादा
व्यर्थ सिद्ध होते आए हैं सदा
हम सबके मन में कहीं एक अन्ध गहवर है।
बर्बर पशु, अन्धा पशु वास वहीं करता है, स्वामी जो हमारे विवेक का,
नैतिकता, मर्यादा, अमासक्ति, कृष्णार्पण
यह सब हैं अन्धी प्रवृत्तियों की पोशाकें
जिनमें कटे कपड़ों की आँखें सिली रहती हैं
मुझको इस झूठे आडम्बर से नफरत थी
इसलिए स्वेच्छा से मैंने इन आँखों पर पट्टी चढ़ा रखी थी।'
उसके चरित्र में हमें निर्मम यथार्थ के दर्शन होते हैं। कटु सत्य कहने में भी वह हिचकिचाती नहीं है। धर्म के प्रति उसकी आस्था है और वह दुर्योधन को अधर्म से रोकती भी है। किन्तु जब वह पाती है कि दोनों ही ओर अधर्म की विजय हो रही है तो वह अधर्म की पक्षधर बन जाती है। पाण्डवों ने ही कौन-सा धर्मयुद्ध किया जो वह अपने पुत्रों की अवहेलना करे-
'मैंने कहा था दुर्योधन से
धर्म जिधर होगा ओ मूर्ख!
उधर जय होगी!
धर्म किसी ओर नहीं था, लेकिन!
सब ही थे अन्धी वृत्तियों से परिचालित'
गांधारी का व्यक्तित्व आक्रामक है और ममतामयी होते हुए भी परिस्थितियों ने उसे इतना क्रूर बना दिया है कि उसे उचित और अनुचित तक का ध्यान नहीं रहता। संजय से जब उसे यह ज्ञात होता है कि अर्द्ध रात्रि में पांडवों के शिविर में घुसकर अश्वत्थामा ने सोये हुए ध ष्टद्युम्न को शय्या से नीचे उतार कर अपने घुटनों के बीच दबाते हुए जीवितावस्था में ही उसकी दोनों आँखें निकाल लीं, तो गांधारी निर्ममता जैसी अट्टहास कर उठती है। वह प्रसन्न होकर अश्वत्थामा की प्रशंसा करती हुई कहती है-
'अन्धा कर दिया उसको पहले ही कितना दयालु है अश्वत्थामा । ( प ० 79)
पुत्र-शोक ने उसे इतना जर्जर कर दिया है कि अब किसी के मुख से वह अपने लिए ‘माता' शब्द भी नहीं सुनना चाहती। कृष्ण ने भी तो उसे माता ही कहा था और उन्हीं के कारण गांधारी के सभी पुत्र एक-एक कर सत्रह दिनों के अन्दर ही मार डाले गए। इसलिए इस 'माता' शब्द को सुनकर उसकी छाती धधकने लगती है और यह शब्द उसे जलती लोहे की छड़ों की भाँति प्रतीक होता है जो पसलियों को जला डालता है-
'सत्रह दिन के अन्दर मेरे सब पुत्र एक-एक कर मारे गए अपने इन हाथों से मैंने उन फूलों सी बहुओं की कलाइयों से चूड़ियाँ उतारी हैं अपने इस आँचल से सिंदूर की रेखाएँ पोंछी हैं। (प० 22)
पुत्रों की ममता ने गांधारी को इस सीमा तक अविवेकी बना दिया है कि उसे कर्त्तव्या कर्त्तव्य का भी ध्यान नहीं रहता। उसका एक पुत्र युयुत्सु सत्य का पक्षधर होने के कारण युधिष्ठिर के पक्ष में लड़ता है और जब युद्धान्त पर वह पुनः वापस लौटता है तो विदुर प्रसन्न होकर उसे गांधारी के पास ले जाते हैं गांधारी पहले तो उसकी उपेक्षा करती है किन्तु फिर अपने व्यंग्यवाणों से उसके आहत हृदय को छलनी कर डालती है। गांधारी की प्रताड़ना का उग्रतम रुप निम्नलिखित पंक्तियों में द्रष्टव्य है, जो उसके विक्षोभजन्य अविवेक को प्रस्तुत करती हैं-
'पूछो विदुर इससे कुशल से है? बेटा, भुजाएँ ये तुम्हारी पराक्रम भरी थकी तो नहीं अपने बंधु जनों का वध करते-करते ? पाण्डव के शिवरों के वैभव के बाद तुम्हें अपना नगर तो श्रीहत सा लगता होगा? चुप क्यों हो? थका हुआ होगा यह विदुर इसे फूलों की शय्या दो कोई पराजित दुर्योधन नहीं है यह सोये जो जाकर सरोवर की कीचड़ में।
उपर्युक्त उद्धरण में व्यक्त आक्रोश के पीछे गांधारी का पुत्र शोक और ममता छिपी हुई है। अश्वत्थामा के द्वारा किए गए नरसंहार का वर्णन कर वह उल्फुल्लित हो उठती है। संजय के द्वारा वर्णन प्रस्तुत किए जाने पर जिज्ञासा करती जाती है और जब विदुर उसकी भर्त्सना करते हुए कहते हैं क्या उसका हृदय पत्थर का है जो इतने वीभत्स वर्णन को इतनी तन्मयता से सुन रही है, तब गांधारी अत्यन्त कठोर स्वर में कहती है-
'पत्थर के खानों से मणियाँ निकलती हैं, बाधा मत डालो विदुर संजय फिर..........?
और जब संजय यह कहता है कि अश्वत्थामा अग्नि की लपटों में धधकते शव -शिविर में बड़ा भयानक लग रहा था, तब गांधारी उससे अनुरोध करती हैं कि वह अपनी दिव्य दृष्टि से एक बार गांधारी को अश्वत्थामा के दर्शन करा दे ताकि वह अपनी खुली आँखों से देखकर अश्वत्थामा के तन को वज्र का बना सके। इससे अश्वत्थामा पाण्डवों के लिए अवध्य हो जाएगा। संजय जब यह कहता है कि गांधारी उसे देखकर वितृष्ण हो जाएँगी क्योंकि इस समय वह अत्यन्त कुरूप और भयावह हो उठा है तब गांधारी कहती हैं कि चाहे कुछ भी हो वह बड़ा पराक्रमी है-
"किन्तु वीर है, उसने वह किया है जो मेरे सौ पुत्र नहीं कर पाए, द्रोण नहीं कर पाए, भीष्म नहीं कर पाए।'
और अन्ततः संजय उसे अपनी दिव्य दृष्टि से सारा दृश्य दिखाने को तैयार हो जाता है किन्तु अपने पुत्र दुर्योधन के प्रति उसकी ममता उसे मरणोन्मुख दुर्योधन को देखने से रोक देती है। जब संजय इसका कारण पूछते हैं तो वह मर्माहत होकर अपने क्षत-विक्षत ममत्व का प्रदर्शन इन शब्दों में करती हैं-
'नहीं! नहीं! नहीं! देख नहीं पाऊँगी, किसी भी तरह मैं मरणोन्मुख दुर्योधन को, रहने दो संजय यह पट्टी बंधी है बंधी रहने दो।'
किन्तु जब अश्वत्थामा उसे मिलता है तो प्रतिहिंसावश वह अपनी पट्टी उतार देती है और अश्वत्थामा के तन को वज्र का बना देती है। अपने पुत्र का कंकाल देखकर वह इतनी विहल- विक्षुब्ध हो उठती है कि आवेश में आकर कृष्ण को शाप दे बैठती है। किन्तु कृष्ण के उस शाप को चुपचाप स्वीकार करते ही उसकी चेतना लौट आती है और वह अपने ही किए पर रोने लगती है। वह अपने पुत्रों के प्रति ममतालु होती हुई भी कृष्ण के प्रति अगाध ममता रखती है और आर्तनाद करती हुई कहती है-
"यह क्या किया तुमने, रोई नहीं मैं अपने सौ पुत्रों के लिए लेकिन कृष्ण तुम पर ममता अगाध है। कर देते शाप यह मेरा तुम अस्वीकार तो क्या मुझे दुःख होता । मैं थी निराश, मैं कटु थी, पुत्रहीना थी ।'
और फिर वह चीत्कार करती हुई विदुर से कहती है कि यह मैंने क्या कर डाला। इस पाश्चाताप में घुलती गांधारी अन्ततः यह समझती है कि जो शाप उसने कृष्ण को दिया था आज वह समस्त नगरों और वन में फैल गया है और वन की अग्नि में अपने शाप की प्रथम समिधा वह स्वयं बन गई है। इस प्रकार वन की अग्नि में वह अन्त में जलकर मर जाती है।
यह निर्विवाद है कि गांधारी का चरित्रांकन 'अन्धायुग' में उसके पूर्व रूप की छाया में और भी अधिक निखर उठा है। उसके चरित्र में सर्वत्र मौलिकता के दर्शन होते हैं। उसके पास केवल अंधी ममता नहीं है वरन् तर्क और प्रज्ञा भी है जिनका प्रदर्शन वह कई स्थलों पर करती है।
COMMENTS