मिस पदमा का चरित्र चित्रण - डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में पदमा एक महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है, कम से कम मूल नाटक में तो उसमें
मिस पदमा का चरित्र चित्रण - एक सत्य हरिश्चन्द्र
मिस पदमा का चरित्र चित्रण - डॉ० लक्ष्मीनारायण लाल के नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में पदमा एक महत्त्वपूर्ण पात्र नहीं है, कम से कम मूल नाटक में तो उसमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे उसका नाम विशेष पात्र के रूप में लिया जा सके। हाँ जब 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक अभिनीत होता है तो पदमा शैव्या की भूमिका निभाती है। शैव्या राजा हरिश्चन्द्र की पत्नी है और इस नाते पद्मा का स्वरूप भी महत्त्व प्राप्त कर लेता है। इसमें नारी पात्रों की संख्या कम ही है। उनमें से पदमा का चरित्र सबसे अधिक उभरा है।
सामान्य नारी
पदमा भूतपूर्व जमींदार और वर्तमान राजनेता देवधर की निजी सचिव है। इस दष्टि से उसका स्वतंत्र अस्तित्त्व नहीं है। वह देवधर के इशारों पर चलती है। न उसके स्वतंत्र विचार हैं और न ही स्वतंत्र कार्य हैं। अतः उसमें किसी को प्रभावित करने की क्षमता भी नहीं है। वह सजी-संवरी बनी ठनी रहती है। वह सुन्दर है। उसमें थोड़ा सा नखरा भी है जिसे प्रदर्शित करना नहीं भूलती।
मंच पर उसका प्रथम प्रवेश नाटक के प्रथम दृश्य में ही होता है जब वह देवधर के साथ लौका के घर जाती है जहाँ 'सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक खेला जा रहा है। गपोले उससे कहता है क्या पतुरिया की भूमिका कर सकती हैं तो उस पर न 'हाँ' कहती है और न 'ना' ही। बस उसका उत्तर है- क्या ? आई डाँट लाइक दिस देहाती ड्रामा । इस प्रकार वह हिन्दी में किए गए प्रश्न का उत्तर हिन्दी में नहीं देती, बल्कि अंग्रेजी में देती है। इससे वह यह जताना चाहती है कि राजनेता की सचिव होने के नाते वह दूसरों से अलग है। उसे हिन्दी में बोलना फूहड़पन लगता है। दूसरी बात यह भी है कि वह नाटक में भाग लेने से मना नहीं करती है, बल्कि उसे पतुरिया की भूमिका पसन्द नहीं है।
वह तभी अलग से कहती है- "पर ड्रामा मजेदार है। मेरी जिन्दगी भी एक ड्रामा है। इतनी सजी रहती हूँ बनी ठनी रहती हूँ। जो नहीं हूँ, वहीं दूसरों के लिए हूँ। देवधर इन्द्र है। मैं उनकी मेनका हूँ। देवधर देवराज है तो मैं उनकी उर्वशी हूँ। फस्ट क्लास चलेगा। फोक थिएटर में मेरी दिलचस्पी है।” इससे उसके भीतर की सच्चाई उजागर हो जाती है। किसी भी कारण से सही, वह नाटक में कोई भूमिका निभाने के लिए तत्पर है।
यहीं पर देवधर मिस पद्मा से नाटक में भूमिका अदा करने के लिए आदेश देता है और कहता है- “देखो, मिस पदमा, यह मेरा काम है। समझीं ? लौका मेरा सबसे बड़ा दुश्मन है। इसे अपने हुस्न की डोर से बाँध लो ।"
मिस पदमा के पास सटीक उत्तर है कि यह इतना आसान नहीं है। इसका अर्थ यह है कि पद्मा पहले से ही लौका को अच्छी तरह जानती है कि उसमें चरित्रगत कमजोरी नहीं है। नारी के प्रति उसे आकर्षण नहीं है। वह संयमी व्यक्ति है। इसका तात्पर्य यह भी है कि भले ही पदमा उसकी सचिव है, उसके आदेश का पालन करती है, परन्तु ऐसा नहीं है कि उसके पास समझ ही नहीं है। वह मनुष्य चरित्र को अच्छी तरह समझती है। यहाँ एक और बात भी कहनी है कि अपने बॉस का आदेश मानना उसका काम है। वह उस की 'हाँ' में 'हाँ' भी मिलाती है। फिर भी, वह अपनी बेबाक टिप्पणी भी दे सकती है। उससे भले ही बॉस की बात कट रही हो।
पदमा के उत्तर को सुनकर देवधर दूसरा पैंतरा बदलता है और कहता है कि लौका बदनाम तो हो ही सकता है। फिर वह उसे मुँहमाँगा इनाम का लालच भी देता है। पदमा को लालच स्वीकार्य नहीं है, परन्तु वह अपने बॉस के साथ लगातार बहस तो नहीं कर सकती। इसलिए नाटक में अभिनय का प्रस्ताव मान लेती है।
पराश्रित नारी
इस पर पदमा की स्वागत् टिप्पणी देखने और विचार करने योग्य है। इससे हमारे सामने कई बातें उभरती हैं। वह अपने आप से कहती है- "हर कोई इसके लिए एक चीज है। इनके इस्तेमाल की चीज । आखिर सब नाटक ही तो है इनके लिए मेरे लिए वही जीवन है। शैव्या का चरित्र आखिर यह नाटक किसका है ? शैव्या के चरित्र का सत्य पाऊंगी।” इससे पता चलता है कि वह देवधर के स्वभाव से अच्छी तरह परिचित है। वह कैसा व्यक्ति है। वह दूसरों का उपयोग अपने हितों के लिए करना चाहता है। वह एक ऐसा व्यक्ति है जो किसी के लिए कुछ नहीं है और सभी लोग उसके लिए हैं। उसे लगता है, यह जीवन की सच्चाई नहीं है, बल्कि जैसे नाटक हो रहा है। वह भी भीतर से देवधर के साथ नहीं है, परन्तु बाहर से यही दिखाती है कि उसके साथ है। पदमा के लिए यही सच्चाई है, क्योंकि उसे यह नाटक करना ही पड़ता है। अब उसे शैव्या की भूमिका निभानी है। क्या वह शैव्या के चरित्र का सच पा सकेगी? क्या वह अपनी सही भूमिका निभा सकेगी ? जो भी हो, वह देवधर की नौकर है और इस नाते उसे उसका आदेश मानना ही पड़ता है।
पद्मा चौथे दृश्य के अन्त में फिर आती है जहाँ गपोले स्वयं देवधर को सूचना देता है कि मिस पद्मा तक कुछ नहीं कर पाई। इसका तात्पर्य यही है कि वह लौका पर अपने सौंदर्य का जादू नहीं चला पाई। तब देवधर उसे बुलाकर कहता है- "कहाँ हो सुन्दरी अब तक तुम्हारा कोई जौहर देखने को नहीं मिला। कोई नाचगाना करो । हुस्न का जादू फैलाओ। बिजली गिराओ। लौका को बुलाओ, फंसाओ। बड़ा हरिश्चन्द्र बना फिरता है।
आदमी की समझ है
अब पदमा की प्रतिक्रिया देखिए जिसे वह अपने आपसे कहती है- "इसके लिए हुस्न बेचो, यही इसका काम है। पता नहीं यह किस चीज का दलाल है। इस संवाद में इसकी शक्ति है- इसके लिए स्त्री जादू है। औरत बिजली है। लौका मनुष्य नहीं शुद्र है।" इससे स्पष्ट है कि वह सब समझती है, बस कहती नहीं है। उसकी विवशता है। देवधर जैसे व्यक्तित्त्व ने सभी को दबाए रखा तो पदमा तो उसकी वेतनभोगी है, उसका व्यक्तित्त्व कैसे उभर सकता था। हाँ, वह कोशिश करने पर भी लौका को नहीं दबा सकी।
पदमा स्वयं एक औरत है और वह समझती है कि इस पुरुष नियंत्रित समाज में औरत का स्थान बहुत नीचे है। वह जानती है कि किस प्रकार नारी का शोषण होता है। पुरुष के लिए नारी क्या है- सुन्दरी है, जादू है, बिजली है। वह उपभोग की वस्तु है, उपयोग की वस्तु हैं अर्थात् वह बस वस्तु है और कुछ नहीं। पुरुष यह क्यों नहीं समझता कि उसके अन्दर भी धड़कता हुआ दिल है, उसका अपना व्यक्तित्त्व है, उसके अपने विचार हैं। वह पुरुष जैसे काम करती है। फिर भी, उसे मिलता क्या है ? उसका स्थान कहाँ है ? उसका सम्मान कहाँ है ?
देवधर तो इन मामलों में सबसे कठारे, सबसे बुरा पुरुष है। वह नारी को ही नहीं, अन्य पुरुषों को भी कुछ नहीं समझता। वह किसी के गुणों की कद्र नहीं करता। उसके लिए लौका जैसा व्यक्तित्त्व और कुछ नहीं है, बस शुद्र है। यह देवधर की द ष्टि का दोष है, वह स्वार्थी है।
चिंतनशील
इससे यह भली भाँति स्पष्ट हो जाता है कि उसके पास स्वस्थ विचार है उसमें सोच-विचार करने की क्षमता है। वह भले बुरे को समझने की योग्यता रखती है। वह नारी गरिमा को कायम रखती है। नाटककार ने उसके चरित्र के साथ कहीं खिलवाड़ नहीं किया है। उसने उसे तितली या ऐसा कही कुछ नहीं बनाया है। वह अपने को नीचे नहीं गिरने देती। वह जहाँ है, वहाँ है। उसका बहुत ऊँचा स्थान भी नहीं है। उसके बारे में अन्य पात्र कोई टिप्पणी नहीं करते। वह देवधर और लौका के बीच के अन्तर को समझती है कि कौन कहाँ है और क्या है।
फिर भी, वह देवधर से यही कहती है- "हाँ, क्यों नहीं, हुस्न का जादू मारूंगी। जवानी की बिजली गिराऊँगी।” इसके साथ ही वह न त्य गायन शुरू कर देती है। कहा जा सकता है कि उसकी सोच ओर उसके कथन एवं कार्य के बीच का अन्तराल है या यह उसकी कूटनीति है या वह पूर्णतः व्यावहारिक है या यह उसके चरित्र की कमजोरी है। बस, उसकी विवशता है, परन्तु वह कोई अनुचित कार्य नहीं करती है। वह सहज और स्वाभाविक रूप से ही जीवन जीती है।
मिस पद्मा के रूप में उसका चरित्र बस इतना ही खुल पाया है। नाटककार ने उसे और अवसर दिया ही नहीं। इसका कारण शायद इतना ही नहीं है कि वह देवधर की निजी सचिव होने के कारण वह राजनीति के क्षेत्र में कहीं नहीं है। न वह देवधर के पक्षधर है और न ही लौका की विरोधी है। उसका कोई स्तर ही नहीं बन पाया है। नाटककार के सामने भी इस तरह का कोई विचार नहीं था कि उस चरित्र के मूल रूप में और आगे चलाता। अगर नाटककार उसे देवधर की निजी सचिव न दिखाकर उसे अध्यापक के रूप में या सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में दिखाता तो मूल चरित्र में विकास हो सकता है, परन्तु वह नाटककार ने नहीं किया।
विशेष भूमिका
जब मिस पद्मा शैव्या की भूमिका में उतरी तो अपने भीतर उतरती चली गई और अन्त तक शैव्या ही बनी रही। नाटककार यह भूल गया कि नाटक के भीतर नाटक की नायिका शैव्या अपने रूप में मिस पद्मा थी। इसलिए उसे उसके मूलरूप में एक बार फिर लाया जाए, परन्तु ऐसा नहीं हुआ । अन्य सभी पात्र बीच-बीच में मूल रूप में आते रहे तथा नाटक के अन्त में एक बार फिर उसी रूप में आ गए। पद्मा को मूल रूप में लाने की कहीं आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। ऐसा लगता है, यह मिस पद्मा के प्रति ज्यादती हो गई।
सबसे बड़ी कठिनाई यह रही थी कि मिस पद्मा नाटक 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' में अन्य पात्रों के समान स्तर पर खड़ी नहीं हो सकी। न वह राजनीति और समाज के क्षेत्र में कहीं थी और न वह उन मुद्दों पर अन्य पात्रों के सामने अपने विचार प्रस्तुत कर सकती थी, जो मुद्दे नाटक में बार-बार उठते रहे। अतः उसे अवसर ही नहीं मिला कि वह दूसरों के समाने अपने विचार प्रस्तुत कर सके। कहा जा सकता है कि उसका व्यक्तित्त्व अविकसित रह गया और उसका चरित्र मुखर नहीं हो पाया। अवश्य ही, वह नाटककार की उपेक्षा का शिकार हुई। कम से कम एक नारी पात्र मिस पद्मा ही हो सकती थी। जिसमें विकास की संभावनाएं थीं।
सत्यवादिता
अब शैव्या के रूप में उसकी भूमिका को देखें । शैव्या दूसरे द में ही आती है जब वह अपनी पति हरिश्चन्द्र और पुत्र रोहित सहित मुनि विश्वामित्र के साथ जा रही है। गंतव्य स्थल है काशी जहाँ उन्हें बिकना है। वे लोग इस समय रास्ते में हैं। आपस में बातचीत हो रही है। बातीचत का आधार है- एक चरवाहा जो बाँसुरी बजा रहा है और बाँसुरी पर गीत के माध्यम से कुछ कह रहा है। जब रोहित उस गीत का भाव बताते हुए बाँसुरी वादक को महामायावी कहता है तो शैव्या उसे एक तरफ से डांटती है। उसके कुछ ही देर बाद हरिश्चन्द्र कहते हैं कि ऋषि विश्वामित्र हमारे साथ हैं तो वह भड़क जाती है और अपनी टिप्पणी जड़ती है- कैसे ऋषि, कैसे ज्ञानि, जिसे भूख हो राजसिंहासन की । "
इससे पता चलता है कि वह पति की अनुगामिनी मात्र नहीं है, उसके अपने विचार हैं जिन्हें स्पष्टता के साथ रखती है। सच को सच कह देने की क्षमता उसके पास है। इसी क्रम में हरिश्चन्द्र आदर्श, त्याग और बलिदान की बात करते हुए जीवन दर्शन खोलते हैं और कहते हैं- "यहाँ देकर ही पाया जाता है और त्याग कर ही भोगा जाता है।" इस पर रोहित कहता है कि यह मेरा अनुभव नहीं है। शैव्या भी कहती है- "मेरा भी यह अपना नहीं है। बस सुनती चली आई हूँ।" इसका तात्पर्य यह है कि वह अपने पति के आदर्श से असहमति व्यक्त करती है। कहा जा सकता है कि यहाँ उसने दूसरी बार असहमति जताई है और अपनी बात को स्पष्टतः कह देती है जो नारी अपने पति के मान के लिए स्वेच्छा से बिकने के लिए चली आई है, वही उसके आदर्शों के प्रति असहमति व्यक्त कर रही है।
बिकने का दर्शन
चौथा दृश्य काशी के बाजार का है जहाँ हरिश्चन्द्र को खरीदने के लिए डोम तैयार है। तब शैव्या कहती है- "नहीं, नहीं। ऐसा नहीं होने दूंगी। पहले में बिकूंगी।" वह यह भी कहती है- "स्त्रीत्त्व से भी बड़ा स्त्री का व्यक्तित्त्व है ।" इसके आगे वह वैचारिक आधार पर अपने कर्त्तव्य और उचित अनुचित के सामान्य धर्म पर अपनी बात कहती है। वह स्पष्ट करती है कि भले ही कुछ भी उचित हो अनुचित परन्तु मुझे पति धर्म के लिए बिकना है और पहले बिकना है। अन्त में यही होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि उसके पास वैचारिक शक्ति है, उचित अनुचित का विवेक है, फिर भी कर्त्तव्य कर्म के प्रति निश्चयात्मकता है। वह अपने विचारों में द ढ़ है और कहीं डगमगाती भी नहीं है। वह अनुयायी मात्र नहीं है।
पतिव्रता
शैव्या के चरित्र के कुछ रूप 'एक सत्य हरिश्चन्द्र' नाटक के सातवें यानी अंतिम दृश्य में खुलते हैं। इसमें पहला रूप है कि वह पतिव्रता नारी है। संयोग यह है कि वह वेश्या के हाथों बिक गई है। ये दोनों बातें कैसे निभ सकती हैं। छैला ने एक आदमी भेजकर पतुरिया से कहलाया था कि वह नई आई हुई औरत को उसके लिए भेज दे। पतुरिया ने शैव्या को बुलाकर कहा कि तुम्हें इस आदमी के साथ जाना है और पूछा- " पता है, तुझे वहाँ क्या करना है ?" उसका उत्तर शैव्या ने दिया- "ग्राहक प्रेमी जो माँगेगा भरसक देने की कोशिश करूंगी।" पतुरिया ने पूछा- “पर तुम तो अपने आप को पतिव्रता नारी कहती हो" - शैव्या ने कहा- “वही रहूंगी।” उसने यह भी बताया कि वह अपने पुण्य से पतिव्रता ही रहेगी।
और यही हुआ। वह एक ग्राहक के निवास पर गई । कुछ ऐसा चमत्कार हुआ कि अपने आप में खो गया। शैव्या को देखकर हत्प्रभ रह गया और शैव्या पतुरिया के कोठे पर वापस आ गई। बाद में छैला को होश आया तो पतुरिया के कोठे पर गया और अपना असंतोष प्रकट किया। छैला का संवाद देखिए जो पतुरिया से है, परन्तु जैसे अपने आप से बात कर रहा हो- “अहा! सुनता हूँ, पर सुना नहीं जाता, देखता हूँ पर देखा नहीं जाता। कुछ कौंध जाता है मेरी आँखों में, यह क्या है, जो दस्तक देती है मेरी साँसों में, सागर तट पर जैसे कोई मंदिर हो और उसमें यह चिराग जैसी जल रही हो। मैं पतंगा हूँ इस चिराग का। मैं चाहे जल कर भस्म हो जाऊं पर बुझाऊंगा उस चिराग को। मैं प्यासा सागर हूँ। तुझे छलकर पीऊंगा। धिक्कार है मेरे विलास को, यदि मैं इसे आँखों से न पी सका" ।
इससे उसका अंतर्द्धद्ध उभरता है और यह भी कि वह शैव्या के पतिव्रता तेज से वह स्वयं ही शिथिल हो गया है। उसके आगे का संवाद देखिए-
शैव्या : मैं यहाँ हूँ ।
पतुरिया : बिलकुल सामने खड़ी है। आप के कदमों में पड़ी है।
छैला : झूठ है। बिलकुल झूठ है। मैं खड़ा हूँ अपने सामने । अब और अधिक अपने को सह नहीं सकता, जो है उसे किसी भी तरह कह नहीं सकता ।
पतुरिया : फिर से देखो, यह रूपवती कामिनी है ।
छैला : कामिनी नहीं, मायाविनी है।
इस संवाद से स्पष्ट हो जाता है कि छैला अपने आपे में नहीं है और वह शैव्या के शीलवती, पतिव्रता रूप को चरम पर ले जाकर व्यक्त करता है। वह उससे कुछ चाहकर भी अपने आप में विवश है।
माँ का रूप
शैव्या के चरित्र का एक रूप कुछ ही आगे जा कर खुलता है जब उसके इकलौते पुत्र की मत्यु हो जाती हैं वह शोक विह्वल होकर विलाप करती है। फिर अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़कर उस पर कफ़न लपेटती है और स्वयं ही श्मशान घाट ले जाती है। वहाँ म त रोहित की अन्तिम क्रिया तब तक नहीं हो सकती जब तक वह वहाँ चांडाल को कर न दे दे। चांडाल के रूप में हरिश्चन्द्र जो शैव्या के पति ही हैं। शैव्या के पास कुछ नहीं है। हरिश्चन्द्र को कर अवश्य चाहिए, सो वह अपनी शेष आधी साड़ी निकालकर कर के रूप में हरिश्चन्द्र को दे देती है।
कड़ी परीक्षा
इस नाटक में वर्णित घटनाओं के आधार पर शैव्या कई परीक्षाओं से गुजरी है। हर परीक्षा पहले से कड़ी और विकट रही है, परन्तु वह हर बार खरी उतरी है। वह कर्त्तव्यपालक है। त्याग और बलिदान की भावनाओं से ओत-प्रोत है। उसका उदात्त चरित्र है। वह आदर्श नारी है।
मिस पद्मा ने नाटक के भीतर नाटक में शैव्या की भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है। इस पात्र को अच्छी तरह उभारा गया है। पद्मा और शैव्या में एक समानता भी है। दोनों स्वतंत्र रूप से निजी अस्तित्त्व नहीं रखतीं । वे पुरूष के अनुसार आचरण करती हैं। पदमा तथा शैव्या का संघर्षशील व्यक्तित्त्व नाटक को प्रभावोत्पादक रूप प्रदान करता है।
COMMENTS