अन्धायुग के संजय का चरित्र-चित्रण: संजय को महाभारत में दिव्य दृष्टि सम्पन्न तटस्थ वक्ता के रूप में दिखाया गया है और वह महाभारत युद्ध में अपनी दिव्य दृ
अन्धायुग के संजय का चरित्र-चित्रण
अन्धायुग के संजय का चरित्र-चित्रण: संजय को महाभारत में दिव्य दृष्टि सम्पन्न तटस्थ वक्ता के रूप में दिखाया गया है और वह महाभारत युद्ध में अपनी दिव्य दृष्टि से जो कुछ देखते हैं उसे स्पष्ट शब्दों में धृतराष्ट्र को बता देते हैं। 'अन्धायुग' में भी संजय के इसी रूप के दर्शन हमें होते हैं। वह सत्रह दिनों तक अपनी दिव्य दृष्टि से जो कुछ देखते हैं उसका सत्य कथन धृतराष्ट्र से करते हैं किन्तु अठारहवें दिन वह भी मोहग्रस्त होकर मार्ग में भटकने लगते हैं।
संजय तटस्थ द्रष्टा शब्दों के शिल्पी हैं और उनका दायित्व अत्यन्त गहन है किन्तु वह क्या करें, जो भाषा उन्हें मिली है वह अपूर्ण है और श्रोता अन्धे हैं किन्तु फिर भी यह निश्चित है कि संकट के क्षण में सत्य वही कहेंगे, लेकिन आज -
'वह संजय भी, इस मोह-निशा से घिर कर, है भटक रहा, जाने किस कंटक पथ पर।' (प० 84)
वह इस दुश्चिन्ता में पड़ जाते हैं कि यद्यपि वह सत्रह दिन तक समस्त युद्ध समाचार धृतराष्ट्र और गांधारी को देते रहे हैं। किन्तु आज अन्तिम दिन की पराजय ने जो अनुभव उन्हें दिया है उसने तो सत्य की प्रकृति को ही बदल डाला है फिर वही पुराने शब्द इस नयी अनुभूति को कैसे वहन कर पाएँगे?
'अन्धों से किन्तु कैसे कहूँगा हाय
X X X
चरम त्रास के उस बेहद गहरे क्षण में कोई मेरी सारी अनुभूतियों को चीर गया कैसे दे पाऊँगा मैं सम्पूर्ण सत्य उन्हें विकृत अनुभूति से?
किन्तु फिर भी संजय अपने कर्त्तव्य के प्रति जागरूक हैं और अपने दायित्व को पूरा करने के लिए कटिबद्ध। यद्यपि उन्हें मानसिक ऊहापोह ने जकड़ लिया है किन्तु फिर भी -
'सत्य कितना कटु हो से कटु से यदि कटुतर हो, कटुतर से कटुतम हो, फिर भी कहूँगा मैं केवल सत्य, केवल सत्य, केवल सत्य है अन्तिम अर्थ।'
और अपने इस निर्णय के साथ ही संजय शीघ्रता से हस्तिनापुर की ओर चल पड़ते हैं तभी अश्वत्थामा उन पर आक्रमण कर देता है और उनका गला दबोच लेता है। संजय को लगता है। जैसे वह अपने दायित्व से मुक्त होने जा रहे हैं किन्तु तभी कृपाचार्य और कृतवर्मा उन्हें बचा लेते हैं। उस पर क्षुब्ध होकर संजय कह उठते हैं-
'मत छोड़ो मुझे कर दो वध जाकर अन्धों से सत्य कहने की मर्मान्तक पीड़ा है जो उससे तो वध ज्यादा सुखमय है।'
संजय के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि वह तटस्थ रहकर केवल सत्य कथन कह सकते हैं किन्तु कर्म मार्ग से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्म लोक से तो वह बहिष्कृत हैं। न वह स्वयं कर्म कर सकते हैं और न किसी को उस ओर प्रवत्त कर सकते हैं और न ही तटस्थ द्रष्टा होने के कारण कर्म मार्ग के दर्शन का ही परित्याग कर सकते हैं। उनकी स्थिति दो पहियों के बीच लगे उस शोभा-चक्र की सी है, जो व्यर्थ तो है किन्तु अपनी धुरी से उतर भी नहीं सकता-
मैं संजय हूँ जो कर्मलोक से बहिष्कृत है मैं दो बड़े पहियों के बीच लगा हुआ एक छोटा निरर्थक शोभा चक्र हैं जो बड़े पहियों के साथ घूमता है पर पथ को आगे नहीं बढ़ाता और न धरती ही छू पाता है। और जिसके जीवन का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि वह धूरी से उतर भी नहीं सकता।
फिर भी वह अपना कर्तव्य निर्वाह करते हैं और धृतराष्ट्र तथा गांधारी को दुर्योधन के मरण के समाचार के साथ ही अश्वत्थामा द्वारा किए गए नरसंहार का समाचार भी सुनाते हैं। गांधारी को अश्वत्थामा के दर्शन कराने के फेर में वह अपनी दिव्य द ष्टि भी खो बैठते हैं। मानव मूल्य के निकट जा ही नहीं सकते और न ही मानव- भविष्य की सुरक्षा की ही सामर्थ्य उनमें है-
'कर्म से पृथक खोता जाता हूँ क्रमशः
अर्थ अपने अस्तित्व का।' (प० 125 )
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