वांगचू कहानी की मूल संवेदना - वांगचू एक संवेदनशील बौद्ध भिक्षु है वह चीन से भारत आया था। वांगचू कहानी की मूल संवेदना में जिस भोले-भाले यात्री का चित्र
वांगचू कहानी की मूल संवेदना - Wangchoo Kahani ki Mool Samvedna
वांगचू कहानी की मूल संवेदना - वांगचू एक संवेदनशील बौद्ध भिक्षु है वह चीन से भारत आया था। वह चीनी शोध छात्र है भारत में वह बौद्ध धर्म के अध्ययन हेतु आया है। वह एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने देश चीन की क्रांतिकारी घटनाओं से बेखबर है। वर्षों से भारतीय बौद्ध विहारों में एकान्त साधना में मग्न रहता है। समसामयिक राजनीतिक घटनाओं और हलचलों से अलिप्त रहकर वह एकांत साधना में रहता है। वह अपनी साधना में इतना आत्मलीन हो जाता है कि बाहर क्या हो रहा है इसका उसे पता भी नहीं होता है। उसकी शोधवृत्ति से प्रभावित होकर भारत में उसे लोगों की सहानुभूति और प्रेम प्राप्त होता है। भारत का प्रेम वांगचू को वापिस भारत बुलाता है। संवेदनशील, प्रेम की भाषा बोलने वाला वांगचू राजनीतिक व्यवस्था में खूब पिसता है। बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन करने वाला वांगचू जब वापिस चीन जाता है तो उसे गहरे तनाव का सामना करना पड़ता है। चीन में वांगचू के ऊपर नज़र रखी जानी आरम्भ हो गई। मित्तभाषी वांगचू को एक दिन एक आदमी ग्राम - प्रशासन केन्द्र में ले गया। ग्राम-प्रशासन–केन्द्र में पहुँचते ही उससे भारत और उससे सम्बन्धित विभिन्न सवाल पूछे जाने लगे – “तुम भारत में कितने वर्षों तक रहे ? वहां पर क्या करते थे ? कहाँ-कहाँ घूमे ? आदि आदि। फिर बौद्ध धर्म के प्रति वांगचू की जिज्ञासा के बारे में जानकर उनमें से एक व्यक्ति बोला "तुम क्या सोचते हो, बौद्ध धर्म का भौतिक आधार क्या है?" वांगचू जिस देश में पैदा हुआ वहां उसका दिल नहीं जम पा रहा था । चीन-भारत युद्ध के छिड़ने के बाद अपने मित्रों की सलाह से वह अपने देश चीन को लौट जाता है। पर उसे भारत से लौटता हुआ देखकर चीन की सरकार उसे संदेह के घेरे में ले लेती है। प्रेम को आधार बनाकर जीने वाला वांगचू राजनीति की चक्की में पिसता जाता है। अपने देश में ही उसे ऊब होने लगती है। वह वापिस भारत चला आता है लेकिन भावनाओं में संलिप्त वाङ्च को वापिस भारत में आकर मुँह की खानी पड़ती है। भारत-चीन युद्ध छिड़ जाने के कारण वांगचू को चीन का भेदिया समझकर भारत की पुलिस पकड़ लेती है। चीनी होने की हैसियत से वह भारतीय पुलिस द्वारा संदेह की नज़रों से देखा जाता है। बदलते समय और परिस्थितियों के प्रति वांगचू इतना अबोध रहता है कि उसकी समझ में नहीं आता कि यह सब क्या चल रहा है। इन अवांछित और विपरीत परिस्थितियों के कारण वांगचू की सारी एकांत साधना व्यर्थ होती जा रही थी। इतना ही नहीं अपितु उसके विपत्ति का कारण भी वह बनती है। वांगचू के शोधपत्र, किताबों को जब्त कर लिया जाता है। उस पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। वाङ्यू अपने कागज़ों के बिना अधमरा हो जाता है। गैर-मौजूदगी में पुलिस के सिपाही उसकी कोठरी से उसकी ट्रंक ले जाते हैं। सुपरिटेण्डेण्ट के सामने जब कागज़ों की पोटली को खोला गया तो वाड्यू के शोध पर गहरा सन्देह किया गया। भीष्म साहनी ने व्यवस्था के सन्देह से परिपूर्ण चित्र बड़ी मार्मिकता से उकेरे हैं। “कहीं पाली में तो कहीं संस्कृत भाषा में उद्धरण लिखे ; लेकिन बहुत सा हिस्सा चीनी भाषा में था। साहब कुछ देर तक तो कागज़ों को उलटते-पलटते रहे, रोशनी के सामने रखकर उनमें लिखी किसी गुप्त भाषा को ढूँढते रहे, अन्त में उन्होंने हुक्म दिया कि कागज़ों के पुलिन्दे को बाँधकर दिल्ली के अधिकारियों के पास भेज दिया जाये, क्योंकि बनारस में कोई आदमी चीनी भाषा नहीं जानता था।"
चीन-भारत की लड़ाई बन्द होने के बाद कोई एक महीने के बाद वांगचू पुलिस हिरासत से मुक्त हुआ । पुलिस ने उसका ट्रंक वापिस किया। उसमें कोई भी कागजात न पाकर वांगचू बड़ा हतप्रभ हुआ। पुलिस से गिड़गिड़ाया- मुझे मेरे कागज़ात वापस कर दीजिए, उन पर मैंने बहुत कुछ लिखा है, वे बहुत ज़रूरी हैं, तो पुलिस वालों ने कहा – “मुझे उन कागज़ों का क्या करना है, आपके हैं, आपको मिल जायेंगे।" प्रशासन के इस क्रूर व्यवहार के कारण वह बीमार होता चला गया। वह बीमार तो था ही लेकिन पुलिस अधिकारियों के रवैये से और अधिक मानसिक 'रूप से बीमार होता गया। महीने भर बाद लेखक को खबर मिलती है कि वांगचू की मौत हो गई। इससे स्पष्ट होता है कि राजनीति दो देशों के बीच के मानवीय और सांस्कृतिक संबंध को नहीं देख पाती है, हालांकि राजनीति का आधार इसी तरह का सम्बन्ध होना चाहिए। डॉ. किरणबाला के शब्दों में कहें, तो 'वाङ्यू' न चीनी था, न भारतीय, वह मात्र मनुष्य था और इसलिए वह चीनी भी था और भारतीय भी इस बात को गलत राजनीति ने नहीं समझा और मानवमूल्य की उपेक्षा की गई। राजनीति की इस निर्मम संवेदनशीलता का शिकार बनती है सबसे पहले आदमी के आदमी होने की निष्ठा। सारा ज्ञान, सारी जिज्ञासाएँ उच्चतर लक्षणों के प्रति अर्पित जीवन की सारी ईमानदारी और निःस्वार्थ चेष्टाएँ इस निर्मम राजनीति के समक्ष संदिग्ध बनती हैं।
वांगचू को याद करकर रोने वाले बहुत ज़्यादा लोग नहीं थे। लेखक ने जब वांगचू की मौत की खबर सुनी तो सबसे पहले उन्होंने सारनाथ जाने का मन बनाया। फिर सोचा गया कि वहां उसका कौन हो सकता है, जिसके सामने जाकर वह अफसोस जतलाए । लेकिन फिर भी लेखक वहां गया और वहां पर उससे मिलने सारनाथ के मंत्री भी आए। मंत्री जी ने कहा – वांगचू बड़ा नेक दिल आदमी था, सच्चे अर्थों में बौद्ध भिक्षु था। कैंटीन का रसोइया आया वह भी कहने लगा – बाबू आपको बहुत याद करते थे। बहुत भले आदमी थे कहते-कहते वह रूआंसा हो गया। कहानीकार ने कहा है कि संसार में शायद यही अकेला जीव था जिसने वांगचू की मौत पर आंसू बहाए थे। कहानीकार ट्रंक और कागज़ों का पुलिन्दा लिए दिल्ली लौट जाते हैं। लेखक का रास्तेभर वाङ्च की पाण्डुलिपियों से सम्बंधित सोच विचार अत्यन्त मार्मिकता से भर देता है - "इस पुलिन्दे का क्या करूँ? कभी सोचता हूँ, इसे छपवा डालूँ, पर अधूरी पाण्डुलिपि को कौन छापेगा? पत्नी रोज़ बिगड़ती है कि मैं घर में कचरा भरता जा रहा हूँ! दो-तीन बार वह फैंकने की धमकी भी दे चुकी है, पर मैं इसे छिपाता रहता हूँ। कभी किसी तख्ते पर रख देता हूँ। कभी पलंग के नीचे छिपा देता हूँ। पर मैं जानता हूँ, किसी दिन ये भी गली में फेंक दिये जायेंगे ।"
दो देशों के बीच गलत राजनीति के कारण मानवीय एवं सांस्कृतिक संबंधों की जो स्थिति होती है, यह कहानी उसका सबूत है। वांगचू कहानी की मूल संवेदना में जिस भोले-भाले यात्री का चित्रण किया गया है उसकी सहजता और सरलता मात्र कल्पना से निर्मित नहीं की जा सकती है। जिस ढंग से भीष्म जी ने वांगचू के चरित्र को गड़ा है उसे पढ़कर लगता है, "भीष्म जी कहानी नहीं लिख रहे भारत और भारत की पुरानी संस्कृति के प्रति अपरिमित जिज्ञासा रखने वाले एक भोले-भाले चीनी यात्री से हमें मिलवा रहे हैं। कहानी के अंत में उसके विश्वास का टूटना या उसका 'हक्का-बक्कापन' कहीं-न-कहीं खुद हमें कचोट जाता है।"
कहानी का अंत होने पर पाठकों के मन में इस संसार की नीरवता और हताशा से गहरा साक्षात्कार होता है जहां किसी की भावनाओं और संवेदनाओं का कोई अर्थ नहीं रह गया है। सारा कुछ भौतिकवादी और उपयोगितावादी दृष्टि पर ही केन्द्रित हो आया है। वांगचू को त्रासदमयी पीड़ा से गुज़रना पड़ा। राजनीति की बिसात पर कुछ सड़े-गले फालतू से कानून कायदों के लिए भोले-भाले वांगचू की बलि चढ़ा दी गई। यह कहानी इस का बात का प्रमाण है कि वक्त की कोई भी गर्दिश वांगचू को धूमिल नहीं कर पाई। वांगचू एक ऐसा पात्र है जो वक्त की भट्ठी में तपकर कुन्दन हो चुका है
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