चीफ की दावत कहानी की मूल संवेदना - भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' मध्यवर्गीय समाज के परिवेश और मानसिकता को वास्तविकता के साथ अभिव्यक्त करती है। इस
चीफ की दावत कहानी की मूल संवेदना क्या है?
चीफ की दावत कहानी की मूल संवेदना
चीफ की दावत कहानी की मूल संवेदना - भीष्म साहनी की कहानी 'चीफ की दावत' मध्यवर्गीय समाज के परिवेश और मानसिकता को वास्तविकता के साथ अभिव्यक्त करती है। इस कहानी के माध्यम से लेखक ने बुजुर्गों की पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। आधुनिक दौर में किस तरह परिवार में बुजुर्गों को हाशिये पर धकेला जा रहा है। आधुनिक दौर के मध्यवर्ग का व्यक्ति आगे बढ़ने की चाह में दौड़ता जा रहा है और आगे बढ़ने की होड़ में पारिवारिक एवं सामाजिक सम्बन्धों की बलि चढ़ाता जा रहा है। (पैसे) अर्थ की लालसा में व्यक्ति संवेदनहीन बनता जा रहा है। मशीन और बिजनेस के इस युग में व्यक्ति भी मशीन बन चुका है।
नगरों-महानगरों के लोग पारिवारिक मूल्यों की खिल्ली उड़ाते नज़र आते हैं। ऐसे में वे भूल जाते हैं कि जीवन कितना खोखला होता चला गया है। बुजुर्गों एवं परम्परा के प्रति असंवेदनशीलता से उनके जीवन में ममता, दया, करुणा, सहानुभूति जैसे जीवन के मूलभूत तत्व लुप्त होते जा रहे हैं। चीफ की दावत, वाङ्चू और तस्वीर कहानी इसी यथार्थ को उभारती हैं और मध्यवर्ग की कुण्ठाओं, घुटन, बिखराव को यथार्थ के धरातल पर रेखांकित करती हैं। खोखली मर्यादाओं, बाह्य आडम्बरों और आरोपित नैतिकता के प्रति भीष्म साहनी का दृष्टिकोण व्यंग्यपूर्ण रहा है। 'चीफ की दावत ' कहानी आधुनिक दौर में बुजुर्गों की पीड़ा को वाणी देती है। मध्यवर्गीय व्यक्ति की अवसरवादिता, उसकी महत्त्वकांक्षा में पारिवारिक रिश्ते के विघटन को उजागर करना इसका मुख्य उद्देश्य है। लेखक इस कहानी के माध्यम से स्पष्ट करता है कि आज व्यक्ति उच्च वर्ग में शामिल होने के अवसरों की तलाश में रहता है। ऊँचा बनने और अत्यधिक पैसे प्राप्त करने चाह ने व्यक्ति को भीतर से खोर बना दिया है। इस में आधुनिकता और परम्परा का द्वन्द्व सहज ही देखा जा सकता है। एक ओर नए-नए आधुनिक बने बाबू शामनाथ और उसकी पत्नी है, वहीं दूसरी ओर फालतू सामान की हैसियत में तब्दील माँ है। मध्यवर्गीय जीवन का एक विचित्र अंतर्विरोध है कि वह परम्पराओं को छोड़ नहीं पाता और आधुनिक बनने की ओर ललचाई नज़रों से निहारता है। बड़े-बूढ़ों के प्रति अतिसंवेदनशीलता, ममता, दया, करुणा के लोप से जीवन का वास्तविक अर्थ ही अर्थहीन होता जा रहा है। 'अर्थ' को जीवन का शगल मानने वाले श्रवण कुमार शामनाथ की उस मानसिकता का अर्थ व्याख्यायित किया गया है जिसमें पुत्र मां को पहले तो अर्थहीन समझकर अपने मुताबिक में सेट करना चाहता है परन्तु जब बॉस उसे माँ का अर्थ समझाता है तो शामनाथ माँ का महत्त्व अपने स्वार्थ की कसौटी पर ही समझता है। शामनाथ के लिए माँ प्रमोशन की सीढ़ी मात्र है। निःसंदेह वह अभी तक माँ के अर्थ को नहीं समझ पाया था। भीष्म जी की पैनी दृष्टि एक मार्मिक चित्र खींचती है- "शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आये और माँ को आलिंगन में भर लिया। ओ मम्मी! तुमने तो आज रंग ला दिया!" "साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी कहानी का केन्द्र बिन्दु शामनाथ की समस्या तरक्की की नहीं बल्कि तरक्की के आगे आने वाली 'समस्या' मां है। उसकी यह चिंता है कि प्रदर्शन के अयोग्य माँ को प्रदर्शन की वस्तु कैसे बनाया जाये। शामनाथ का व्यवहार इस बात का द्योतक है कि वह संस्कारों की भी प्रदर्शनी लगाने में विश्वास रखता है। शामनाथ को लगा कि घर में माँ को छिपाया नहीं जा सकता और उसे पड़ोस की विधवा के घर भेजने से भी उसकी नाक कट जाएगी, तब उसे यह चिन्ता सताने लगी कि चीफ के आने पर माँ कहाँ बैठेगी, कौन से कपड़े पहनेगी और कौन-सा ज़ेवर पहनेगी। माँ के साथ उसकी बातचीत बड़ी रोचक एंव अर्थगर्भित है - "और माँ, हम लोग पहले बैठक में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना, फिर जब हम यहाँ आ जायें, तो तुम गुसलखाने के रास्ते बैठक में चली जाना। माँ अवाक् बेटे का चेहरा देखने लगी। फिर धीरे से बोली- अच्छा बेटा।” शामनाथ के लिए माँ कठपुतली बन चुकी थी। जिसे वह अपने हिसाब से बैठाना, संवारना और बुलवाना चाहता था। शामनाथ का अपनी माँ के प्रति व्यवहार हृदय को द्रवित करने वाला है। जिसे माँ ने अपने ज़ेवर बेचकर शामनाथ को इतनी दूर पहुँचाया, आज उसी बेटे के लिए वही माँ महत्त्वहीन बन चुकी है। वर्तमान समय में सम्बन्धों को स्वार्थ के तराजू पर तौला जाता है, चाहे वह फिर माँ ही क्यों न हो।
प्रस्तुत कहानी बहू और बेटे के फूहड़ व्यवहार एवं क्षुद्र सोच को दर्शाती है। इतना पढ़ लिखकर आज का व्यक्ति बुद्धिहीन होता जा रहा है। संवेदनहीन होता जा रहा है, वह प्रेम की भाषा के अलावा स्वार्थ की भाषा बोलता है। जब शामनाथ और उसकी पत्नी घर को डेकोरेट करने के लिए माँ को उचित स्थान पर सेट करने को व्यग्र होता है। संपन्नता एवं प्रदर्शन हेतु माँ को कुर्सी पर कैसे बैठाने के साथ-साथ माँ को सफेद सलवार कमीज़ और चूड़ियाँ पहनने का निर्देश देता है। एक कुर्सी को उठाकर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले "आओ माँ, इस पर ज़रा बैठो तो। माँ माला संभालती, पल्ला ठीक करती उठीं और धीरे-धीरे से कुर्सी पर आकर बैठ गयीं। यूँ नहीं, माँ टाँगें ऊपर चढ़ाकर नहीं बैठते, यह खाट नहीं है। माँ ने टाँगें नीचे उतार लीं। जिस माँ ने बेटे को अपनी पहली ऊँगली पकड़ाकर चलना सिखाया, सहारा दिया, दुनिया को पहचानने की समझ दी, उस बेटे को आज पैसे के लोभ और अंग्रेजियत मिजाज़ ने इतना अन्धा बना दिया है कि उसे जीवन का सही अर्थ समझ नहीं आ रहा है।
शामनाथ की एक समस्या हल होती और दूसरी समस्या की गठरी खुल जाती । वह सम्पन्नता प्रदर्शन के द्वारा चीफ पर अपनी धाक जमाना चाहता है, इसलिए वह माँ को सफेद सलवार-कमीज़ और चूड़ियाँ पहनने को मजबूर करता है। माँ और बेटे का संवाद, पुत्र की बुद्धिमत्ता और मां की स्थिति की मार्मिकता को दर्शाता है - "चूड़ियां कहां से लाऊं बेटा, तुम तो जानते हो, सब ज़ेवर तुम्हारी पढ़ाई में बिक गए' यह वाक्य शामनाथ को तीर की भांति चुभा । वह उत्तर में कहता है, “जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना ।" भौतिकता की इस आँधी के थपेड़ों से माँ रूपी परम्परा ज़ख्मी हो रही है। संवेदनशीलता के साथ लेखक परम्परा के महत्त्व को स्थापित करता है । यह कहानी पाठक को सोचने पर विवश कर देती है कि अर्थ के इस युग में संस्कार और नवीन मूल्यों को कितना समझा जा सका है। तथाकथित विकसित, आधुनिक सभ्य समाज का जो यांत्रिक युग चल रहा है उसमें सब कुछ इमेडिएट (तत्काल ) प्राप्त करना ध्येय बनता जा रहा है। पैसे को ही जीवन का अर्थ समझने वाला सुपुत्र माँ को गुसलखाने से भी एक पायदान नीचे का दर्जा देने से भी नहीं हिचकता है।
शामनाथ की इस चीफ की दावत में माँ उपहास का माध्यम बनती है। पूंजीवादी आधुनिकता बोध और यथार्थवादी विचारधारा के अन्तर्विरोध यहाँ खुलते हैं। शामनाथ द्वारा दी गई दावत में पुरुष और महिलाएं बेहिचक शराब पीते हैं। यहां तथाकथति अभिजात्य समाज की मर्यादाएं और सदाचार को तार-तार कर दिया जाता है। माँ को उपहास का केन्द्र बनाते हुए भी शामनाथ को लाज नहीं आती। जब वह माँ को आदेश देता है "माँ हाथ मिलाओ !" बात यहीं नहीं समाप्त होती। पराकाष्ठा का चरम बिंदु "हो डू डू" और बरामदा तालियों से गूंज उठा। साहब तालियां पीटना बन्द ही नहीं करते थे। शामनाथ की माँ के प्रति खीझ प्रसन्नता और गर्त में बदल उठी। मां ने पार्टी में नया रंग भर दिया था। माँ की विवशता शामनाथ के लिए प्रसन्नता और गर्व का कारण बनी थी ।
देर रात तक पार्टी में से आती ठहाकों की आवाज़ों से माँ का गला रुदने लगा। माँ का अर्न्तमन शामनाथ की दावत से छिल चुका था। बुढ़ापे के समय में वह अपनी पीड़ा कहती भी तो किसे कहती। अपनी संतान ने ही भरी सभा में माँ को उपहास का पात्र बनाया। अपने आप को फालतू महसूस समझने वाली माँ कोठरी के किवाड़ बन्द करके रोने लगी। आसूओं की बाढ़ को पोंछने वाली कोठरी में कोई न था । जीवन भर अपनी खुशियों को परे धकेल अपनी संतान की तरक्की चाहने वाली माँ को बुढ़ापे के समय उपेक्षित व्यवहार झेलना पड़ता है।
दावत की गुडनाइट के पश्चात माँ की जिस दशा का वर्णन भीष्म जी ने किया है वह अत्यन्त मार्मिक है। उन्होंने माँ के घुटन भरे वातावरण को चित्रित किया है। "मगर कोठरी में बैठने की देर थी कि आँखों से छल-छल आंसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें पोंछती, पर वे बार-बार उमड़ आते, जैसे बरसों का बांध तोड़कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया भगवान का नाम लिया, बेटे के चिरायु होने की प्रार्थना की, बार-बार आँखें बंद की, मगर आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही नहीं आते थे।” इस सन्दर्भ से अनुमान लगाया जा सकता है कि बूढ़ी माँ बेटे के घर में घुट-घुट कर जी रही थी। इस घुटन भरे वातावरण से मुक्ति पाने के लिए वह बेटे से हरिद्वार भेज देने का प्रस्ताव रखती है परन्तु शामनाथ अपनी बदनामी के डर से स्वीकार नहीं करता और तरक्की की लिप्सा तो थी ही उसे।
शामनाथ के साहब को माँ की पुरानी फुलकारी बहुत पसन्द आती है। साहब की चाहत हुई कि उसे भी वैसी ही फुलकारी माँ बनाकर दे। लेकिन माँ की नज़र इस बुढ़ापे में साथ नहीं दे रही थी। माँ को जैसे ही मालूम हुआ कि फुलकारी बनाने से बेटे की प्रमोशन हो जायेगी तो वह तुरन्त बेटे को हाँ करती है। हरिद्वार जाने के प्रस्ताव को भी भूल जाती है। अंतस् को छील देती पंक्तियां माँ के अर्थ को अर्थमान बनाती हैं- "क्या साहब तेरी तरक्की कर देगा? क्या उसने कहा है? कहा नहीं मगर देखती नहीं, कितना खुश गया है। कहता था जब तेरी माँ फुलकारी बनाना शुरु करेगी, तो मैं देखने आऊंगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब खुश हो गया तो मुझे इससे बड़ी नौकरी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूं!" मां के चेहरे का रंग बदलने लगा, धीरे-धीरे उसका झुर्रियों भरा मुंह खिलने लगा। आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।
इस कहानी में शामनाथ की माँ वात्सल्य की प्रतिमा के रूप में चित्रित हुई है और शामनाथ मध्यवर्ग के एक दुनियादार, महत्त्वकांक्षी, खुशामदी, प्रदर्शन - प्रिय, अवसरवादी व्यक्ति के रूप में दिखाई देता है।
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