शतरंज के खिलाड़ी कहानी की समीक्षा - विश्व कथा-साहित्य में प्रेमचंद की एक अलग पहचान है। इनकी कहानियाँ और उपन्यास तत्कालीन व समकाल की विद्रूपताओं, समस्य
शतरंज के खिलाड़ी कहानी की समीक्षा - Shatranj ke Khiladi Kahani ki Samiksha
शतरंज के खिलाड़ी कहानी की समीक्षा - विश्व कथा-साहित्य में प्रेमचंद की एक अलग पहचान है। इनकी कहानियाँ और उपन्यास तत्कालीन व समकाल की विद्रूपताओं, समस्याओं और सपनों को बयान करती हैं। हिन्दी कहानी के इतिहास में 'शतरंज के खिलाड़ी' एक सशक्त कहानी है। प्रेमचंद जी की यह कहानी आज भी प्रासंगिक है। मिर्ज़ा सज्जाद अली और मीर रोशन अली के माध्यम से यह कहानी हमारे समाज के कर्तव्यच्युत होने को दर्शाती है। शासकों से लेकर ज़्यादातर समर्थ व आम नागरिक किसी न किसी विलास या स्वार्थ में डूबकर आँखें बंद किए हुए हैं। ग़रीबी, बेरोज़गारी और अक्ष व्याप्त है, मगर सत्ता और जनता का एक बड़ा हिस्सा मिर्ज़ा व मीर के चरित्र को जी रहा है। मिर्ज़ा व मीर जागीरदार हैं, वे सामंतीय मानसिकता के प्रतिनिधि पात्र हैं। वे दिनभर शतरंज खेलते रहते हैं। घर-बाहर के लोग उनके इस खेल से परेशान हैं। अपने घरों से झिड़के जाने पर वे दूर एक वीरानी मस्जिद में अड्डा बना लेते हैं। वहाँ भी वे नियमित सुबह से शाम तक खेलते रहते हैं। इस बीच देश अंगेज़ों की बेड़ियों में पूरी तरह जकड़ गया, पर मीर और मिर्ज़ा जैसे लोग उनके बढ़ते वर्चस्व से बेखबर बने रहते हैं, समाज के पतन से भी उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता । अंतत: अपने राजा को बंदी बना लेने और राज्य की हार से भी वे विचलित नहीं होते, वे मूक दर्शक बनकर सबकुछ हारता हुआ देखते रहते हैं। मगर शतरंज के राजा-रानी और झूठी शान के लिए एक दूसरे से भिड़ जाते हैं और एक दूसरे द्वारा कत्ल कर दिए जाते हैं। इस कहानी को पढ़ते हुए हिन्दी की एक और महत्वपूर्ण कहानी 'मुगलों ने सल्तनत बख्श दी' भी याद आती है। उसमें भी चुपचाप देश को अंग्रेज़ों का गुलाम होते जाना दर्शाया गया है।
आज भी ज़्यादातर लोग अपनी-अपनी शतरंज बिछाए बैठे हैं। उन्हें दीन व दुनिया की कोई खबर नहीं । वे अपने-अपने मोहरे बचाने में लगे हैं, किसी विशेष दल/मठ/समुदाय/जाति/धर्म/प्रांत / भाषा के लिए तो यह लोग लड़ते हैं, मगर समग्र देश- समाज और दुनिया के लिए इनके पास कोई सामूहिक सपना नहीं है। वे अपने दायित्वों से एकदम विमुख रहते हैं। समाज की सही नब्ज़ पकड़ने, ज्वलंत समस्या दर्शाने और अपने मौलिक कहन व जीवंत परिवेश के कारण इस कहानी को साहित्य, रंगमंच व सिनेमा की दुनिया में भी खूब सफलता मिली। इस कहानी का परिवेश और पात्र अति प्रामाणिक है। प्रेमचंद जब लिखते हैं- "मुहल्ले में जो भी दो चार पुराने जमाने के लोग थे, आपस में भाँति-भाँति की अमंगल कल्पनाएँ करने लगे---अब खैरियत नहीं। जब हमारे रईसों का यह हाल है, तो मुल्क का खुदा हाफिज है। यह बादशाहत शतरंज के हाथों तबाह होगी। आसार बुरे हैं।" तो स्पष्ट है कि यह केवल मात्र उस समय का ही सच नहीं था। यह समकाल का भी यथार्थ है।
'शतरंज के खिलाड़ी' 1924 में लिखी गई थी। यह वाजिद अली शाह के समय को आधार बनाकर लिखी गई है यानी यह एक ऐतिहासिक कहानी है। कहानी का कथ्य वाजिद अली शाह के राज्यच्युत होने और उनके दरबारियों, जागीरदारों समेत आम आदमी के विलासिता व स्वार्थ में डूबे रहने पर आधारित है। अंग्रेज़ों ने 1856 में अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह को बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया और लखनऊ को अपने अधीन कर लिया। इस पर कोई प्रतिक्रिया या विरोध नहीं हुआ। प्रेमचंद जी ने इस कहानी में बड़ी कलात्मकता से हमारे समाज के कर्तव्यच्युत होने को दर्शाया है। इसी अकर्मठता और अदूरदर्शिता के कारण हम गुलाम हुए। प्रेमचंद ने कहानी के आरम्भ में लखनऊ की विलासिता का वर्णन किया है। वे लिखते हैं-
राजकर्मचारी विषय वासना में, कविगण प्रेम और विरह के वर्णन में, कारीगर कलावत और चिकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र, मिस्सी और उबटन का रोज़गार करने में लिप्त थे। सभी की आँखों में विलासिता का नशा छाया हुआ था। संसार में क्या हो रहा है, इसकी किसी को खबर न थी ।" वे आगे लिखते हैं- "शतरंज, ताश, गंजीफ़ा खेलने से बुद्धि तीव्र होती है, विचार शक्ति का विकास होता है, पेचीदा मसलों को सुलझाने की आदत पड़ती है। ये दलीलें ज़ोरों के साथ पेश की जाती थीं ।
उपरोक्त उद्धरण प्रेमचंद की कल्पना मात्र नहीं है बल्कि ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध तथ्य हैं। कहानी के दूसरे भाग में अराजकता का चित्रण है। अंग्रेजों ने इसी विलासिता और अराजकता की आड़ में लखनऊ को अपने अधीन ले लिया। सरल व प्रभावी भाषा शैली में प्रेमचंद की दृष्टि और भाव देखें-
आज तक किसी स्वाधीन देश के राजा की पराजय इतनी शांति से, इस तरह खून बहे बिना न हुई होगी। यह वह अहिंसा न होगी, जिस पर देवगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जिस पर बड़े-बड़े कायर भी आँसू बहाते हैं। अवध के विशाल देश का नवाब बंदी चला जाता था और लखनऊ ऐश की नींद में मस्त था। यह राजनीतिक अध: पतन की चरमसीमा थी।
उपरोक्त उद्धरण में हमारे देशकाल व परिवेश का यथार्थ चरित्र - अंकन देखा जा सकता है। लेखक ने इन पंक्तियों के माध्यम से हमारे तत्कालीन समाज की प्रतिनिधि मानसिकता को दर्शाया है। यहाँ एक पीड़ा भी देखी जा सकती है। यह अध:पतन की स्थिति या समस्या आज भी किसी न किसी रूप में बनी हुई है। आम आदमी व्यवस्था से चुपचाप हारता जा रहा है। यह सबकुछ का स्वीकार अि भयावह और घातक है। इस कहानी को पढ़ते सुनते और देखते हुए हमें समाज का मूल्यांकन और आत्ममंथन करना चाहिए। समस्या पकड़ में आए तो समाधान निकल ही आता है। प्रेमचंद ने इस कहानी में समस्या को सही ढंग से पकड़ा है। यह समस्या आज भी किसी न किसी रूप में व्याप्त है। वर्तमान में भी हम स्वार्थ में डूबे हैं। जहाँ विरोध करना होता है वहाँ हम चुप रहते हैं। हम अपने मकान, वाहन, सुख सुविधाओं तक सीमित हैं। प्रेमचंद के शब्दों में कहें तो समाज में व्यक्तिगत वीरता का अभाव नहीं है। जैसे अंग्रेज़ों ने राजनीतिक अराजकता फैलाकर अपना साम्राज्य कायम किया, लोग एक दूसरे को शत्रु समझते रहे, स्वार्थ में डूबे रहे या फिर पलायनवादी हो गए। स्थिति आज भी बहुत बदली नहीं है, दुनियाभर में विभिन्न सताएँ अलग-अलग बहानों (जैसे किसी काल्पनिक शत्रु का भय दिखाकर, उन्माद फैलाकर उसे ठीक करने का वादा करके आदि) से किसी वर्ग/वर्ण/रंग/समुदाय/धर्म/ देश / महाद्वीप को अपने हितों के लिए साध रही हैं, हमें एक दूसरे के विरोध में खड़ा कर रही हैं, आर्थिक दोहन करके आम जन को अपने अधीन कर रही हैं। और हम नए अर्थों में मिर्ज़ा और मीर के चरित्र को जी रहे हैं। स्पष्टत: नई समस्याओं के संदर्भ में भी यह एक बड़े फलक की कहानी है।
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