मुन्नी का चरित्र चित्रण - मुन्नी ठाकुर साहब की तीसरी सन्तान है। वह समर से दो साल छोटी है। उपन्यास के अन्तर्गत मुन्नी की कथा प्रकरी कोट की प्रासंगिक कथ
मुन्नी का चरित्र चित्रण - Munni Ka Charitra Chitran
मुन्नी का चरित्र चित्रण - मुन्नी ठाकुर साहब की तीसरी सन्तान है। वह समर से दो साल छोटी है। उपन्यास के अन्तर्गत मुन्नी की कथा प्रकरी कोट की प्रासंगिक कथा है। यही कारण हैं, मुन्नी समयानुसार सामने आती है और अपना उद्देश्य पूरा करते ही कथानक से बाहर चली जाती हैं। इस तरह मुन्नी एक विशिष्ट अध्याय के अन्तर्गत उपन्यास के कथानक को एक झटका देकर गति प्रदान कर समर के चरित्र को एक दिशा दिखाकर अपनी सार्थकता को सिद्ध कर देती हैं, अपने आपको महत्वपूर्ण सहपात्री के रूप में प्रतिष्ठित कर जाती है।
मुन्नी का चरित्र एक ऐसी युवा लडकी का चरित्र है जो दुर्भाग्य का ऐसा शिकार हैं जिसे अपने जीवन में सिवाय तकलीफों, दुःखो और मानसिक प्रताड़ना के और कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता है। दूसरी ओर, वह एक ऐसी भारतीय अबला नारी का प्रतीक हैं जो अत्याचार व अन्याय का विरोध कभी नहीं कर पाती बल्कि चुपचाप अन्दर ही अन्दर घुलती रहती हैं और अन्त में मृत्यु को प्राप्त होती है।
मुन्नी के चरित्र की विशेषताएं
- अभागी लड़की
- अबला नारी
- मानवीय भावनाओं से पूर्ण
- निष्कर्ष
अभागी लड़की: मुन्नी एक अभागी लड़की है। समाज भय और मुहल्ले वालों के रोज-रोज के तानों से घबड़ाकर ठाकुर साहब ने उसका विवाह उस समय कर दिया जब कि वह मुश्किल से सोलह-सत्रह वर्ष की थी । बढी कठिनाई से ठाकुर साहब उसके विवाह को सम्पन्न कर सके थे। लेकिन प्रारब्ध की गति को कौन जानता था। विवाह होते ही मुन्नी के दुर्भाग्य ने उसे चारों तरफसे इस तरह घेर लिया कि वह बेचारी एक परकटे घायल पंछी की तरह तड़पती रही, मगर अबोध पंछी की तरह अनबोले घुटती रही। उसके दुर्भाग्य की कहानी समर के शब्दों में इस प्रकार बतायी जा सकती है
ससुराल से मुन्नी के बड़े ही करुणापूर्ण खत आते। यहाँ आती तो बुरी तरह बिलाव - बिलखकर रोती। सास और पति मिलकर जो-जो अत्याचार करते उन्हें किसी से कह भी तो नहीं सकती थी। इसका पता तो बाद को चला कि पति का चाल-चलन कैसा है और वह रातों कहाँ कहाँ घूमता है। एक डेढ साल तो गाडी रोते-झींकते रोते कि सिंवती रही, लेकिन सास के मरते ही मुसीबतों का पहाड अरोकर टूट पड़ा। अब पति देव के हाथ पकडने वाला कौन था। उसने जाने किसको लाकर घर डाल लिया। सुनते हैं, कोई ब्राह्मण जाति की थी। नौकरानी की तरह अपनी और अपनी रखेल की मुन्नी से सेवा कराता और दो-दो तीन-तीन दिन खाना नहीं देता था। और भी न जाने कितने कहने अनकहने अत्याचार किये। मुन्नी तो बताती ही नहीं थी। रातरात भर इसकी दोनों हथेलियों पर खाट के पाये रखकर इसे कुढाने और जलाने को अपनी आनन्द कोडा के प्रदर्शन किये जाते और एक दिन सारे शरीर पर बेतों के पड़े निशान लेकर मुन्नी सुबह -सुबह फिर हमारे यहाँ आ गई। बस तब से यही है।
दुर्भाग्य का शिकार मुन्नी की यह कहानी उसके अबला स्वरूप को स्पष्ट कर देते है । अत्याचारों के इस भयावह रूप को मौन रहकर सहने वाली मुन्नी को अभागिन नहीं तो और क्या कहा जायेगा ?
अबला नारी : मुन्नी का दुर्भाग्य उसके सम्पूर्ण चरित्र की आधारशिला है। पति द्वारा किए गए अत्याचाराको कल्पना में देखते ही जब रोगटे खडे हो जाते है तब उन्हें वास्तविक रूपमें सहन करना और जबान पर ताला लगा कर बिल्कुल ही चुप हो जाना, किसी बहुत ही अधिक सहनशील प्राणी के ही वश की बात है - और यह प्राणी सिर्फ स्त्री ही हो सकती हैं, पुरुष नहीं। जो अत्याचार मुन्नी पर उसके पति ने किए थे, वही अत्याचार अगर मुन्नी अपने पति पर करती अर्थात पति की हथेलियों पर खाट के पाये रखकर मुन्नी किसी पर पुरुष के साथ रात भर प्रेम- क्रीडा करती रहती तो क्या वह इस बात को चुपचाप बरदाश्त कर लेता ? नहीं, किसी कीमत पर नहीं । जाहिर है, वह चुप नहीं रह सकता था। लेकिन मुन्नी ने यह सब सहा, और बिना किसी प्रतिवाद के सहन किया।
मुन्नी की इस सहनशीलता और स्पष्ट विरोध और विद्रोह न करने के कारण ही मुन्नी अन्दर ही अन्दर घुलने लगी। उसकी स्थिति का चित्र इस प्रकार है... मुन्नी तो पता नहीं कुछ सोचती भी है या नहीं। अधिक से अधिक चुप और तटस्थ रहना उसका स्वभाव हो गया है। सब नीचे होगे तो वह ऊपर, अकेली बैठी बेठी एकटक ताका करेगी। ऊपर से आयी तो सिकुड़ी-सिकुड़ी सी सब की निगाहों से बचती रहेगी। जाने क्या उल्टा सीधा सोचा करती है, भीतर जैसे उसे कोई चीज पीसे डाल रही हो। हम सब देखते रहते हैं, वह दिन-दिन पीली पड़ती जा रही है । अठारह उन्नीस बरस की चमकते मोती सी उम्र झुर्रियों और दुःख के पाले में मुरझा गई है।
मुन्नी की सहनशीलता और पति के विरुध्द जुबान न खोलने की प्रवृति उसे स्पष्ट रूप से अबला और असहाय नारी के रूप में प्रस्तुत करती हैं। उसका यह अबला और असहाय रूप उस समय तो और भी स्पष्ट हो जाता है जब उसका पति उसे वापस ले जाने के लिए आता है। जैसे ही ठाकुर साहब ने बैठक से अन्दर जाकर कहा कल मुन्नी जायेगी, सुबह दस बजे की गाड़ी से, मुन्नी फूट-फूटकर रो पड़ी 'बाबूजी, तुम मुझे अपने हाथ से जहर देकर मार डालो, मेरा गला घोटे दो लेकिन मुझे वहाँ मत भेजो... मुझे वहाँ मत भेजो, बाबूजी। मैं वहाँ मर जाऊँगी। अन्त में मुन्नी कहती है बाबूजी, मैं किसीका चौका बरतन कर लूंगी, पीस कूट लूंगी लेकिन मुझे वहाँ मत भेजो उनके साथ। जिस दिन मेरे बारे में ऐसी वैसी बात सुनो, मुझे अपने हाथ से जहर देकर मार देना बाबूजी, लेकिन मुझे उस कुएँ मे मत धकेलो बाबूजी।" और विदा होते समय मुन्नी की दशा उस निरीह गाय -जैसी थी जिसे कसाई को सौंप दिया गया हो।
मानवीय भावनाओं से पूर्ण - मुन्नी के चरित्र का दूसरा पहलू और भी है। उसकी भाग्यहीनता ने, उसके दुर्भाग्य ने उसे बहुत अधिक संवेदनशील बना दिया है। अत्याचार क्या होते हैं, मानसिक प्रताड़ना कैसी होती हैं, दर्द की अनुभूति कितनी कष्ट दायक होती है इसे वह न सिर्फ जानती ही है, बल्कि स्वयं भोग चुकी है। पहले ही दिन से प्रभा के प्रति उसके मन में हमदर्दी जाग उठती है। पहली रसोई के दिन भाभी को चुपके से तरकारी में मुट्ठी भर नमक डालते देखकर प्रभा के प्रति उसकी सहानुभूति और गहरी हो जाती है । लेकिन घर के वातावरण को देखकर वह न तो अपनी जुबान ही खोल पाती है और न स्पष्ट रूपसे पनी सहानुभूति का प्रदर्शन ही कर पाती है -कारण, कि परिवार का हर आदमी (विशेषकर भाभी ) किसी न किसी रूप में प्रभा से विरोध रखता था।
सब तो यह है कि, जिन अत्याचारों के कारण आज वह तिल-तिलकर घुल रही है, वही गति प्रभा की भी हो यह वह नहीं चाहती थी। वह प्रभा को जीवन-दान देना चाहती थी। वह समर के मन मे जमी हुई काल्पनिक विरोध की गहरी परत को असलियत की कुल्हाडी से काटकर उन दोनों के जीवन को सुखद बनाना चाहती थी । इसके लिए पहले तो वह समर के मन की थाह लेती हैं, और जब समझ लेती है कि समर के मन में प्रभा के लिए कहीं, किसी कोनेमे, थोड़ी सी जगह अभी है तो वह उसे असलियत बताना ही चाहती हैं कि भाभी आ जाती हैं, और वह फिर चुप हो जाती है। अनेक अवसरपर वह प्रभा का पक्ष लेती दिखायी देती है, उदा- प्रभा द्वारा छतपर बाल धोने की बात को लेकर जब ठाकुर साहब बिगड उठते हैं तब वह प्रभा का ही पक्ष लेती है। और जब उसे कोई उचित अवसर नहीं मिल पाता तो अन्त में विदा होते समय वह समर से स्पष्ट शब्दो में प्रभा को निर्दोष कह देती है... भैया, भाभी से बोलना, उन्होंने कुछ भी नहीं किया। मुन्नी का यही वाक्य उन दोनों के जीवन को एक नया मोड़ दे जाता है । और जब समर बाबूजी से झगडकर घर से बाहर निकलना चाहता है, तभी तार आती है कि मुन्नी मर गई।
निष्कर्ष - इस तरह दुःखपूर्ण वातावरण में पली मुन्नी का अन्त भी दुःख में होता हैं। उसका जीवन सुखी नहीं है, लेकिन फिर भी वह हर दुःख का सामना करती है। इस तरह मुन्नी हमारे सामने एक मानवीय संवेदना असे युक्त अबला, असहाय और अभागिन नारी के रूप में आती है।
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