बाबूजी का चरित्र चित्रण - पच्चीस रुपये मासिक पेन्शन पाने वाले समर के बाबूजी एक ऐसे परिवार के मुखिया है जिसमे आमदनी की अपेक्षा खर्च हमेशा ज्यादा रहता ह
बाबूजी का चरित्र चित्रण - सारा आकाश
बाबूजी का चरित्र चित्रण - पच्चीस रुपये मासिक पेन्शन पाने वाले समर के बाबूजी एक ऐसे परिवार के मुखिया है जिसमे आमदनी की अपेक्षा खर्च हमेशा ज्यादा रहता है और इसी कारण सदैव उस घर में कलह मचता रहता है। नौ व्यक्तियों का परिवार हैं। समर के बड़े भाई को नब्बे रुपये मासिक मिलते हैं। बाबूजी की पेन्शन और भाई साहब की तनखा से ही सारे घर का गुजारा चलता है। तीनों छोटे लड़के पढते हैं। निम्न-मध्य वर्ग का प्रतिनिधि पात्र बनकर उनका जो स्वरूप सामने आता है, वह है जिम्मेदारिया के बीच बोझ को ढोते हुए एक परम्परागत उस भारतीय पिता का रूप जो हिन्दू समाज की पुरानी प्रथा परम्पराओं से हर कीमत पर चिपका रहता है- भले ही वे प्रथा परम्परायें घातक हो। यह एक ऐसे पिता का चरित्र हैं जो बदलते हुए युग को पहचानना नहीं चाहता और अपनी सन्तान से यही कामना करता है कि वह उसकी इच्छा और आदेशो का पालन अनिवार्य रूप से करे। अपनी इच्छा और आदेशोको सन्तान पर थोपने वाला पिता का यह परम्परा गत स्वरूप रूढिवादी है।
बाबूजी के चरित्र की विशेषताएं
- चिडचिडाहट
- पुरानी मान्यताओंसे लिपटे बुजुर्ग
- अधिकारिता
- चिन्तित परन्तु वात्सल्यमय पिता
- भावुकता
(1) चिडचिडाहट - बाबूजी स्वभाव से क्रोधी है। बचपन में वे समर की खूब पिटाई किया करते थे। इसलिए समर अब तक भी उनसे डरता था और उनके सामने पड़ने से बचता रहता था। ठाकुर साहब का परिवार उनकी आर्थिक स्थिति को देखते हुए एक बडा परिवार है। इतने बड़े परिवार का भरण-पोषण करना तथा तीन लडकोंकी पढ़ाई का खर्च निकालना पूरा करने के लिए यह आय बहुत कम होगी और सर्व अधिक होगा फलत: चिन्तायें बढ़ेगी। आदमी घर का खर्च चलाने के लिए उधार लेगा और जब कर्ज चुकाया नहीं जा सकेगा तो वह कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जायेगा। कर्ज बढ़ेगा तो परेशानियाँ बढेगी, चिन्ताएँ और बढ़ेगी, क्योंकि आय सीमित है और खर्च, महँगाई की निरन्तर वृध्दि के कारण असीमित। ऐसी परिस्थिति में ठाकुर साहब तो क्या, कोई भी व्यक्ति निश्चय ही चिडचिडा हो जायेगा। उनकी स्थिति का स्पष्टीकरण ये पंक्तियाँ कर देती है
कितनी परेशानियाँ हैं समर, तुम्ही सोचो हमारा ही दिल जानता है। बताओ, मैं क्या करूँ ? कहीं दुबारा नौकरी करने को हाथ पैरो में दम नहीं है।
उस धीरज की बहू के दिन भी पूरे हो रहे हैं जान को एक नयी आफत बड़ी बहू का पहला बच्चा है, तुम जानो, कम खर्च होगा ? सारे बच्चे स्कूल कॉलेज जाने वाले हैं।
जब समर को नौकरी करते एक महीना बीत जाता है और समर उन्हें एक पैसा भी नहीं देता, तो वे घुमा-फिराकर उससे पूछते हैं। नौकर छूट जानेसे खिन्न और क्षुब्ध समर जब उन्हें तीखा जवाब दे बैठता है तो वे समर की पिटाई करते हुए उसे तुरन्त घर से निकल जाने की आज्ञा सुना देते है। आर्थिक अभाव से पीडित व्यक्ति जब अपने किसी से थोड़ी-सी सहायता की आशा लगा केता' है, और उसकी वह आशा एकदम टूट जाती है, तो उसका क्रुद्ध हो उठना स्वाभाविक ही माना जायेगा।
इस प्रकार ठाकुर साहब का चिडचिडापन मनोज्ञानिक रूप से अस्वाभाविक नहीं है, बल्कि घरेलू आर्थिक परिस्थितियाँ ही उनकी चिडचिडाहट के लिए जिम्मेदार हैं।
(2) पुरानी मान्यताओंसे लिपटे बुजुर्ग - परिवार और समाज में जो चलन पुराने जमाने से चले आ रहे है, बाबूजी को उनका विरोध सहन नहीं होता। प्रभा बड़ों से परदा नहीं करती, उनके सामने घूँघट नहीं निकालती, यह उन्हे पसन्द नहीं है, परन्तु खुलकर कुछ भी कह नहीं पाते। इसी प्रकार उनकी दृष्टि में बहू-बेटी का छत पर खुले में बैठे सिर धोना या और कोई काम करना भी पसन्द नहीं, क्योंकि इससे बेपर्दगी होती हैं और मुहल्ले वाले उँगली उठाने उगते है । इसी कारण वे घर में एक तूफान सा खडा कर देते हैं। उनकी दृष्टि में भारतीय सभ्यता की अवहेलना करने के कारण ही यह दुनिया रसातल को चली जा रही है।
(3) अधिकारिता - ठाकुर साहब पुराने विचारों के पिता है। अपने इस रूप में वह एक ऐसे पिता का चित्र प्रस्तुत करते हैं जो बच्चों पर आतंकवाद का सिक्का जमाए रखते हैं। ऐसे लोगों की मान्यता यह होती है कि बच्चे पर सदा अंकुश लगा रहना चाहिए, उसके मन में एक प्रकार का भय होना चाहिए, बच्चे को वही करना चाहिए जो उसके पिता कहे, आज्ञाकारिता ही अनुशासन है, और अनुशासन बिना भय के नहीं कायम हो सकता। किन्तु ठाकुर साहब पुराने विचारों के पिता है। परिणाम यह होता है कि समर हठी हो जाता है। उसके मन में पिता की ओर से एक ऐसा भय बैठ जाता है कि वह स्पष्ट विरोध कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। ठाकूर साहब जहाँ एक ओर लड़कों की इच्छाओं पर अपना अधिकार समझाते हैं, वही इस बात के भी पक्षधर है कि लड़कों की कमाई पर उनका और सिर्फ उनका ही अधिकार है। समर से रुपयो की आशा लगाये हुए ठाकुर साहब की आशाओं पर आघात होता है तो वह क्रोध से पागल हो उठते हैं - जानता है तो क्या फांसी पर चढ़ा देगा ? बड़े जानते हैं ये।... हिम्मत तो देखो पूत की। अरे, हमने पहली तनखा लाकर बाप को दी थी, सो अदब कायदा गया चूल्हे-माड में, साफ-साफ मांगने की धमकी देने लगे। हरामी तुम्हे पाला यांसा, पढाया-लिखाया सब इसलिए कि तू या हमारी इज्जत उतार कर रख ले ?
इस तरह की अधिकारिक प्रवृत्ति अमनोवैज्ञानिक तो होती है, साथ ही कितनी खतरनाक साबित होती है। उनकी यह अधिकारिक प्रवृत्ति न केवल लड़का के व्यक्तित्व के विकास में घातक सिद्ध हुई हैं, बल्कि इसने उनके परिवार की शान्ति को भी भंग कर दिया। धीरज भी समर जैसा कुण्ठित है, फर्क इतना है कि समर के मन में एक ज्वालामुखी धधकने के लिए आतुर हैं और धीरज एक दब्बू इन्सान है जिसमे सोचने तक की सामर्थ्य नहीं है।
(4 चिन्तित परन्तु वात्सल्यमय पिता - बाबूजी घर के मुखिया है। आरंभ में जब उन्हें पता चलता है कि समर अपनी बहू नहीं बोलता है, तो वे उसे बुलाकर समझाते है कि यह भी तो सोचो वह बेचारी परायी लडकी किस के बूते पर आई है ? कोई घर में आता है तो इस व्यवहार के लिए ? क्या कहेगी वह घर जाकर ? माना कि शादी करने की तुम्हारी इच्छा नहीं थी, लेकिन बेहा, यह लोक व्यवहार है। और जो हो जाता हैं, उसे निभाना तो पडता ही है। यहाँ एक रूढिप्रिय पिता अपने पुत्र को समझा रहा है कि हमें न बाहते हुए भी, समाज क्या कहेगा, इस भय के कारण बहुत-सी बातें निभानी पडते हैं। वे आगे चलकर समर को यह संकेत देते हैं कि अब उसे आगे पढ़ने का विचार त्याग कर कहीं नौकरी कर लेनी चाहिए। और जब समर की नौकरी लग जाती है तो मन ही मन प्रसन्न हो उठते हैं।
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