लोकगीत की परिभाषा और विशेषताएँ: लोक गीतों को अंग्रेज़ी के 'फोक सांग' का पर्याय माना जाता है। सामान्यत: फोक शब्द का अर्थ सभ्यता से दूर रहने वाली जाति स
लोकगीत की परिभाषा और विशेषताएँ
लोक गीत: लोक गीतों को अंग्रेज़ी के 'फोक सांग' का पर्याय माना जाता है। सामान्यत: फोक शब्द का अर्थ सभ्यता से दूर रहने वाली जाति से लिया जाता है किन्तु हिन्दी में 'लोक' शब्द का प्रयोग साधारण लोगों के लिए किया जाता है, जो सभ्यता से दूर हों। इसलिए लोक गीत उस रचना को कहा जा सकता है जो ग्रामीण जनों के सामान्य भावों को गेय रूप से अभिव्यक्त करें। संगीत एवं लय लोक गीतों के प्राण होते हैं। इस प्रकार अशिक्षित, ग्रामीण लोगों में प्रचलित गीतों कोही लोक गीत कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि गांव के लोगों में प्रचलित ग्रामीण लोगों द्वारा सृजित गांव के लोगों के लिए लिखे गए गीत ही 'लोक गीत' हैं।
लोक गीत मानव के हर्ष-विषाद जीवन-मरण आदि के साथ मुखरित होते रहते हैं। सामान्य मानव के संवेदनशील हृदय के उद्गार जो संगीत की धारा के रूप में प्रवाहित होते हैं, उन्हें 'लोक गीत' कहा जा सकता है।
लोक गीत के बदलते स्वरूप के विषय में कहा गया है-
"वह न तो पुराना होता है और न नया । वह तो जंगल के उस वन्यवृक्ष के समान है जिसकी जड़ें तो गहरी धँसी हुई हैं परन्तु जिसमें निरन्तर नई शाखाएँ, नये पत्ते और नये फूल निकलते रहते हैं। "
लोकगीत की परिभाषा
लोक गीतों की परिभाषा के संदर्भ में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं। लोक गीतों को परिभाषित करने के लिए विविध मतों की परीक्षा करना आवश्यक है :
1. डॉ. सत्येन्द्र–‘“वह गीत जो लोक मानस की अभिव्यक्ति हों अथवा जिसमें लोक मानस भास भी हो लोक गीत के अन्तर्गत आएगा । "
2. डॉ. तेज नारायण लाल - "लोक गीत हमारे जीवन विकास के इतिहास हैं।"
3. मोहन कृष्णधर - "लोक गीत रस से परिपूर्ण बोल हैं।"
4. डॉ. चिन्तामणि उपाध्याय - "लोक गीत मनुष्य की प्रकृत भावना की अभिव्यक्ति से जन्मा है, आदिम वातावरण में पला है औ काल की गहराईयों से उठकर प्रौढ़ता को प्राप्त हुआ है।"
5. गाँधी जी के अनुसार - " लोक गीतों में धरती गाती है, पहाड़ गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं, उत्सव और मेले, ऋतुएँ और परम्पराएँ गाती हैं।"
6. सूर्यकरण पारीक-“आदिम मनुष्यों के गानों का नाम लोक गीत है। प्राचीन जीवन की, उसके उल्लास की, उसके उमंगों की, उसकी करुणा की, उसके समस्त सुख-दुःख की कहानी इनमें चित्रित है । "
7. रामचन्द्र शुक्ल - "लोक गीतों में जन-जीवन की सच्ची झाँकी निहित है।"
8. डॉ. प्रियतम कृष्ण कौल - " लोक गीत जन-मानस की अनुभूतियों की लयपूर्ण अभिव्यक्ति है और वह जीवन की यथार्थ भावनाओं को प्रस्तुत करते हैं । "
9. ए. एच. क्रेपी-"लोक गीत वे सम्पूर्ण गेय गीत हैं जिसकी रचना प्राचीन अनपढ़ जन में अज्ञात रूप से हुई है और जो यथेष्ट समय अतः शताब्दियों तक प्रचलन में रहा। "
10. एक विदेशी विद्वान के अनुसार - " भोले लोगों का उल्लास भरा गीत ही लोक गीत है।"
11. फेयरी के अनुसार - " This primitive spontaneous music had been called folk song." इस परिभाषा से स्पष्ट है कि मानव चाहे सभ्य हो या असभ्य उसमें अपनी अनुभूति से प्रेरित जब कुछ सुख-दुख की प्रेरणा से कवि आन्दोलित हुआ होगा तभी लोक गीतों की धारा उसके कंठ पर लहरा उठी होगी।
निष्कर्ष - सभी परिभाषाओं को ध्यान में रखकर कहा जा सकता है कि लोक गीत साधारण अलिखित होते हैं और रचयिता अज्ञात होता है। यह मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं-
"लोक मानस की अभिव्यक्ति करने वाले गीत को लोक गीत कहा जा सकता है।" लोक समूह में प्रचलित गीत ही लोक गीत होते हैं।
लोक गीत की विशेषताएं
लोकगीत मानव संस्कृति के सारल्य और व्यापक भावों को स्वच्छ एवं स्वभाविक रूप में अभिव्यक्त करते हैं। लोकगीतों में समाज के प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दृश्य देखने को मिलते हैं। माता का करुण स्वर, हताश किसान, शादी के अवसर के वधाई गान से लेकर ग्रहिणी के विरह स्वरों तक की अभिव्यक्ति लोकगीतों में देखने को मिलती है। लोकगीतों की विशेषताएं इस प्रकार से हैं :
1. संस्कृति - लोक गीत लोक संस्कृति का दर्पण होते हैं। लोक गीत मानव संस्कृति के सारल्य और व्यापक भावों को स्वच्छ एवं स्वभाविक रूप में अभिव्यक्त करते हैं। लोक गीतों के स्वरूप में देश की प्रकृति तथा संस्कृति अपने रूप का बखान करती है। इनमें जन - इतिहास छुपा रहता है।
2. मानव जीवन का दृश्य - लोक गीतों में समाज के प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दृश्य देखने को मिलते हैं। माता का करुण स्वर, हताश किसान, शादी के अवसर पर बधाई, बदाई गान से लेकर गृहिणी के विरह स्वरों की अभिव्यक्ति लोक गीतों में मिलती है ।
3. लोक मानस की सहज अभिव्यक्ति - लोक गीतों में लोक मानस की सहज एवं अकृत्रिम अभिव्यक्ति रहती है। मानव मन की सहज और लोक व्यापी अभिव्यक्ति को ध्यान में रखते हुए लोक गीतों के सम्बन्ध में देवेन्द्र सत्यार्थी से लिखा है -
"लोक गीत हृदय के खेत में उगते हैं, सुख के गीत उमंग के जात से जन्म लेते हैं और दुःख के गीत तो खोलते हुए लहु से पनपते हैं और आँसुओं के साथी बन जाते हैं।" इससे स्पष्ट है कि लोक गीत मानस की उपज है।
4. संगीत-संगीत लोक गीतों का बेजोड़ अंग है। लोक गीत सामूहिक गान की संगीतात्मक रचना होते हैं। लय और संगीत के बिना गीत अधूरा है। जब लोक गीत सामूहिक स्तर पर गेय होते हैं।
5. वातावरण - लोक गीत शहरी वातावरण से दूर होते हैं। इनमें ग्रामीण आँचल की प्रकृति, वातावरण, मानव-जीवन तथा ऋतु इत्यादि का चित्रण होता है।
6. देश काल - लोक गीतों में देश काल की सीमा का वर्णन नहीं होता। यह तड़क-भड़क से दूर है किन्तु दर्पण की भान्ति निर्मल होते हैं।
7. गुण- सरलता, रस तथा माधुर्य लोक गीत के गुण हैं। इनमें जीवन के अभाव व्यक्त होते हैं अंकित नहीं ।
8. वाणी की महत्ता - मानवीय भावों को प्रकट करने के लिए वाणी के लयात्मक स्वरूप को लोक गीतों में प्रमुखता दी जाती है।
9. मौखिक परम्परा - लोक गीत मौखिक परम्परा में जीवित रहते हैं। लोक गीतों में उसके निर्माता का नाम प्रायः नहीं होता। लोक गीतों का निर्माण लोक भावना के साथ अपने भाव को पूरी तरह किला देता है।
10. लोक गीतों में नाम अथवा यश की लालसा नहीं होती। लोक गीत बनते और बिगड़ते भी हैं। इनमें लम्बे-चौड़े कथानक का अभाव रहता है। इनकी भाषा लोक बोली होती है।
11. लोक गीतों में प्रकृति का योगदान - लोक गीत में प्राकृतिक और स्थानीय परिवेश का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। लोक मानव अपने हर्ष एवं विषाद को प्रकृति एवं परिवेश के साथ एकमेक करके व्यक्त करता है। प्रकृति लोक गीतों के लिए पृष्ठभूमि का कार्य करती है ।
12. सभ्यता एवं संस्कृति - लोक गीतों में मानव सभ्यता एवं संस्कृति के चित्र अत्यन्त सहज किन्तु सूक्ष्म रूप में अंकित होते हैं । सामान्यतः जनता के लोक विश्वासों, धार्मिक भावनाओं, रीति-रिवाज़ों एवं परम्पराओं का संगम स्थल लोक गीतों को ही माना जा सकता है।
13. लोक गीतों को पढ़ने में इतना आनन्द नहीं आता जितना सुनने में आता है। लोक गीत कंठ में गाने के लिए और हृदय से आनंद लेने के लिए हैं।
14. गीतशीलता - लोक गीत लोक मानस से ही उपजता है लेकिन समय के अनुसार नए-नए मनोभावों को अपने में समोहित करता चलता है। यही उसकी गतिशीलता है।
15. अज्ञात गीतकार - लोक गीत का कोई रचयिता एवं गीतकार नहीं होता। सामूहिक रचना होने के कारण यह लिपिबद्ध नहीं होती । लिपिबद्ध होने पर लेखक का महत्त्व होता है जबकि इसमें नाम और रस की कोई लालसा नहीं मिलती। इनका आकार नहीं होता और न ही यह कविता की भांति ज्यों का त्यों होता है अर्थात् इसका रूप परिवर्तित होता रहता है।
16. सामूहिक निर्मित - लोक गीतों को समूह द्वारा निर्मित किया जाता है। अतः इसमें सामाजिक मूल्यों को अभिव्यक्त करने की क्षमता है । यह गीत सामूहिक रूप से गाए जाते हैं। इनको एक व्यक्ति गाना आरंभ करता है और दूसरा- तीसरा उसमें कोई न कोई कड़ी जोड़ता जाता है। यह मूल कड़ियां ही मूल गीत बनकर सामने आती हैं। इसी कारण लोक गीतों में समय-समय पर नए पद जाते हैं।
17. प्रतीक्षा करना- इसमें प्रतीक्षा का विशेष महत्त्व रहता है। जब लोग गांव में रहते थे तो प्रवासी प्रेमी का रास्ता छत्त पर चढ़कर देखते थे। दूर की वस्तुएँ पेड़, पहाड़ या ऊपरी छत्त आदि पर चढ़कर ही दिखाई देती हैं।
18. दैनिक वस्तुओं के नाम जोड़ने की प्रवृत्ति - लोक गीतों में दैनिक वस्तुओं के नाम आते हैं। इसमें समकालीन समाज के उन्हीं विषयों का उल्लेख होता है जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति जानता है।
19. संख्या - लोक गीतों में संख्या परक शब्दों का योग अनेक बार होता है। तीन, चार, पाँच, आठ, नौ आदि संख्याओं का उल्लेख इन गीतों में कई स्थानों पर हुआ है।
20. पुर्नावृति - लोकगीतों में एक पंक्ति जो लय के बाद या उससे पहले बार-बार दोहराई जाती है और इस तरह से यह पंक्ति लोकगीत के विभिन्न पदों के बीच कड़ी के रूप में काम करती है।
21. लोकगीतों में प्रकृति - लोकगीतों में प्रकृति और स्थानीय परिवेश का महत्वपूर्ण योगदान होता है। लोकमानस अपने हर्ष एवं विषाद को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। प्रकृति लोकगीतों के लिए पृष्ठभूमि का कार्य करती है।
निष्कर्ष - लोकगीतों के संबंध में रामनरेश त्रिपाठी ने इस प्रकार कहा है कि लोकगीत प्रकृति के उद्गार हैं। इसमें अलंकार नहीं केवल रस है । छन्द नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है। प्रकृति के वे गीत ही लोकगीत हैं। इन लोकगीतों को प्रयत्न के द्वारा सजाया या संवारा नहीं जाता है। लोकगीत साहित्यिक दृष्टि से काव्यात्मक गुणों से न्यूनतम होकर भी अपना अलग व्यक्तित्व बनाए रखते हैं।
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