लोककथा के उद्भव के सिद्धांत स्पष्ट कीजिए। प्रसारवाद का सिद्धांत, प्रकृतिरूपवाद, मनोविश्लेषणवाद, इच्छापूर्तिवाद, व्याख्यावाद, विकासवाद, यथार्थवाद,
लोककथा के उद्भव के सिद्धांत स्पष्ट कीजिए।
लोककथा के उद्भव के सिद्धांत
- प्रसारवाद का सिद्धांत,
- प्रकृतिरूपवाद,
- मनोविश्लेषणवाद,
- इच्छापूर्तिवाद,
- व्याख्यावाद,
- विकासवाद,
- यथार्थवाद,
- समन्वयवाद
1. प्रसारवाद का सिद्धांत - इस सिद्धांत के अनुसार लोककथाओं का एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रसार होता है। जिस प्रकार भाषा का एक स्थान से दूसरे स्थान तक प्रसार होता है, उसी प्रकार लोककथाओं का होता है। इस सिद्धांत के समर्थक विद्वानों का कहना है कि जिस प्रकार भाषा की उत्पत्ति के संबंध में कुछ नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार लोककथाओं की उत्पत्ति भी अनिश्चित है । ये विद्वान भारत और मैसोपोटामिया को लोककथाओं का उद्गम स्थल मानते हैं।
आलोचना – लोककथाओं का उद्गम स्थल एक स्थान नहीं माना जा सकता, लोककथाओं के कथानक में भिन्नता इसका प्रमाण है। यदि लोककथाओं का उद्गम स्थल एक ही होता तो विश्व भर की लोककथाओं के कथानकों में समानता होती। इसलिए यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण है कि लोककथाओं की उत्पत्ति भारत या मैसोपोटामिया में हुई। इसका कोई निश्चित प्रमाण भी नहीं है। यह कथन तो सत्य है कि लोककथाओं का प्रसार होता है और वे मनुष्य के साथ तीव्रगति से फलैती हैं। अतः लोककथाओं का उद्गम स्थल एक नहीं माना जा सकता।
2. प्रकृतिरूपवाद – इस सिद्धांत के अनुसार मानव प्रकृति के रूप एवं घटनाओं को अपनी कल्पना के माध्यम से लोककथाओं में मानवीकरण के रूप में वर्णन करता है। सूर्य का उदय और अस्त होना, वर्षा होना, बिजली गिरना, ओले एवं आंधी होना, चंद्रकलाएं आदि घटनाएं देखकर मानव इन्हें अपनी कल्पना का आधार बनाता है और इन्हें मानव की क्रियाओं के रूप में चित्रित करता है। वेदों में उल्लिखित इंद्र देवता वर्षा का रूपक है। वहीं देवता लोककथाओं में राजकुमार और राजकुमारी के रूप में परिणत हो गए हैं। एक लोककथा में सूर्य और वायु की होड़ लगना तथा एक वस्त्रधारी व्यक्ति के कपड़े उतारने में वायु को परास्त करना आदि में आंधी की प्राकृतिक घटना को लोककथा के रूप में परिणत किया गया है। यह कहानी कल्पना की सहायता से ही इस रूप में आई है।
आलोचना – यह सिद्धांत पौराणिक कथाओं के उद्भव के संबंध में तो सत्य माना जा सकता है; लेकिन अन्य लोककथाओं के संबंध में सत्य नहीं माना जा सकता । अन्य लोककथाओं के उद्गम के लिए प्रसारवाद के सिद्धांत को मान्यता देनी पड़ेगी, क्योंकि ये कथाएं भी प्रत्येक स्थान पर मिलती हैं। अतः अकेले इसी सिद्धांत को लोककथाओं के उद्भव का सिद्धांत नहीं माना जा सकता।
3. मनोविश्लेषणवाद - फ्रायड और उनके अनुयायी इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक हैं। उन्होंने लोककथाओं का उद्गम यौन प्रवृत्तियों से माना है। उनके अनुसार मन के दो भाग हैं- चेतन और अचेतन मन का अचेतन भाग हमारे चेतन मन की अपेक्षा अधिक विस्तृत और प्रबल होता है। अचेतन मन का निर्माण हमारी दमित वासनाओं के कारण होता है। काम प्रवृत्ति एक विकृत और असामाजिक प्रवृत्ति है, जिसकी तृप्ति सामाजिक जीवन में असंभव है। यह दमित काम वासना हमें स्वप्नों में, दैनिक जीवन की भूलों में और अधिक प्रबल होने पर मानसिक रोगों में अभिव्यक्त हुआ करती है, जिसके कारण मुनष्य का व्यवहार असाधारण हो जाता है। इसका ज्ञान स्वयं मानव को भी नहीं होता । ये यौन वासनाएं बाहर निकलने का अवसर खोजती हैं। इस सिद्धांत के अनुयायियों के अनुसार लोककथाएं इन्हीं यौन वासनाओं के रूप बदलने से उत्पन्न होती हैं। लोककथाओं में एक राजा की एक से अधिक रानियों की कल्पना, एक रानी का अधिक सुंदर होना और उससे अधिक प्रेम करना आदि दमित कामवासना के ही रूपक हैं, जो राजा के माध्यम से आकार लेते हैं। सामाजिक अंकुश के कारण व्यक्ति स्पष्ट रूप में अपनी सात रानियां नहीं कहता। इस प्रकार कहकर वह अपने चेतन मन को छलता है। अतः मनोविश्लेषणवादियों के अनुसार लोककथाएं इन्हीं दमित कामवासनाओं का परिणाम हैं, जो अचेतन मन में दबी रहती हैं।
आलोचना – यह सिद्धांत भी कुछ लोककथाओं के संबंध में तो सही माना जाता है, सभी के संबंध में नहीं। पौराणिक और धर्म कथाओं के संबंध में यह सिद्धांत लागू नहीं होता।
4. इच्छापूर्तिवाद - मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मानव अपनी दमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए साहित्य-सृजन करता है, अतः लोककथाएं भी उसकी दमित इच्छाओं की पूर्ति का परिणाम हैं। ये दमित इच्छाएं कामवासना से पृथक भी हो सकती हैं, जिनकी पूर्ति स्वप्न और कल्पना के माध्यम से होती है।
आलोचना - इस सिद्धांत में अन्य सिद्धांतों की अपेक्षा अधिक बल है। राक्षस, भूत-प्रेत, परी, दानव, पशु-पक्षी आदि की लोककथाएं उसकी विभिन्न इच्छाओं की पूर्तियों का आधार हो सकती हैं। लेकिन अकेले इसी सिद्धांत को भी लोककथाओं के उद्भव का सिद्धांत नहीं माना जा सकता।
5. व्याख्यावाद - इस सिद्धांत के अनुसार लोककथाएं अपने समय की रूढ़ियों, नीतियों, व्यवहारों, प्रथाओं और सामाजिक नियमों की व्याख्या करती हैं। यहां तक कि नैतिकता की व्याख्या भी लोककथाओं के माध्यम से होती है। उदाहरण स्वरूप - 'एक राजा सदैव अपने धर्म पर चलता है, उसकी धर्मावलम्बिता को देखकर इन्द्र डर जाता है कि यह कहीं इंद्रासन न छीन ले। इंद्र राजा के पास जाकर छल करके राज्य छीन लेता है। राजा राज्य से बाहर चला जाता है। अब उस पर विभिन्न आपत्तियां आती हैं। धर्म मानव का वेश धारण करके राजा की विपत्ति में सहायता करता है और उसकी रक्षा करता है।' यह कहानी अपने धर्म पर चलने के लिए नैतिकता की व्याख्या करती है। कहानी के अंत में कहा जाता है कि जिस प्रकार राजा अपने धर्म पर चलता है उसी प्रकार अपने धर्म पर सभी को चलना चाहिए । विपत्ति में गिरने पर धर्म ने जिस प्रकार राजा की रक्षा की, उसी प्रकार धर्म सबकी रक्षा करे।
आलोचना - व्याख्यावाद को लोककथाओं के उद्भव का एक कारण माना जा सकता है। सभी प्रकार की कहानियों के उद्भव का कारण इस सिद्धांत को नहीं माना जा सकता ।
6. विकासवाद - टायलर इस सिद्धांत के प्रबल समर्थक हैं। उनके अनुसार लोककथाओं का उद्भव एक स्थान पर नहीं हुआ। संपूर्ण विश्व में मानव समाज की आधारभूत मानसिक समानता और उनका समान चिंतन ही इसके मूल कारण हैं। इसी कारण विश्व की सभी लोककथाओं में आधारभूत समानता देखी जा सकती है। लोमड़ी का चालाक होना, सौतेली मां का संतान के साथ कटु व्यवहार करना, परी, दाने और भूत-प्रेतों की कल्पना आदि घटनाएं विश्व भर की लोककथाओं में समान रूप से व्याप्त हैं।
आलोचना – 'प्रसारवाद भी इस सिद्धांत की व्याख्या कर देता है, इसलिए इस सिद्धांत की उपयुक्तता न्यून हो जाती है।
7. यथार्थवाद - यथार्थ घटनाओं के बार-बार वर्णन करने, दुहराने तथा एक-दूसरे से कहने के कारण लोककथाएं परिवर्तित और परिवर्द्धित होती हुई इधर-उधर फैलती हैं। इनके इधर-उधर फैलने पर देशकाल की संस्कृति का प्रभाव पड़ता है, जिससे इनका रूप इतना बदल जाता है कि लोककथा के आदि रूप का पता नहीं चल पाता। उसके रूप-परिवर्तन और परिवर्तन में पात्र तथा शैली तक बदल जाते हैं, लेकिन कथा का मूल कोई यथार्थ घटना ही होती है।
आलोचना – यह सिद्धांत बहुत कम कथाओं के संबंध में सत्य प्रतीत होता है। अधिकांश लोककथाएं मानव की कल्पना - प्रसूत होती हैं। लोककथा की यथार्थ घटना के अभाव में यह सिद्धांत नितांत लंगड़ा है।
8. समन्वयवाद – लोककथाओं के उद्भव के संबंध में उपर्युक्त सिद्धांतों में से कोई एक सिद्धांत पूर्ण नहीं माना जा सकता, क्योंकि सिद्धांत में कुछ दोष तथा अपवाद हैं। इन सिद्धांतों में चार सिद्धांत प्रमुख हैं-
(क) प्रसारवाद
(ख) प्रकृतिरूपकवाद
(ग) मनोविश्लेषणवाद
(घ) विकासवाद
इन चारों सिद्धांतों को मिलाकर समन्वयवाद की स्थापना की जा सकती है। लोककथाओं की प्राचीनता के विषय में दो मत नहीं हैं। यह विधा सबसे प्राचीन मानी जाती है और भारतवर्ष इसका सर्जना केंद्र । यहां हम लोककथा की ऐसी विशेषताओं का विवेचन करना चाहते हैं, जिनके आधार पर हम शिष्ट या साहित्यिक कहानियों से इन्हें पृथक रूप में पहचान सकें। इसलिए सर्वप्रथम हम साहित्यिक कथा या आख्यायिका अथवा आधुनिक कहानियों से लोककथाओं क पार्थक्य निर्धारण करना चाहेंगे ।
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