भाषा का अर्थ एवं प्रकृति तथा विशेषताएँ भाषा का अर्थ क्या होता है ? भाषा की विशेषताएं लिखिए। भाषा की प्रकृति का वर्णन करें। भाषा का अर्थ (Bh...
भाषा का अर्थ एवं प्रकृति तथा विशेषताएँ
- भाषा का अर्थ क्या होता है ?
- भाषा की विशेषताएं लिखिए।
- भाषा की प्रकृति का वर्णन करें।
भाषा का अर्थ (Bhasha Ka Arth)
भाषा विचारों की संवाहिका है। भाषा वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्य बोलकर, सुनकर, लिखकर व पढ़कर अपने मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करता है। दूसरे शब्दों में- जिसके द्वारा हम अपने भावों को लिखित अथवा कथित रूप से दूसरों को समझा सके और दूसरों के भावो को समझ सके उसे भाषा कहते है। सार्थक शब्दों के समूह या संकेत को भाषा कहते है। संस्कृत साहित्य में भाषा का अध्ययन भाषाशास्त्र (philology) के अंतर्गत किया जाता था और भाषा के दैवी सिद्धांत को स्वीकार किया जाता था। आचार्य दण्डी ने भाषा को ऐसे प्रकाश की संज्ञा दी जिसके अभाव में पूरी सृष्टि अंधकार में डूब जाती। परंतु बीसवीं शताब्दी के आते-आते भाषा का भाषा विज्ञान (Linguistics) के अंतर्गत वैज्ञानिक अध्ययन किया जाने लगा और भाषा विज्ञान की एक शाखा- अनप्रयुक्त भाषा विज्ञान (Applied Linguistics) के अंतर्गत अनुवाद का/ अनुवाद में एक भाषा की विभिन्न इकाइयों - जैसे - वाक्य, शब्द, ध्वनि आदि का (दूसरी भाषा की इकाइयों में) समतुल्यता के आधार पर अंतरण किया जाता है। अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान हमें यह बताता है कि अनुवाद में भाषा वैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग कैसे किया जाए।
भाषा की संकल्पना
भाषा मानवीय भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है। मानव-मस्तिष्क में उत्पन्न विचारों की ध्वन्यात्मक अभिव्यक्ति को ही आधुनिक भाषावैज्ञानिक भाषा की संज्ञा देते हैं। व्युत्पत्ति की दृष्टि से भाषा शब्द संस्कृत की "भाष " धातु से बना है। मानव-मस्तिष्क में भाषा निरंतर उत्पन्न होती रहती है अर्थात मानव निरंतर सोचता रहता है। यह आंतरिक भाषा भी उतने ही स्पष्ट रूप में भाषा है जितने कि मुखोच्चारित ध्वनियों के माध्यम से बाहर आने वाली भाषा। भारतीय चिंतन में मुखोच्चारित भाषा को बैखरी और मनोगत भाषा को मध्यमा कहा गया है। चिंतक यदि चाहे तो अपने अंदर उत्पन्न होने वाली मध्यमा भाषा के शब्द, पद और वाक्यों अलग-अलग देख सकता है। यही भाषा जब मुख से बाहर आती है तब उसके माध्यम से स्रोताओं तक हमारे विचार पहुंच जाते हैं।
ब्लॉख तथा ट्रेगर के अनुसार : “A language is a system of arbitrary vocal symbols by means of which a society group cooperates" अर्थात भाषा मनुष्य की वागेन्द्रियों से उत्पन्न यादृच्छिक एवं रूढ़ ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था है जिसके द्वारा एक भाषा समुदाय के सदस्य विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।
सपीर के अनुसार : “Language is a purely human and non-instinctive method of communicating ideas, emotions and desires by means of voluntarily produced symbols” |
अर्थात भाषा यादृच्छिक प्रतीकों द्वारा विचारों, भावों और आकांक्षाओं को संप्रेषित करने की मानवीय एवं असहजवृतिक विधि है।
डा. भोलानाथ तिवारी ने सभी विदवानों दवारा दी गई परिभाषाओं की विशिष्टताओं को सम्मिलित करते हए भाषा की अधिक व्यवस्थित और सर्वसमावेशी परिभाषा दी है : "भाषा मानव के उच्चारण अवयवों से उच्चरित यादृच्छिक ध्वनि-प्रतीकों की वह संरचनात्मक व्यवस्था है जिसके द्वारा समाज विशेष के लोग आपस में विचार-विनिमय करते हैं, लेखक, कवि या वक्ता के रूप में अपने अनुभवों एवं भावों आदि को व्यक्त करते हैं तथा वैयक्तिक और सामाजिक व्यक्तित्व, विशिष्टता तथा अस्मिता (identity) के संबंध में जाने-अनजाने जानकारी देते हैं। "
भाषा की प्रकृति (Bhasha ki Prakriti)
प्रकृति के अंतर्गत सहज गुण धर्मों की चर्चा की जाती है और उसके सहज स्वरूप पर विचार किया जाता है। भाषा की उपमा नदी के नीर के साथ की जाती है जो वक्ता और श्रोता के दो सतत वर्तमान सामाजिक तटों के बीच निरंतर प्रवहमान रहता है। यह इसकी प्रकृति है। इस दृष्टि से देखने पर इसके स्वभाव के कुछ गणधर्म दृष्टिगोचर होते हैं:
- भाषा पैतृक संपत्ति नहीं अपितु अर्जित संपत्ति है
- भाषा आदयंत सामाजिक परंपरा की वस्तु है
- भाषा अनुकरण द्वारा सीखी जाती है
- भाषा चिर परिवर्तनशील होती है।
- भाषा का विकास संश्लिष्टावस्था से विश्लिष्टावस्था में होता है
- भाषा जटिलता से सरलता की ओर विकसित होती है
भाषा की विशेषताएं (Bhasha ki Visheshta)
अमरीकी भाषा विज्ञानी चार्ज एफ हॉकिट ने भाषा की ऐसी सात विशेषता का उल्लेख किया है जो मानवीय भाषा को मानवेतर अर्थात जांतव संप्रेषण से पृथक सिद्ध करती हैं :
- द्वैतता (Duality)
- उत्पादिता अथवा सृजनात्मकता (Productivity)
- यादृच्छिकता (Arbitrariness)
- व्यतिहारिता (Interchangeability/Reciprocality)
- विशेषज्ञता (Distinctiveness)
- विस्थापन (Displacement)
- सांस्कृतिक संप्रेषणीयता (Cultural Transmission)
- परिवर्तनशीलता (Changeability)
- विविक्तता (Discreteness)
- असहजवृत्तिकता (Non-instinctiveness)
भाषिक संरचना के स्तर
1. प्रोक्ति (Discourse)
आधुनिक भाषाविज्ञान में संरचनात्मक, प्रयोजनात्मक संप्रेषण के धरातल पर प्रोक्ति तात्पर्य युक्त संसक्त वाक्यों की एक व्यविस्थत कड़ी है जिसमें बंधक संप्रेष्य (प्रतिपादय) अपना सावयव (पूर्ण) रूप ग्रहण करता है। प्रोक्ति संप्रेष्य और संप्रेषण की अंतर्निहित आवश्यकता साधने वाली वाक्योपरि इकाई है। सस्यूर ने उसे Discourse के रूप में देखा। उनके अनुसार - “Language is not a system of speaking but talking" और यह बातचीत ही प्रोक्ति है।
प्रोक्ति के संबंध में निम्नलिखित बातें भी द्रष्टव्य हैं :
1. प्रोक्ति में प्राय: एकाधिक वाक्य होते हैं। अपवादत: एक वाक्य की भी प्रोक्ति होती है, जैसे - लोकोक्तियां।
2. प्रोक्ति के वाक्य आंतरिक रूप से सुसंबद्ध होते हैं।
3. प्रोक्ति अपने लघुतम रूप में एक पैराग्राफ भी हो सकती है और वृहत्तम रूप में पूरी कहानी, उपन्यास या महाकाव्य भी।
4. प्रोक्ति संप्रेषण की पूर्ण इकाई होती है।
5. वाक्य कभी-कभी अनेकार्थी होता है परंतु प्रोक्ति उसे एकार्थी बना देती है जैसे - "यह मोहन की तस्वीर है ", इस वाक्य के तीन अर्थ हैं किंतु
6. प्रोक्ति संदर्भ से उसे एक अर्थ तक सीमित कर देती है।
2. वाक्य (sentence)
वाक्य व्याकरणिक संरचना की दृष्टि से भाषा की सबसे बड़ी इकाई है और भावाभिव्यक्ति की लघुतम इकाई है। वाक्य सार्थक एवं अनुशासित शब्दों का वह व्यविस्थत समूह है जिसमें एक समापिका क्रिया (finite verb) अवश्य होती है और जिसके माध्यम से वक्ता या लेखक का अभिप्राय स्पष्ट होता है "| "A sentence is a group of words having a finite verb which conveys the complete sense".
3. उपवाक्य (Clause)
उपवाक्य वाक्य से छोटा घटक है। वाक्य एक उपवाक्य का भी हो सकता है और अधिक उपवाक्यों का भी ।
4. पदबंध (pharase)
यह उपवाक्य से छोटा घटक है। उपवाक्य पदबंधों से ही मिलकर बनता है। पदबंध मूलत: एक प्रकार्यात्मक इकाई है। यह एक शब्द का भी हो सकता है, अधिक का भी।
5. रूप/शब्द (Morph/Word)
रूप/पद/शब्द पदबंध से छोटा घटक है। पदबंध शब्दों/पदों से मिलकर बनते हैं लेकिन जिस पदबंध में एक ही पद होता है वहां पद और पदबंध में अभेद रहता है। "लड़का गया" में लड़का पद भी है और पदबंध भी। वाक्य में प्रयुक्त शब्द ही पद कहलाता है। इन पर अलग से एक अध्याय में विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है।
6. रूपिम (Morpheme)
रूपिम शब्द या पद से छोटा घटक है। यह भाषा की लघुतम अर्थवान इकाई है, जिसे अल्पतर अर्थवान भागों में खंडित नहीं किया जा सकता। "सहनशीलता " शब्द में तीन रूपिम हैं- सहन +शील +ता। इसमें सहन और शील स्वतंत्र रूपिम हैं किंतु "ता " बद्ध रूपिम है। ब्लॉख के अनुसार “Any form whether bound or free, which can not be divided into smaller parts is a morpheme".
7. स्वनिम (Phoneme)
स्वनिम रूपिम से छोटा घटक है। यह भाषा की लघुतम संरचनात्मक इकाई है। स्वनिम स्वयं में सार्थक इकाई नहीं है किंतु अर्थभेदक इकाई है। डेनियल जोंस के अनुसार- “A phoneme is a family of sounds in a given language which are related in character and are used in such a way that no one member ever occurs in the same phonetic context as any other member" अर्थात स्वनिम किसी भाषा में प्रयुक्त ध्वनियों का एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य परस्पर पर्याप्त समानता रखते हैं। परंतु कोई भी सदस्य स्वन दूसरे किसी स्वन के से स्वनिक वातावरण में कभी प्रयोग नहीं किया जाता।
COMMENTS