सारानुवाद का स्वरूप, अर्थ और विशेषताएं

सारानुवाद का स्वरूप, अर्थ और विशेषताएं - सारानवाद दो शब्दों के योग से बना है - सार और अनुवाद। इसका अभिप्राय किसी पाठ के मख्य कथ्य का सार और फिर उसका अ

सारानुवाद का स्वरूप, अर्थ और विशेषताएं 

    सारानवाद का अर्थ और स्वरूप

    सारानवाद दो शब्दों के योग से बना है - सार और अनुवाद। इसका अभिप्राय किसी पाठ के मख्य कथ्य का सार और फिर उसका अनुवाद अथवा सार रूप में अनुवाद होता है। इसमें समूचे मूल पाठ का अनुवाद न कर के उसके मुख्य भावों का अनुवाद होता है। इस प्रकार सारानुवाद का अर्थ होता है मूल पाठ में निहित मुख्य बिंदुओं को पहचानना और उनका अनुवाद करना। यह सामान्य अनुवाद से अधिक जटिल प्रक्रिया तो है, साथ ही दोहरी प्रक्रिया भी है। 

    सारानुवाद का स्वरूप, अर्थ और विशेषताएं

    प्रत्येक कृति या अवतरण में एक मुख्य कथन होता है जिसे कृति का केंद्रीय विचार कह सकते हैं। इस केंद्रीय विचार को विकसित करने या उसे सुस्पष्ट करने या पुष्ट करने के उद्देश्य से कृति या अवतरण में अन्य तथ्य, विचार या उदाहरण निहित रहते हो। इनको उप-विचार भी कह सकते हैं। मूल कृति में केंद्रीय विचारों और उप-विचारों का ताना-बाना होता है। स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में क्रमबद्ध और संक्षिप्त रूप में किए गए सार के अनुवाद को सारानुवाद कहते हैं, जो मूल कृति के मुख्य कथ्य को प्रकट करता है।

    सारानुवाद की प्रक्रिया

    1. अर्थ ग्रहण (एक से अधिक बार पढ़ें)।

    2. संदर्भ और विष्य का सामान्य ज्ञान।

    3. प्रत्येक वाक्य और प्रत्येक अनुच्छेद में अभिव्यक्त मूल कथ्य का तात्पर्य, लेखक का उददेश्य और विस्तार क्रम।

    4. मुख्य अथवा केन्द्रीय विचार तथा आवश्यक अंशों की चयन प्रक्रिया।

    5. अभिव्यक्ति का स्वरूप : अभिधा, लक्षणा, व्यंजना

    6. छोड़ने व जोड़ने की प्रक्रिया में कथ्य के क्रम को अक्षुण रखें।

    सारानुवाद का प्रारूप तैयार करने की विधियां

    सारानुवाद का प्रारूप तैयार करने की दो विधियां हैं :

    1. पाठ का सार पहले मूल भाषा में तैयार किया जाता है और उसके बाद उस सार का अनुवाद लक्ष्य भाषा में किया जाता है।

    2. मूल भाषा से सीधे ही लक्ष्य भाषा में पाठ का सारानवाद किया जाता है।

    वस्तुत: कोई भी अनुवाद शुद्धत: शाब्दिक नहीं होता, फिर भी, सामान्य अनुवाद में शब्दों और वाक्यों को महत्व दिया जाता है क्योंकि भाषा की लाक्षणिकता शब्दों पर ही आधारित होती है। मूल कृति के प्रत्येक वाक्य को, उसके प्राय: सभी पदबंधों का अर्थ देते हुए लक्ष्य भाषा में अभिव्यक्त करना अनुवाद की प्रमुख विशेषता है।

    सारानुवाद में शब्दों, पदबंधों और वाक्यों के विन्यास की ओर ध्यान न देकर, उनमें ध्वनित होने वाले भावों या विचार-सूत्रों को अपनाया जाता है। इसमें ऐसी भाषा का प्रयोग होता है जिसके द्वारा सूक्ष्म रूप में विस्तृत अर्थ को अभिव्यक्त किया जा सकता हो। अत: सारानुवाद में भाषा की लाक्षणिकता को महत्व न देकर उसकी सूक्ष्मता, सरलता और बोधगम्यता की ओर अधिक ध्यान देने की अपेक्षा रहती है। सारानवाद में एक प्रकार का संपादन होता है। सारानवाद में मूल कृति को काँट-छाँट कर उसे संक्षिप्त रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि मूल कथ्य का अर्थ क्रमानुसार संप्रेषित हो जाता है। 

    सारानुवाद की विशेषताएं 

    1. संक्षिप्तता : सारानुवाद एक दोहरी प्रक्रिया है जिसमें संक्षेपण और अनुवाद दोनों कार्य होते हैं। इसमें वाक्यों का संयोजन उतना ही आवश्यक है जितना संक्षेपण में होता है। लेकिन संक्षेपण में जहाँ मूल अवतरण के संक्षिप्त अर्थ का संप्रेषण होता है वहाँ सारानुवाद में कथ्य के मूल उद्देश्य को भी संयोजित किया जाता है।

    2. सूचनाप्रधानता : सारानुवाद में मूल पाठ में विषय अथवा घटना के विवरण को संक्षिप्त रूप में दिया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य उक्त विषय अथवा घटना विवरण की सूचना प्रदान करना है।

    3. विचारक्रम : सारानुवाद में प्रतिपादित विषय का विचारक्रम मूल कृति के अनुसार यथावत् रहता है। किसी भी विषय का प्रतिपादन विचारों के अनुक्रम पर ही आधारित होता है। इससे विचारों में तारतम्य बना रहता है। सारानुवाद मूलकृति के आशय को आद्योपांत व्यक्त करता

    4. संपादन : संक्षेपण करते हुए संपादन की प्रक्रिया भी चलती रहती है। संपादन एक प्रकार की शल्य क्रिया है। इससे भाषा की जटिलता को सरल और सुबोध बनाया जाता है। उलझे हुए विचारों को व्यविस्थत ढंग से दिया जाता है, असंगत और अनावश्यक अंशों को काट-छाँटकर मूल कथ्य को प्रवाहपूर्ण बनाया जाता है। इस प्रकार सारानुवाद मूल कृति के भावों को अधिक स्पष्ट करता है और उसे अधिक बोधगम्य बनाता है। यहाँ सारानुवाद एक प्रकार का पुन: सृजन हो जाता है जिसमें चिंतन के साथ-साथ रचना कौशल भी रहता है।

    5. भाषा शैली : सारानवाद करते समय भाषा की बोधगम्यता पर सदैव ध्यान रखा जाता है। अत: इसमें लाक्षणिक और आलंकारिक भाषा का प्रयोग कम होता है और सरल तथा सटीक शब्दों का प्रयोग अधिक होता है।

    सारानुवाद का प्रयोगक्षेत्र- और उपयोगिता 

    1. प्रशासन और विधि : प्रशासनिक मामलों में जब टिप्पण के लंबे होने की संभावना होती है तो अंग्रेजी में दिए गए पूर्व तथ्यों या पत्रों का क्रमिक सार हिंदी में भी दिया जाता है। विधि विभागों और न्यायालयों में भी अनुवाद की आवश्यकता बनी रहती है। न्यायालयों के निर्णय उस सामग्री और उन दस्तावेजों पर भी निर्भर होते हैं जो अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी में भी होते हैं। न्यायाधीशों को अपना निर्णय देने के लिए उनके सार या सारानुवाद पर निर्भर रहना पड़ता है। ये सारानुवाद इन विभागों में अपनी विशेष भूमिका निभाते हैं।

    2. संसद में सारानवाद : भारतीय संसद में सारानवाद की विशेष उपयोगिता है। सदस्यों को पूर्व सूचना देने पर, अन्य भारतीय भाषा में भी बोलने की अनुमति दी जाती है। प्रतिदिन होने वाली बहस में दिए गए भाषणों का सार तैयार करके अगले दिन सदस्यों में वितरित कर दिया जाता है। संसद में सारानवाद का कार्य कठिन और जटिल होता है क्योंकि यह प्राय: त्वरित अनुवाद अर्थात् आशु अनुवाद होता है जो अनुभवी दुभाषियों अर्थात् आशु अनुवादकों द्वारा किया जाता है।

    3. सम्मेलन-संगोष्ठी आदि की रिपोर्ट : विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं द्वारा अपनी संगोष्ठियों, विचारगोष्ठियों, सम्मेलनों आदि की कार्यवाही की रिपोर्ट का अनुवाद सार रूप में तैयार होता है।

    4. जनसंचार और पत्रकारिता : सारानुवाद का अधिकाधिक प्रयोग पत्रकारिता के क्षेत्र में और संचार के अन्य माध्यमों में होता है। भारत में सूचना भेजने वाली अधिकतर समाचार एवं फीचर एजेंसियाँ प्राय: अंग्रेजी में ही सूचना भेजती हैं। इस कारण, हिंदी पत्रों में काम करने वालों के लिए अंग्रेजी जानना और अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करने की योग्यता होना आवश्यक है।

    आकाशवाणी (रेडियो) और दूरदर्शन के समाचार प्रसारण में न्यूनाधिक सारानुवाद का सहारा लिया जाता है।

    सारानुवाद की सीमाएँ

    सारानुवाद एक विशेष प्रकार की विधा है जिसका उपयोग विशेष प्रयोजन के लिए होता है। इससे हमें केवल मूल कृति के आशय की जानकारी मिल सकती है। सारानुवाद में हमारे मूल कृति से संगोपांग साक्षात्कार नहीं होता। इसमें मूल कृति की गंध तो होती है किंतु उसका रूप नहीं होता, आत्मा की प्रतीति तो होती है, किंतु मूल से सावयव तादात्म्य नहीं होता। मूल कृति में केवल विचार और भाव ही नहीं होते उन विचारों और भावों को प्रभावी बनाने के लिए विशेष शैली का भी उपयोग किया जाता है।

    अभिव्यक्ति की शैली भावों और विचारों को रंजित करती है और उसके अवयवों को सजीव बनाती है। सारानुवाद से यह ज्ञात तो हो सकता है कि मूल कृति में कौन-सा रस है किंतु उसका रसास्वादन नहीं होता।

    सारानुवाद में मूल पाठ अथवा कृति के केवल उद्देश्य को ही उद्घाटित किया जाता है और मूल पाठ की रूपरेखा का संप्रेषण मात्र होता है। कभी-कभी एक ही कृति के कई ध्वन्यार्थ होते हैं। इन सभी ध्वन्यार्थों को सारानुवाद में अभिव्यक्त कर पाना संभव नहीं होता। ऐसे विवादों से बचने के लिए समाचारपत्र अक्सर वक्तव्य का मूलनिष्ठ अनुवाद प्रकाशित करते हैं, सारानुवाद छापने का खतरा मोल नहीं लेते।

    सूचना-प्रधान होने के कारण सारानुवाद में शैलीगत सौंदर्य अथवा ओजस्विता की भी संभावना नहीं होती। सभी प्रकार की कृतियों का सारानुवाद न तो संभव होता है और न ही उपयोगी। ऐसी कृतियाँ जिनमें कथ्य को सूक्ष्म या सूत्र रूप में प्रस्तुत किया गया हो उनका सारानुवाद करना संभव नहीं होता।

    सारानुवाद की संभावनाएँ

    सारानुवाद एक ऐसी विधा है जिसका महत्व व्यावहारिक उपयोगिता पर आधारित है। इसकी उपयोगिता सूचना और ज्ञान के विस्तार से जुड़ी हुई है। ज्यों-ज्यों सूचना और ज्ञान के भंडार में वृद्धि हो रही है वैसे-वैसे उसे सार रूप में संकलित करके विभिन्न भाषाओं में संप्रेषित करने की आवश्यकता बढ़ रही है। मानव की व्यस्तता, उसकी बढ़ती हई गतिविधियों और इन गतिविधियों की सूचना के आदान-प्रदान की आवश्यकता के परिप्रेक्ष्य में, उपलब्ध सूचना को सार रूप में अनूदित करके संप्रेषित करने की आवश्यकता बढ़ रही है। प्रत्येक कार्य क्षेत्र से संबंधित विश्व की अद्यतन सूचना प्राप्त करना आवश्यक हो गया है और यह दैनिक आवश्यकता बनती जा रही है। इस सूचना को सार रूप में उपलब्ध कराने में सारानवाद की निर्णायक भूमिका रहती है। इस दृष्टि से सारानुवाद संप्रेषण की तकनीक का अंग बनता जा रहा है।

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