व्यवस्था सिद्धांत से क्या अभिप्राय है ? डेविड ईस्टन द्वारा प्रतिपादित आगत-निर्गत सिद्धांत की व्याख्या कीजिए। व्यवस्था सिद्धांत पर निबंध लिखें आगत निर्
व्यवस्था सिद्धांत से क्या अभिप्राय है ? डेविड ईस्टन द्वारा प्रतिपादित आगत-निर्गत सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
- व्यवस्था सिद्धांत पर निबंध लिखें
- आगत निर्गत सिद्धांत
- डेविड ईस्टन के व्यवस्था सिद्धांत की व्याख्या कीजिए
व्यवस्था सिद्धांत (System Theory)
सामान्य व्यवस्था सिद्धांत, व्यवस्था सिद्धांत, उपव्यवस्था सिद्धांत, आदि ने अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में सिद्धांतकरण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में व्यवस्था सिद्धांत व्यवहारवादी क्रान्ति की उपज ही द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विद्वानों ने सामाजिक विज्ञानों में अन्तः अनुशासनात्मक एकीकरण पर बल दिया और यही धारणा सामान्य व्यवस्था सिद्धांत की उपज का कारण थी। इस दृष्टिकोण के प्रतिपादकों का कहना था कि ज्ञान-विज्ञान को विभिन्न विषयों (टुकड़ों) में कठोरता के साथ विभाजित कर दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में तो एक-दूसरे के साथ आदान-प्रदान की क्रिया रुक ही गयी थी। ज्ञान के प्रत्येक विशिष्ट क्षेत्र की प्रगति में भी बाधा आ रही थी। यह स्थिति उत्पन्न हो गयी कि एक विज्ञान में होने वाले विकास की सहायता से दूसरे विज्ञानों की उसी प्रकार की समस्याओं को समझ पाना सम्भव नहीं रह गया था। अतः कतिपय विद्वानों का विचार था कि हमारे अध्ययन और शोध से एक ऐसा सामान्य ढांचा बनना चाहिए जिसमें विभिन्न अनुशासनों से प्राप्त ज्ञान को सार्थक ढंग से संघटित किया जा सके। इस प्रकार 'व्यवस्था सिद्धांत' एक ऐसे आन्दोलन का परिचायक बन गया जिसका ध्येय विज्ञान और वैज्ञानिक विश्लेषण का एकीकरण करना है एक ऐसे व्यापक सिद्धांत की खोज करना है जिसकी सहायता से प्रत्येक विज्ञान को अपनी समस्याएँ अधिक अच्छी तरह समझाने में सहायता मिल सके। सामान्य व्यवस्था सिद्धांत का आरम्भ सैद्धान्तिक रूप में प्राकृतिक विज्ञानों और विशेषकर जीव विज्ञान में हुआ। परन्तु सामाजिक विज्ञान में उसका व्यवहार सबसे पहले मानव विज्ञान में होना आरम्भ हुआ। इसके बाद समाजशास्त्र में उसके कुछ समय बाद मनोविज्ञान में काफी समय बाद राजनीति विज्ञान और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति में उसे प्रयोग में लाया गया।
सामान्य व्यवस्था सिद्धांत की संकल्पना सबसे पहले 1920 के दशक में लुडविग बौन बर्टलनफी नाम के प्रसिद्ध जीव-विज्ञानशास्त्री की रचनाओं में पायी जाती है। उसने 1920-30 में विज्ञान के एकीकरण की आवश्यकता पर बल दिया था। सामाजिक शास्त्रों में इसका प्रारम्भ सबसे पहले सामाजिक मानव विज्ञान में इमाइल दुखीम की रचनाओं में और ए. आर. रैडक्लिफ ब्राउन और ब्रोनिसली मैलिनोवस्की की रचनाओं में स्पष्ट रूप से हआ। सामाजिक मानव विज्ञान के क्षेत्र में इन दोनों लेखकों ने जो सैद्धान्तिक आविष्कार किए उनका प्रभाव राजनीतिशास्त्र पर दो समाजशास्त्रियों रॉबर्ट के मर्टन और टालकॉट पार्सन्स के माध्यम से आया। 1960 के दाशकों के मध्य तक यह दृष्टिकोण राजनीति विज्ञान की खोज और विश्लेषण की प्रमुख प्रविधि बन गया था राजनीति के क्षेत्र में डेविड ईस्टन लया ग्रेब्रियल आमण्ड और अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के क्षेत्र में मॉर्टन कैपलन ने इस सिद्धांत के विकास में महत्वपूर्ण काम किया।
सामान्य व्यवस्था सिद्धांत का अभिप्राय
व्यवस्था की अवधारणा विभिन्न अनुशासनों में विद्यमान कठोर विभक्तीकरण, शोध प्रयासों के अनावश्यक आवृत्तिकरण, प्रति-अनुशासनात्मक अभाव से उत्पन्न परिस्थिति का मुकाबला करने के लिए प्रस्थापित हुई है। विभिन्न विज्ञानों या अनुशासनों के बीच स्वतः ही दीवारें खड़ी होने लगी थीं जिससे ज्ञान का एक अनुशासन से दूसरे अनुशासन की तरफ प्रवाह नहीं हो पा रहा था। इस स्थिति से निपटने के लिए अनेक विद्वान विभिन्न विज्ञानों के एकीकरण की बात करने लगे। इन लोगों की मान्यता थी कि विविध अनुशासनों में अनेक सामान्य बातें समान रूप में पायी जाती हैं अतः इनको एक तारतम्य में पिरोने के लिए कोई ऐसा अमूर्त ढांचा निर्मित करना आवश्यक समझा गया जिससे कोई सामान्य सिद्धांत बनाया जा सके और सभी अनुशासनों में समस्याओं को समझने में लागू किया जा सके। ऐसे सामान्य सिद्धांत के निर्माण में प्रयत्नशील विद्वानों ने सामान्य व्यवस्था सिद्धांत की अवधारणा विकसित की जो व्यवस्था के विचार पर आ पारित है। सामान्य व्यवस्था सिद्धांत विभिन्न अनुशासनों में एकता लाने वाली अवधारणाओं की खोज से सम्बन्धित है। इसका निर्माण व्यवस्था की अवधारणा से हुआ है। भौतिक विज्ञानों के अन्तर्गत व्यवस्था का अर्थ सुपरिभाषित अन्तःक्रियाओं के समूह से है जिसकी सीमाएँ 'निश्चित की जा सकें। शाब्दिक परिभाषा के अनुसार 'व्यवस्था' का अर्थ है, “जटिल सम्बन्धित वस्तुओं का समग्र समूह विधि संगठन पद्धति के निश्चित सिद्धांत तथा वर्गीकरण का सिद्धांत"। इन अर्थो में महत्वपूर्ण शब्द 'सम्बन्धित' 'संगठित' और 'संगठन' है अर्थात एक व्यवस्था संगठित होनी चाहिए अथवा उसके अंग सम्बद्ध हों। यदि किसी भी स्थान पर हमें संगठन मिलता है अथवा जहाँ संगठित होने के गुण पाये जाते हैं और उसके सभी अंग एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं तो वहाँ 'व्यवस्था' विद्यमान है।
- बर्टलेन्फी के अनुसार, "यह अन्तः क्रियाशील तत्वों का समूह है।"
- हॉल एवं फैगन के अनुसार, "वस्तुओं में परस्पर तथा वस्तुओं और उनके लक्षणों के बीच सम्बन्धों सहित वस्तुओं का समूह है।"
- कोलिन चेरी ने लिखा है, "व्यवस्था एक ऐसा सम्पूर्ण संघटक है, जो लक्षणों के विभिन्न निर्माणक भागों में सम्मिलित रहती है।" (A whole which is compounded of many part-As assemble of attributes).
- एन रोजेनाऊ के अनुसार, “अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों के अध्ययन में जो नवीनतम प्रवृतियाँ विकसित हो रही है उनमें से सम्भवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण और लोकप्रिय प्रवृत्ति पूरे अन्तर्राष्ट्रीय जगत को व्यवस्था मानकर चलने की है।"
- डेविड ईटन के अनुसार, "किसी समाज में पारस्परिक क्रियाओं की ऐसी व्यवस्था को जिससे उस समाज में बाध्यकतों या अधिकारपूर्ण नीति निर्धारण होते हैं। राजनीतिक व्यवस्था कहा जाता है।
राजनीतिक व्यवस्था सिद्धांत
महत्वपूर्ण एवं निरन्तर चलने वाली पहचान योग्य किसी भी प्रक्रिया को व्यवस्था कहा जाता है, उनका कोई न कोई स्वाभाविक अथवा कृत्रिम प्रयोजन, उद्देश्य एवं लक्ष्य अवश्य होता है। यह या अमूर्त, आनुभविक अथवा परानुभविक, वैचारिक या प्रेक्षणीय हो सकती है यदि रेल व्यवस्था शरीर में रक्त व्यवस्था या राज्य में शासन व्यवस्था मूर्त, आनुभविक और प्रेक्षणीय है तो समाज में व्याप्त नैतिक व्यवस्था अमूर्त परानुभविक एवं वैचारिक है जबकि कुछ व्यवस्थाओं का स्वरूप मिश्रित अथवा अर्द्धमूर्त हो सकता है, जैसे राजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था। अधिक या कम मात्रा में प्रत्येक व्यवस्था में कुछ गतिविधियाँ अवश्य होती है जो स्वाभाविक, कृत्रिम अथवा अनुप्रेरित हो सकती है जैसे ऋतु परिवर्तन एक स्वाभाविक गति विधि है तो राजकीय शिक्षा व्यवस्था एक कृत्रिम गतिविधि है। उल्लेखनीय है कि व्यवस्था का कोई न कोई केन्द्रीय तथ्य अवश्य होता है जिसके चारों तरफ उस व्यवस्था के अंग, उपोग, घटक, गतिविधि आदि व्याप्त रहते हैं। प्रत्येक व्यवस्था के कुछ उपकरण साधन, माध्यम एवं विशेषताएँ भी होती हैं। राजनीति को राजनीतिक व्यवस्था की संकल्पना एक प्रक्रिया के रूप में समझने का प्रयास करती है यह एक विश्लेषणात्मक संकल्पना है अतः इसे किसी जीवित प्राणी या यन्त्र की तरह मूर्त वस्तु नहीं समझा जाना चाहिए। राजनीतिक व्यवस्था को उन व्यक्तियों की समूह नहीं समझना चाहिए जो सरकार या उसके विभिन्न अंगों की रचना करते है। यह अमूर्त संकल्पना ही हैं जिसके तथ्य एक-दूसरे पर क्रिया अन्तःक्रिया या परस्परता करके राजनीतिक प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हैं।
डेविड ईस्टन पहला राजनीतिशास्त्री था जिसने राजनीति विज्ञान के लिए व्यवस्था उन्मुख सन्दर्भ का विकास किया, यद्यपि दो समाजशास्त्रियों राबर्ट के मर्टन और टाल्कॉट पारसंस ने राजनीति के सन्दर्भ में इस सिद्धांत को उपयुक्त बताया था। इसी प्रकार ईस्टन ने विचार प्रतिपादित किया कि राजनीतिक व्यवस्था एक ऐसी स्वयं सम्पूर्ण और स्वनियन्त्रित इकाई है जिसके अन्तर्गत समाज की समस्त राजनीतिक गतिविधियों का संचालन होता है। उसने एक ऐसी संकल्पना का विकास करने का प्रयास किया जो राजनीतिक व्यवस्था को क्षमता प्रदान करे जिसका उपयोग राजनीतिक व्यवस्था समाज के द्वारा की जाने वाली मागों के साथ अनुकूलन स्थापित करे. और प्रतिसम्भरण प्रक्रियाओं की सहायता से व्यवस्था समर्थक तथ्यों को मजबूत बना सके। 1953 में ईस्टन ने व्यवस्था की शोध-सम्बन्धी सृजनात्मक अवधारणा को अपनी पुस्तक 'दि पॉलिटिक्स सिस्टम' में प्रस्तुत किया और राजनीति के अध्ययन में उसकी उपयोगिता और महत्व को दर्शाया। ईस्टन का उद्देश्य राजनीति विज्ञान में एक सामान्य सिद्धांत का विकास करके अनुशासनात्मक एकीकरण करना था। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसने व्यवस्था सिद्धांत को माध्यम बनाया। वह व्यवस्था के भीतर अन्तः तथा उसके बाह्य अन्तरव्यवस्थाओं के व्यवहार का अध्ययन करता है। इस प्रकार ईस्टन का व्यवस्था सिद्धांत सामान्य व्यवस्था सिद्धांत के नजदीक दृष्टिगत होता है। अन्तः क्रिया ईस्टन की व्यवस्था विश्लेषण की मूल इकाई है और अंतः क्रिया व्यवस्था के सदस्यों के व्यवहार से (जब वे व्यवस्था के सदस्यों के रूप में कार्य करते हैं) उत्पन्न होती है और जब अन्तःक्रियाएँ अन्वेषण की दृष्टि में एक अन्तःसम्बन्धों का समुच्चय बन जाती हैं तो व्यवस्था कहलाने लगती है। ईस्टन केवल राजनीतिक अन्तःक्रियाओं के समच्चय को ही अपने विश्लेषण का विषय बनाता है और इससे तीन महत्वपूर्ण अवधारणाओं को व्याख्यायित करता है -
(1) व्यवस्था (2) पर्यावरण (3) अनुक्रिया
आगत निर्गत सिद्धांत
डेविड ईस्टन ने 1953 में प्रकाशित पुस्तक the political system में प्रतिपादित राजनीतिक व्यवस्था सिद्धांत के निम्नलिखित प्रत्यय दिये हैं -
आगत या निवेश कार्य - आगत (निवेश) का तात्पर्य पर्यावरण संदर्भित मांग का समर्थन से है। प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था के समझ पर्यावरण द्वारा कुछ माँगें रखी जाती हैं जिनके पीछे व्यवस्था के सदस्यों का समर्थन होता है। समर्थन ही नीति-निर्धारकों का ध्यान मांगों की तरफ आकर्षित कराता है। जन समर्थन और सहमति पर ही राजनीतिक व्यवस्था का अस्तित्व कायम रहता है। समर्थन से व्यवस्था की कार्यकुशलता और क्षमता में वृद्धि होती है। साथ ही समर्थन औचित्यपूर्ण राजनीतिक सत्ता को विभिन्न प्रकार की मांगों को निर्गत में परिवर्तित करने की शक्ति भी देता है। राजनीतिक व्यवस्था की सक्रियता का सीधा सम्बन्ध मांगों जन्म के निवेश रूपान्तरण एवं निर्गत प्रक्रिया से है। निवेश का तात्पर्य जनसहभागिता से है जो व्यवस्था को निर्गत उत्पन्न कराने का समर्थन देता है। मांगों का समुचित समाधान सरकार द्वारा अधिकारिक मांगों का सम्पादन सार्वजनिक नीतियों के क्रियान्वयन में प्रभावशीलता एवं मांगों के प्रति प्रशासन का विवेकपूर्ण तथा धर्मनिरपेक्ष दृष्टिकोण व्यवस्था में बेहतर निवेश तत्व के निर्माण का महत्वपूर्ण मा यम है। राजनीतिक व्यवस्था की क्षमता एवं विकास का केन्द्रीय आधार है निवेश। निवेश तत्वों का जन्म सामाजिक पर्यावरण में होता है और जनसमर्थन ही व्यवस्था की वैधता, क्षमता, लोकप्रियता प्रभाव एवं स्थायित्व की खास पहचान होती है।
मांग (Demande) - ईस्टन के मतानसार मांगें व्यवस्था के शासकों के समक्ष जनसाधारण द्वारा प्रस्तुत एवं अभिविन्यासित आकांक्षाएँ अपेझाएँ, आवश्यकताएँ है जिसका अस्तित्व प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था में परिस्थितिजन्य पर्यावरण के अनुरूप विद्यमान है। मांगे जनता के मतों की अभिव्यक्ति हैं जो सामाजिक संसाधनों के आधिकारिक आवंटन के लिए उरत्त्तदायी कारक है। सामान्यत मांगें के तीन प्रकारों की चर्चा की गयी है - सामान्य, विशिष्ट एवं संकीर्ण। मांगें का स्वरूप जनहित एवं स्वार्थहित दोनों प्रकार का हो सकता हैं। मांगे स्पष्ट एवं अस्पष्ट दोनों रूपों में जन्म ले सकती हैं लेकिन उसकी दिशा और उनका बहाव सत्ता की ओर होता है। मांगें सत्ता पर दबाव बनाने का काम करती हैं। यह सदैव राजनीतिक सत्ताधारियों को जनसमुदाय के प्रति अनुकूल या प्रतिकूल निर्णय लेने के लिए आधार तत्व प्रदान करती है।
समर्थन (Support) - समर्थन मांगों की औचित्यता एवं अपरिहार्यता की पहचान है। कोई भी राजनीतिक व्यवस्था अपने अस्तित्व के सातत्व एवं अनुरक्षण के लिए सिर्फ नियंत्रण करने वाले उपकरणों पर निर्भर नहीं रहती है उसे अपनी कार्यक्षमता भी बढ़ानी पड़ती है। व्यवस्था की कार्यक्षमता बढ़ाने वाले साधन के रूप में ईस्टन ने समर्थन की अवधारणा प्रस्तुत की है और निवेश के रूप में मांगों के साथ-साथ समर्थनकारी तत्वों की प्रमुखता पर विशेष बल दिया है। ईस्टन के विचार में पर्यावरण से मिलने वाला समर्थन ही व्यवस्था के अस्तित्व को लम्बे समय तक कायम रखता है। समर्थन का स्वरूप जितना व्यापक होगा व्यवस्था को उतनी ही मजबूती मिलेगी। व्यवस्था के राजनीतिक समर्थन में कमी तब ही आती जब वह समाज की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने में असमर्थ हो जाता है। समर्थन वह महत्वपूर्ण निवेश है जो मांगों के स्वरूप, निर्धारण एवं रूपान्तरण के लिए जमीन तैयार करता है। समर्थन सत्ताधारियों एवं शासन व्यवस्था के प्रति जनसमुदाय की नकारात्मक या सकारात्मक प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति है। समर्थन सत्ता व्यवस्था एवं समाज के मूल्यों प्रति जनता की अनुकूल या प्रतिकूल प्रतिक्रियाएँ हैं। मांगों की तरह समर्थन का भी स्वरूप होता है जो नकारात्मक या सकारात्मक, प्रकट या अप्रकट, निरुददेश्य या उददेश्यपूर्ण आदि प्रकारों का होता है। व्यवस्था की क्षमता सक्रियता प्रभाव एवं औचित्यपूर्णता को मजबूती प्रदान करने में समर्थन की भूमिका सबसे अहम होती है। समर्थन ही राजनीतिक व्यवस्था और पर्यावरण के बीच एक मात्र मजबत कडी है जो अधिकारियों का ध्यान मांगों की जरूरत एवं उनकी अनिवार्यता की ओर आकृष्ट करता है समर्थन ही मांगों को विधेयक के रूप में निर्गत कराने का सशक्त माध्यम है और व्यवस्था की सक्रियता का आधारतत्व है। ईस्टन के अनुसार, “राजनीतिक स्थिति को उन्नत या अवरुद्ध करने वाली क्रियाएँ या अनुस्थापन के रूप में प्रस्तुत ऊर्जा को समर्थन कहते हैं।" समर्थन पर ही निर्गत का परिणाम निर्भर करता हैं।
निर्गत कार्य (Output Functions) - ईस्टन के शब्दों में, “अधिकारियों के निर्णय और आदेश राजनीतिक व्यवस्था के निर्गत है जो व्यवस्था के सदस्यों के व्यवहार से उत्पन्न परिणामों को पर्यावरण निर्माण की दृष्टि से संगठित स्वरूप प्रदान करता है। निर्गत प्रक्रिया राजनीतिक व्यवस्था की क्षमता एवं कार्यों की पहचान है। यह व्यवस्था एक महत्वपूर्ण संघटक है। जब जनसमुदाय द्वारा सत्ताधारियों को सम्बोधित मांगें रूपान्तरित होकर नीतियाँ निर्णय कार्यक्रमों योजनाओं या सरकारी घोषणाओं के रूप में जनकल्याण हेत पर्यावरण के सामने आती है। तो उन्हें ईस्टन ने निर्गत की संज्ञा दी है निर्गत जनसमुदाय समर्थित मांगों पर व्यवस्था का निर्णय है। यह पर्यावरण से उत्पन्न दबावों पर शासकों की प्रतिक्रिया है। निर्गत का परिणाम ही पर्यावरण में नये निवेशों के लिए जमीन तैयार करता है। निर्गत के महत्व पर प्रकाश डालते हुए ईस्टन ने लिखा है, “निर्गत न केवल उस व्यापक समाज ही घटनाओं को प्रभावित करता है जो राजनीतिक व्यवस्था का एक अंग है, अपितु यह प्रक्रिया उन सभी निवेशों को भी प्रभावित करती है जो एक के बाद एक राजनीतिक व्यवस्था में प्रवेश करता है।"
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