Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt", "मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध" for Class 11, 12 & B.A. Students

मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध : इस लेख में हम पढ़ेंगे मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध  जिसमें हम जानेंगे मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना , " उर्म...

मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध जिसमें हम जानेंगे मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना, "उर्मिला का विरह वर्णन", "साकेत कविता की व्याख्या" आदि। Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt" Nibandh.

Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt", "मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध" for Class 11, 12 & B.A. Students

Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt", "मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध" for Class 11, 12 & B.A. Students

वर्तमान काव्यधारा के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त का जन्म संवत् 1943 में झाँसी जिले के चिरगाँव नामक स्थान में हुआ था। उनके पिता का नाम सेठ रामचरण था। वैष्णव भक्त होने के साथ-साथ सेठ जी का कविता के प्रति भी असीम अनुराग था। वे 'कनकलता के नाम से दविता किया करते थे। गुप्त जी का पालन-पोषण भक्ति एवं काव्यमय वातावरण में ही हुआ । वातावरण के प्रभाव से गुप्त जी बाल्यावस्था से ही काव्य रचना करने लगे थे। गुप्त जी की शिक्षा-व्यवस्था घर पर ही हुई। अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वे झाँसी आये किन्तु वहाँ उनका मन न लगा। काव्य रचना की ओर प्रारम्भ से ही उनकी प्रवत्ति थी। एक बार अपने पिता जी की उस कापी में जिसमें वे कविता किया करते थे, अवसर पाकर एक छप्पय लिख दिया। पिता जी ने जब कापी खोली और उस छप्पय को पढ़ा, तब वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने मैथिलीशरण को बुलाकर महाकवि होने का आशीर्वाद दिया।

गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनायें कोलकाता के जातीय पत्र में प्रकाशित हुआ करती थी। पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के सम्पर्क में आने पर उनकी रचनायें 'सरस्वती' में प्रकाशित होने लगीं। द्विवेजी ने समय-समय पर उनकी रचनाओं में संशोधन किया और उन्हें 'सरस्वती' में प्रकाशित कर उन्हें प्रोत्साहन दिया। द्विवेजी जी से प्रोत्साहन पाकर गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा जाग उठी और शनैशनैः उसका विकास होने लगा। आज के हिन्दी साहित्य को गुप्त जी की काव्य-प्रतिभा पर गर्व है।

गुप्त जी जीवन के प्रथम चरण से ही काव्य रचना में प्रवृत्त रहे। राष्ट्र प्रेम, समाज प्रेम, राम, कृष्ण तथा बुद्ध सम्बन्धी पौराणिक आख्याओं एवं राजपूत, सिक्ख तथा मुस्लिम संस्कति प्रधान ऐतिहासिक कथाओं को लेकर गुप्त जी ने लगभग चालीस काव्य-ग्रन्थों की रचना की है। गुप्त जी ने मौलिक ग्रन्थों के अतिरिक्त बंगला के काव्य-ग्रन्थों का अनुपम अनुवाद भी किया है। अनुवादित रचनायें मधुप' के नाम से हैं। उन्होंने फारसी के विश्व-विश्रुत कवि उमर खैयाम की रूबाइयों का अनुवाद भी अंग्रेजी के द्वारा हिन्दी में किया है। रंग में भंग, जयद्रथ वध, भारत भारती, शकुन्तला, वैतालिका, पद्मावती, किसान, पंचवटी, स्वदेशी संगीत, हिन्दू-शक्ति, सौरन्ध्री, वन वैभव, वक संहार झंकार, अनघ, चन्द्रहास, तिलोत्तमा, विकट भट, मंगल घट, हिडिम्बा, अंजलि, अर्घ्य, प्रदक्षिणा और जय भारत उनके काव्य हैं। साकेत' पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से उन्हें मंगला प्रसाद पारितोषिक भी प्राप्त हुआ था। जय भारतउनकी नवीनतम कृति थी।

गुप्त जी ने अपनी रचनाओं में आज के युग की समस्त चेतनाओं, मान्यताओं और समस्याओं का प्रतिनिधित्व किया। उनके काव्य में सामाजिक जीवन के लक्ष्यों का निरूपण है, राष्ट्रीय विचारों के सौन्दर्य की झलक है। परिवर्तनशील पुकार तथा पद-दलित, परवश और निराश भारतवर्ष को पुनः स्वतन्त्रता प्राप्त कराने के लिए जागरण का महान् उद्घोष है। उनकी रचनाओं में प्राचीन आर्य प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व किया है। सभ्यता और संस्कृति की मधुर झंकार है। गुप्त जी ने अपने काव्य में वर्तमान युग की समस्त प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व किया है।

गुप्त जी की प्रारम्भिक रचनाओं में केवल इतिवृत्तात्मकता थी, न उनमें भाषा का सौन्दर्य था और न भाव का। परन्तु जैसे-जैसे गुप्त जी का कवित्व विकसित होता गया, वैसे-वैसे उनकी रचनायें अधिक प्रौढ़ और परिष्कृत होती गईं। गुप्त जी की रचनाओं में पंचवटी' में प्रथम बार उनके प्रौढ कवित्व के दर्शन होते हैं। साकेत, यशोधरा तथा द्वापर में हमें गुप्त जी के काव्य का चरम सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है। इन काव्यों में भाव पक्ष के साथ-साथ कला का सहज सौन्दर्य है। बंगला से अनुवाद किए हुए ग्रन्थों में मेघनाथ वध, विरहिणी बजांगना, वीरांगना और प्लासी का युद्ध बहुत सुन्दर अनुवाद हैं। एक दृष्टि से गुप्त जी का यह अनुवाद कार्य उनकी मौलिक रचनाओं की अपेक्षा हिन्दी को कहीं बड़ी देन है।

गुप्त जी गाँधीवाद से प्रभावित थे। उन्होंने अपने काव्य में यथास्थान सत्याग्रह, सत्य और अहिंसा आदि का वर्णन किया है। साकेत में राम के वन जाते समय अयोध्या की जनता से वे सत्याग्रह कराते हैं

राजा हमने राम, तुम्हीं को है चुना,

करो न तुम यों हाय ! लोकमत अनसुना।

जाओ यदि जा सके रौंद हमको यहाँ,

यों कह पथ में लेट गए बहुजन वहाँ ।।

अछूतोद्धार की ओर संकेत करते हुए गुप्त जी ने पंचवटी में लिखा है

गृह निषाद, शबरी तक का मन रखते हैं प्रभु कानन में,

क्या ही सरल वचन होते हैं, इनके भोले आनन में।

इन्हें समाज नीच कहता है, पर हैं ये भी तो प्राणी,

इनमें भी मन और भाव हैं, किन्तु नहीं वैसी वाणी ।

गुप्त जी की 'भारत-भारती' में देश-प्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। अंग्रेजी शासन के विरोध में होने के कारण यह पुस्तक कुछ समय तक प्रतिबंधित भी रही थी। इसमें उन्होंने अतीत गौरव की भव्य झाँकी प्रस्तुत की है। भारतवर्ष की तत्कालीन दुर्दशा पर दुःख प्रकट करते हुए आपने लिखा है-

हम कौन थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी ।

आओ विचारें आज मिलकर, ये समस्यायें सभी॥

अहिंसा का महत्त्व स्वीकार करते हुए गुप्त जी ने यशोधरा में राहुल के मुख से कितने सुन्दर शब्दों में आदर्श उपस्थित कराया है-

कोई निरपराध को मारे, तो क्यों अन्य उसे न उबारे ।

रक्षक पर भक्षक को वारे, न्याय दया का दानी ।

गाँधी जी ने चर्खा कातकर शरीर ढंकने का संदेश, स्वदेशी वस्त्र पहनने का सिद्धान्त भारतीय निर्धन जनता को दिया, जिससे कि थोड़े व्यय में उनका खर्च चल जाये और साथ ही साथ भारत को बेकारी की समस्या भी हल हो जाये, लोगों में स्वावलम्बन की भावना बढे। गुप्त जी ने यही बात सीता के मुख से कोल, किरात और भील स्त्रियों के प्रति कहलवा दी।

तुम अर्द्ध नग्न क्यों रहो अशेष समय में,

आओ हम कातैं बुनैं काम की लय में।

भारतवर्ष में स्त्री जाति चिरकाल से उपेक्षित रही है। गुप्त जी उनकी इस दशा पर दुःखी हो उठते हैं-

अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी,

आँचल में है दूध और आँखों में पानी ।।

परन्तु आज का कवि अबलाओं को अबला मानने को तैयार नहीं-

आँचल में था दूध किन्तु अब आँखों में पानी न रहा था।

उर में था देशानुराग और आज न अबला नाम रहा था ।।

स्वर्ग और नरक के विषय में जनता में बड़ी-बड़ी धारणायें हैं। कोई कहता है स्वर्ग ऊपर नरक नीचे है। कोई कहता है स्वर्ग में भगवान रहते हैं इसलिये उसे बैकुण्ठ भी कहते हैं। कुछ धारणायें हैं कि पुण्य करने से मृत्यु के समय देवता उस पुण्यात्मा को लेने आते हैं और सीधा उसे स्वर्ग को ले जाते हैं और नारकीय व्यक्ति को यमराज के दूत। इस प्रकार को देश में न जाने कितनी दन्तकथायें प्रचलित हैं। अब आप मैथिलीशरण जी का स्वर्ग और नरक सुन लीजिए-

बना लो जहाँ भी, वही स्वर्ग है, स्वयम्-भूत थोड़े कहीं स्वर्ग है।

खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है, भलों के लिए तो यहीं स्वर्ग है ।।

सुनो स्वर्ग क्या है ? सदाचार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है।

नहीं स्वर्ग कोई धरा वर्ग है, जहाँ स्वर्ग का भाव है, स्वर्ग है।

सुखी नारकी जीव भी हो गए, वहाँ धर्मराज स्वयम् जो हो गए।

सदाचार ही गौरवागार है, मनुष्यत्व ही मुक्ति का द्वार है। प्रजा के प्रति राजा का कैसा व्यवहार होना चाहिये तथा राजा के क्या-क्या कर्तव्य हैं, इस बात को गुप्त जी साकेत में स्वयं राम के मुख से स्पष्ट कराते हैं-

निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी,

हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि बलिदानी

निज रक्षा का अधिकार रहे जन-जन को,

सबकी सुविधा का भार किन्तु शासन को।

मैं नहीं मुक्ति का मार्ग, दिखाने आया।

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया ।।

मैं आर्यों का आदर्श बताने आया,

जन सम्मुख धन को तुच्छ जताने आया।

सुख शान्ति हेतु मैं क्रान्ति मचाने आया ।

विश्वासी का विश्वास जगाने आया।

गुप्त जी ने अपने अनघ' काव्य में ग्राम सुधार की आवश्यकता स्पष्ट रूप से प्रकट की है। उसमें संघ को एक ग्राम सुधार के रूप में चित्रित किया है-

मरम्मत कभी कुओं घाटों की सफाई कभी हाट-बाटों की,

आप अपने हाथों करता है।

कहीं-कहीं गुप्त जी ने प्रकृति के भी सुन्दर चित्र अंकित किए हैं। उनकी प्रकृति सदा शान्त और नूतन है। गुप्त जी ने प्रकृति को आलम्बन मानकर उसका वर्णन किया है। पंचवटी की ये पंक्तियाँ कितनी सुन्दर हैं-

चारु चन्द्र की चंचल किरणें, खेल रही थीं जल थल में।

स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई थी, अवनि और अम्बर तल में ।।

फैलाए यह एक पक्ष लीला किए, छाती पर बल दिए अंग ढीला किए।

देखो ग्रीवा भंग संग किस ढंग से, देख रहा है हमें विहंग उमंग से।।

गुप्त जी की कविता की भाषा सरल और सुबोध है। उसे साधारण से साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। गुप्त जी की कविता में कोमलता और माधुर्य का अभाव है। कहीं-कहीं तो रुखा गद्य-सा जान पड़ता है। इनकी कविता की सफलता का रहस्य भाषा तथा भावों की सुबोधता है न कि उनका काव्य-सौन्दर्य। एक आलोचक का विचार है कि गाँधी जी जो कुछ भी अपने भाषणों में कह देथे थे, प्रेमंद जी उसे अपने उपन्यासों में और मैथिलीशरण उसे अपनी कविता में ज्यों का त्यों कुछ उलट-फेर करके उतार दिया करते थे।

गुप्त जी ने प्रबन्ध, मुक्त, खण्ड काव्य, गीत आदि सभी काव्य-प्रवत्तियों पर लिखा परन्तु अधिक सफलता उन्हें प्रबन्ध काव्य के लिखने में मिली। द्विवेदी जी के कवियों की उर्मिला विषयक उदासीनता' लेख से प्रभावित होकर गुप्त जी ने साकेत लिखा। साकेत के नवें सर्ग में गुप्त जी का काव्य सान्दय, मला का भावात्मक अनुभूतियाँ, उसका त्यागमय विरह अत्यन्त उच्च कोटि का है। उनमें वास्तव में हमें गुप्त जी के महाकवित्व के दर्शन होते हैं। उर्मिला ही साकेत की आत्मा है, स्वामिनी है और अधिक कहा जाए तो उर्मिला ही साकेत का सर्वस्व है। कुछ प्रसंग उद्धृत करना उचित होगा। कल राज्याभिषेक होने वाला है। रात को देर तक जागने के कारण लक्ष्मण सुबह देर तक सोते रहे उर्मिला पहिले उठ बैठी। उर्मिला लक्ष्मण पर व्यंग्य करती है

उर्मिला बोली अजी तुम जग गए

स्वप्न निधि से नयन कब से लग गए।

लक्ष्मण ने तुरन्त शिष्ट उपहास करते हुए मार्मिक उत्तर दिया

मोहिनी ने मंत्र पढ़ जब से छुआ,

जागरण रुचिकर तुम्हें जब से हुआ।

साकेत में उर्मिला के भाव-सौन्दर्य की हमें पाँच झाँकियाँ मिलती हैं—(1) राज्याभिषेक के दिन प्रभात में, (2) लक्ष्मण के वन जाते समय में, (3) चित्रकूट में, (4) विरहावस्था में, (5) लक्ष्मण के अयोध्या लौट आने पर पुनर्मिलन के अवसर पर। राज्याभिषेक के दिन उर्मिला प्रातः प्रासाद में खड़ी है-

अरुण पट पहिने हुए आहाद में, कौन यह बाला खडी प्रासाद में।

प्रकट मूर्तिमती ऊषा ही तो नहीं, कान्ति की किरणें उजेला कर रहीं ।।

देखती है जब जिधर वह सुन्दरी चमकती है दामिनी-सी द्युति भरी ॥

दूसरा प्रसंग अत्यन्त कारुणिक है। राम वन को जा रहे हैं, सीता को भी साथ चलने की स्वीकृति मिल चुकी है, लक्ष्मण भी साथ जा रहे हैं, परन्तु उर्मिला का क्या होगा-

आह आह ! कितना सकरुण मुख था।

आर्द्रता-सरोज अरुण वह मुख था ।।

तीसरा प्रसंग चित्रकूट में आता है। गुप्त जी ने सीता के बहाने से लक्ष्मण को कुटिया में पड़ी हुई उर्मिला से मिलने का अवसर दिया है। भीतर जाते ही लक्ष्मण ठगे से रह जाते हैं। अभिषेक के पहले की कनक-लता उर्मिला अब केवल छायामात्र है-

तो दीख पडी-कोणस्थ उर्मिला रेखा,

यह काया है या शेष उसी की छाया।

क्षण भर उनकी कुछ नहीं समझ में आया।।

लक्ष्मण को अपने पास आने में झिझकता हुआ देखकर उर्मिला तुरन्त कह उठती है-

मेरे उपवन के हिरण, आज वनचारी,

मैं बाँध न लँगी तुम्हें, तजो भय भारी ।

चौथे प्रसंग में अब आप उर्मिला का विरह देखिये। सखी भोजन का थाल परोस कर लाती है परन्तु उर्मिला यह कह कर हटा देती है-

अरी व्यर्थ है व्यंजनों की बड़ाई,

हटा थाल, तू क्यों इसे आप लाई।

बनाती रसोई, सभी को खिलाती, इसी काम में आज मैं तृप्ति पाती ।

रहा किन्तु मेरे लिए एक रोना, खिलाऊँ किसे मैं अलोना-सलोना ।।

शीतल-मन्द सुगन्धित वायु उमिला के निकट आती है पर यह उसका आनन्द कैसे ले सकती है। वह उससे पीछे लौट जाने की प्रार्थना करती है

अरी सुरभि जा, लौट जा अपने अंग सहेज।

तू है फूलों की पली, यह काँटों की सेज ।।

प्रिय के विरह से नेत्रों से ही अश्रुपात नहीं हो रहा, अपितु समस्त शरीर से स्वेद रूपी अश्रु बहने लगे हैं-

नयन नीर पर ही सखी, तु करती थी खेद।

टपक उठा है देख अब, रोम-रोम से स्वेद।

चकवी जब पहले कभी रोया करती थी, उर्मिला समझती थी कि वह गा रही है, परन्तु आज जब अपने ऊपर आकर बीती, तब अनुभव हुआ कि चकवी रोती थी या गाया करती थी

चातकि मुझको आज ही हुआ भाव का भान ।

हा ! वह तेरा रुदन था मैं समझी थी गान ।।

उर्मिला अपने मन को तरह-तरह से समझाती है कि प्रिय पास ही हैं, कहीं दूर नहीं गये। किन्तु ऑखें फिर रोये बिना नहीं मानती

नयनों को रोने दे,

मन, तू संकीर्ण न बन, प्रिय बैठे हैं।

आँखों से ओझल हो,

गए नहीं वे कहीं यहीं बैठे हैं।

कभी सोचती है कि मैं भी उसी वन में जाकर, बिना उन्हें बताये, वहाँ रहने लगूं, आखिर देखने भर को तो मिल जायेंगे-

यही आता है इस मन में,

छोड़ घाम-धन जाकर मैं भी हूँ उसी वन में।

बीच-बीच में उन्हें देख लें, मैं झुरमुट की ओट,

जब वे निकल जाये तब लेटू उसी धूल में लोट ।।

रहें रत वे निज साधन में,

यही आता है इस मन में ।।

अन्त में उर्मिला सखी से यही प्रार्थना करती है कि देख, प्रिय-विरह में मैं पागल हो जाऊँ, तो तू मेरा कुछ उपचार न करना, चाहे मैं हँसती रहूँ या रोती रहूँ-

सजनि ! पागल भी यदि हो सकूं।

कुशल तो, अपनापन खो सकूं ।।

शपथ है, उपचार न कीजियो।

बस इसी प्रिय-कानन कुंज में ।।

अवधि की सुधि तुम लीजियो ।

मिलन-भाषण के स्मृति पूँज में ।।

अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो,

हँसन रोदन से न पसीजियो ।।

पाँचवाँ प्रसंग अयोध्या में लक्ष्मण और उर्मिला का चौदह वर्ष बाद का पुनर्मिलन है। लक्ष्मण लौट आये हैं वर्षों की मिलन की साध आज पूरी होने वाली है। आज छाया-मात्र उर्मिला के रोम रोम में आहाद और उल्लास है। सखी नै उमिला से श्रृंगार करने को कहा, परन्त आज श्रृंगार की आवश्यकता नहीं।

हाय ! सखी, शृंगार ? मुझे अब भी सोहेंगे।

क्या वस्त्रालंकार मात्र से वे मोहेंगे ?

उर्मिला ने चौदह वर्षों में अपने को जैसा रखा है और जैसी वह है उसी रूप में आज वह उनसे मिलेगी। वह सखी से कहने लगती है

नहीं-नहीं प्राणेश मुझी से छले न जावें ।

जैसी हूँ मैं नाथ मुझे वैसा ही पावें ।।

शूर्पणखा मैं नहीं, हाय तू तो रोती है।

अरी हदय की प्रीति हृदय पर ही होती है ।।

सखी नहीं मानती, उर्मिला को विवश होकर वस्त्रालंकार धारण करने पड़ते हैं। परन्तु एक वास्तविक अभाव की ओर संकेत करती है-

तो ला भूषण वसन, इष्ट हो तुझको जितने ।

पर यौवन उन्माद कहाँ से पाऊँगी मैं ।।

वह खोया धन आज कहाँ सखि पाऊँगी मैं ।।

परन्तु इतने में उर्मिला के हृदय में स्वाभाविक ओज उमड़ पड़ता है, कितनी सुन्दर और मार्मिक उक्ति है

विरह रुदन में गया, मिलन में भी रोऊँ।

मुझे कुछ नहीं चाहिए, पदरज धोऊँ।।

जब थी तब थी अलि, उर्मिला उनकी रानी।

वह बरसों की बात, आज हो गई पुरानी ।।

अब तो केवल रहूँ सदा स्वामी की दासी ।

मैं शासन की नहीं आज सेवा की प्यासी ।।

आज कितना परिवर्तन हो गया है उर्मिला के हृदय में, वह अब केवल सेवा की प्यासी है। एक दिन था जब लक्ष्मण उर्मिला से स्वयं कहते थे-

धन्य जो इस योग्यता के पास हैं, किन्तु मैं भी तो तुम्हारा दास हूँ।

और उर्मिला इस पर स्वाभिमानपूर्ण उत्तर देती थी-

दास बनने का बहाना किस लिए? क्या मुझे दासी कहाना इसलिए?

उर्मिला आज दासी बनने में अपना गौरव समझ रही है। वास्तव में प्रारम्भ में स्त्री अपने को बहुत कुछ समझती है, उसे अपने पर बहुत गर्व होता है। परन्तु कुछ समय पश्चात् जब उसके पास कुछ नहीं रहता और पुरुष के पास सब कुछ खोकर भी उसके लिए बहुत कुछ रहता है, तो वह पुरुष की दासी हो जाती है। अभी लक्ष्मण मिलने के लिए उर्मिला के निकट आये नहीं थे, केवल सखी से ही उर्मिला की बातें हो रही थीं। सहसा लक्ष्मण आ जाते हैं और उर्मिला अपनी सुधबुध खो बैठती है जैसा कि प्रायः ऐसे अवसरों पर होता है। गुप्त जी की तूलिका ने कितना सुन्दर चित्र प्रस्तुत किया है, देखिए-

देखा प्रिय को चौंक प्रिया ने, सखी किधर थी?

पैरों पड़ती हुई उर्मिला हाथों पर थी।

लेकर मानों विश्व विरह उस अन्त:पुर में,

समा रहे थे एक दूसरे के वे उर में ।।

परन्तु उर्मिला स्त्री ही थी। उसे सहसा ध्यान आया कि यौवन के कितने सुहावने दिन व्यर्थ में ही व्यतीत हो गए। उनका हृदय नीरव चीत्कार कर उठा, क्रन्दन करती हुई वह कहने लगी-

स्वामी, स्वामी, जन्म-जन्म के स्वामी मेरे।

किन्तु कहाँ वे अहोरात्र, वे सांझ सवेरे ।।

खोई अपनी हाय ! कहाँ वह खिलखिल खेला।

प्रिय जीवन की कहाँ आज वह चढती बेला ।।

लक्ष्मण केवल सामयिक सांत्वना भर दे पाए हैं-

वह वर्षा की बाढ़ गई, उसको जाने दो।

शुचि गम्भीरता प्रिये, शरद की यह आने दो।।

ये चार चित्र लक्ष्मण और उर्मिला के मिलन के क्षणों के बड़े मार्मिक और हृदय स्पर्शी हैं।

साकेत में गुप्त जी निःसन्देह महान् हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में गुप्त जी का महत्वपूर्ण स्थान है। जितना प्रबन्ध काव्य उन्होंने लिखा है, उतना हिन्दी के किसी अन्य कवि ने नहीं। प्रबन्ध काव्य में साधना की आवश्यकता होती है। गुप्त जी निःसन्देह हिन्दी के महान् साधक थे।

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HindiVyakran: Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt", "मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध" for Class 11, 12 & B.A. Students
Hindi Essay on "Maithili Sharan Gupt", "मैथिलीशरण गुप्त पर निबंध" for Class 11, 12 & B.A. Students
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