Hindi Essay on “Kshetrawad ek Abhishap”, “क्षेत्रवाद एक अभिशाप पर निबंध” क्षेत्रवाद का भाव पुराने राज्यों-रियासतों का ही आधुनिक रूप माना जा सकता है। क्षेत्रवाद को प्रान्तीयता भी कहा जाता है। आधुनिक दृष्टि से प्रान्त या क्षेत्र किसी देश के ऐसे भू-भाग को कहा जाता है जो अपनी विशिष्ट भाषा-संस्कृति और रीति-नीतियों के कारण अपना अलग व्यक्तित्व रखते हुए भी अपनी अन्त:धारा में देश का अंगीभूत ही हो। प्रान्त या क्षेत्र का भाषा-संस्कृति या सभ्याचारों से सम्बन्धित अलग व्यक्तित्व होता है, इसका उसका अपना विशिष्ट महत्त्व भी रहा करता है आर रहना भी चाहिए. इस बात से कोई भी व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता। पर प्रान्तीयता या क्षेत्रवाद की भावना जब इस सीमा तक विकास कर जाती है कि वहां के लोग अपने-आपको समग्र देश और राष्ट्र की अन्तःधारा से ही अलग समझने लगे, तब निश्चय ही उसका स्वरूप, स्वभाव एक जीवन्त अभिशाप-सा प्रतीत होने लगता है, इस बात में भी तनिक सन्देह नहीं।

Hindi Essay on “Kshetrawad ek Abhishap”, “क्षेत्रवाद एक अभिशाप पर निबंध”, for Class 6, 7, 8, 9, and 10 and Board Examinations.
क्षेत्रवाद का भाव पुराने
राज्यों-रियासतों का ही आधुनिक रूप माना जा सकता है। क्षेत्रवाद को प्रान्तीयता भी कहा जाता है। आधुनिक दृष्टि से प्रान्त या क्षेत्र किसी देश के ऐसे भू-भाग को कहा जाता है जो अपनी विशिष्ट भाषा-संस्कृति और रीति-नीतियों के कारण अपना अलग व्यक्तित्व रखते हुए भी अपनी अन्त:धारा में देश का अंगीभूत ही हो। प्रान्त या क्षेत्र का भाषा-संस्कृति या सभ्याचारों से सम्बन्धित अलग व्यक्तित्व होता है, इसका उसका अपना विशिष्ट महत्त्व भी रहा करता है आर रहना भी चाहिए. इस बात से कोई भी व्यक्ति इन्कार नहीं कर सकता। पर प्रान्तीयता या क्षेत्रवाद की भावना जब इस सीमा तक विकास कर जाती है कि वहां के लोग अपने-आपको समग्र देश और राष्ट्र की अन्तःधारा से ही अलग समझने लगे, तब निश्चय ही उसका स्वरूप, स्वभाव एक जीवन्त अभिशाप-सा प्रतीत होने लगता है, इस बात में भी तनिक सन्देह नहीं। बड़े खेद के साथ यह तथ्य स्वीकार करना पड़ता है कि मध्यकाल की तरह आज फिर हमारा देश प्रान्तीयता की सीमित-संकुचित भावनाओं से भरकर अपने साथ-साथ समग्र देशीयता और राष्ट्रीयता की चेतना को चोट पहुँचाना चाहता है। इस तथ्य की कतई उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। इस अभिशाप के उभरते प्रभाव को यदि शुरू में ही न दबा दिया गया तो एक बार फिर देश को मध्यकालीन टुकड़ों में बाँट कर विघटित होना पड़ सकता है। यदि अनेक बलिदानों से प्राप्त की गयी स्वतंत्रता से भी हाथ धोना पड़ जाये, तो असम्भव नहीं।
हमारा देश भारत छोटे-बड़े अनेक क्षेत्रों या प्रान्तों में बँटा हुआ है। यह विभाजन प्राकृतिक एवं भौगोलिक तो है ही; भाषा, रीति-रिवाज व अनेक विध सांस्कृतिक परम्पराओं की दृष्टि से भी है फिर भी कोई ऐसी सूक्ष्म सांस्कृतिक चेतना इस देश में अत्यन्त प्राचीनकाल से विद्यमान है, जिसने सारे देश को एकसूत्रता में बाँध रखा है। देश के चारों कोनों पर बसे चार धाम, जिनकी यात्रा के बिना इस देश का वासी अपनी धार्मिक मानसिकता अपूर्ण और अधूरी मानता है। समय-समय पर होने वाले धार्मिक-सामाजिक गुरु, पीर-फकीरऔर नेता, जिनकी समन्वयवादी चेतना ने समूचे देश को, सभी प्रान्तों को एक सूत्र में पिरोये रखा। पर आज वह पहले जैसी बात नहीं रह गयी। लगता है, हमारी समन्वय-साधना, उस साधना और भावना को प्रश्रय देने वाले उदात्त नेतृत्व का अभाव हो गया है। तभी तोभीतर ही भीतर उग्र होकर प्रान्तीयता की भावना हमारी समग्र भावनात्मक एकता की मनोभूमि में दरारें डालकर उसे विघटित और विखण्डित कर देना चाहती है। कभी भाषा के नाम पर झगड़ा खड़ा किया जाता है, कभी धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर और कभी मात्र वैयक्तिक निहित स्वार्थों या राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए। तभी तो स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में एक समग्र भारत, भावनात्मक एकता में बंधी इस पावन भूमि की जो मूर्ति कल्पित की गयी थी, आज वह हर पल खण्डित होती प्रतीत हो रही है। सोचने की बात है कि आखिर इस विखण्डन और घोर प्रान्तीयता के उभार के लिए कौन-से कारण जिम्मेदार हैं?
जब हम कारणों पर विचार करते है, तो एक प्रमुख कारण उभर कर सामने आता है। वह कारण है राजनीतिक स्वार्थपरता इस प्रवृत्ति ने आज उस प्रत्येक व्यक्ति को नेता बनने का अवसर प्रदान कर दिया है, जिसके चार अनुयायी भी हो जाते हैं। यह बात उसके मन में सत्ता की भूख जगाती है। तब वह उसे पाने के लिए हाथ-पाँव मारता है। राष्ट्रीय दलों के माध्यम से जब वह अपने लिए कोई स्थान सरक्षित नहीं कर पाता, तब स्थानीयता और उससे आगे बढ़कर प्रान्तीयता को महत्त्व देने लगता है। वह यह भूल जाता है कि भारत एक गणराज्य है, वह अलग-अलग गणों या प्रान्तों का समूह नहीं। प्रान्तों की विभाजन-रेखा सुचारु प्रशासन चलाने के लिए एक बाह्य या स्थूल प्रक्रिया मात्र है, संवैधानिकता अलगाव की गारण्टी नहीं। पर सत्ता के भूखों को तो मात्र सत्ता चाहिए, वह चाहे देश और अपनी अस्मिता को बेचकर हीक्यों न मिले। सो वे प्रान्तीयता का भाव भड़काते रहते हैं।
भारत इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब भी क्षेत्रीयता का भाव पनपा, देश को विघटित तो होना ही पड़ा, विदेशियों की दासता भी ओढ़नी पड़ी। आज भी हमारे देश के चारों ओर इस प्रकार की शक्तियाँ और तत्त्व सक्रिय हैं, जो भारत का विघटन चाहते है। उनकी पीठ ठोकने वाली प्रबल शक्तियाँ भी भारत की प्रगतियों से प्रसन्न नहीं। हमारे आस-पास की छोटी शक्तियों की न केवल पीठ ही ठोंकी जा रही है, बल्कि उन्हें हर प्रकार की सहायता देकर इस बात के लिए उकसाया भी जा रहा है कि भारत में प्रान्तीयता या अलगाव की भावना को इस सीमा तक भड़का दिया जाये कि विघटन अवश्यम्भावी हो जाये। ऐसे समय में प्रान्तीयता जैसी भावनाओं के शिकार होकर हम देश का अहित तो करेंगे ही, अपना हित-साधन भी किसी प्रकार नहीं कर सकते। अत: बहुत ही अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है।
स्वतंत्र भारत में आज अनेक क्षेत्रीय दल बन रहे हैं। क्षेत्रों या प्रान्तों के लिए स्वायत्तताया अधिक अधिकारों की मांग की जा रही है। इस प्रकार क्षेत्रीय दलों की सहायता से प्रान्तों में सत्ता हथिया लेने वाले क्षेत्रीय नेता आपस में मिलकर भी इस बात के लिए प्रयत्न कर रहे हैं कि उन्हें अधिक अधिकार दिये जायें! क्षेत्रीय दलों की विजय की कहानी तमिलनाडु से आरम्भ हुई थी। अब आन्ध्र प्रदेश भी उसका शिकार हो गया है। काश्मीर आरम्भ से ही प्रायः क्षेत्रीय दल के शासनाधीन रहा है। प्रान्तीयता और उससे भी आगे बढ़कर अलग सत्ता की स्वार्थी भूख के कारण आज कई प्रांत जल रहे हैं। वोटों की राजनीति या सत्ता पुनः हथियाने की भख से ऊपर उठकर ही प्रान्तीयता के इस अभिशाप से छुटकारा पाया जा सकता है। यह भूख चाहे प्रान्त में सत्ता हथियाने की हो या केन्द्र में बनाये रखने की हो, इससे छुटकारा पाये बिना समस्या का समाधान कतई सम्भव नहीं हो सकता। इस हीन भावना से छुटकारा पाकर ही राष्ट्रीयता की बात सोची जा सकती है।
हमारा देश भारत अपनी मूल सांस्कृतिक अवधारणा में विशाल वटवृक्ष के समान है। जिस प्रकार पत्तों, डालियों, उन पर रहने वाले पक्षियों को अलग करके वटवृक्ष की विशालता तो क्या, अस्तित्व बने रहने तक की कल्पना नहीं की जा सकतीः उसी प्रकार प्रान्तों को अलग करके भारत देश और भारतीय संस्कृति के अस्तित्व की भी कल्पना एक भ्रममात्र है। अत:अपनी सार्वभौमिकता, अपनी स्वतंत्र सत्ता और अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितनी भी जल्दी हो सके, प्रान्तीयता के भूत को हमेशा-हमेशा के लिए मार भगाना होगा। राष्ट्र सर्वोपरि हुआ करता है, बाकी सब गौण होता है। उसकी राह में आने वाली हर बाधा हटाकर ही कोई सार्वभौम राष्ट्र और उसका जन जीवित रह सकता है। अन्य कोई उपाय या रास्ता नहीं।
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