चुनाव का एक दृश्य पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे चुनाव का एक दृश्य पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे भारत में चुनाव प्रक्रिया का वर्...
चुनाव का एक दृश्य पर हिंदी निबंध: इस लेख में हम पढ़ेंगे चुनाव का एक दृश्य पर हिंदी निबंध जिसमें हम जानेंगे भारत में चुनाव प्रक्रिया का वर्णन, "An Election Scene Essay in Hindi" आदि।Hindi Essay on "Chunav ka Ek Drishya" for Class 6, 7, 8, 9, 10, 11 & 12.
Hindi Essay on "An Election Scene", "चुनाव का एक दृश्य पर निबंध", "Chunav ka Ek Drishya" Nibandh for Students
चुनाव जनतंत्र की जान माने जाते हैं। जनतंत्री शासन-व्यवस्था कायम रखने के लिएहर पांच वर्षों के बाद चुनाव कराया जाना आवश्यक हुआ करता है। चुनाव चाहे ग्राम-सभाया ग्राम-पंचायत का हो, नगर पालिका, नगर निगम, महानगर परिषद, छावनी परिषद का हो,या फिर विधान सभा या संसद का हो, सभी का मूल्य और महत्त्व एक समान ही माना जाता है। अपनी-अपनी सीमा और स्तर पर सभी प्रकार के चुनावों की प्रक्रिया भी एक जैसी ही होती है। सभी के लिए तैयारी भी समान रूप में करनी पड़ती है। इन सभी छोटी-बड़ी संस्थाओं के चुनाव के लिए प्रचार करने के जो तरीके अपनाये जाते हैं. उनमें भी कोई विशेष फर्क नहीं रहा करता। हाँ, उन प्रचार अभियानों का स्वरूप कुछ छोटा-बड़ा अवश्य हो सकता है, हुआ भी करता है, पर बुनियादी बातों में, सारी कार्य-प्रणालियों और गतिविधियों में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता। इस कारण चुनाव चाहे प्राम-पंचायत का हो, नगर पालिका का हो. विधान सभा या संसद किसी का भी क्यों न हो, उसके लिए जो कीभी तैयारी आदि के रूप में किया जाता है, उसे चुनाव-आन्दोलन कहा जाता है।
चनावों में हर बालिग या वयस्क आदमी को अपने मताधिकार के प्रयोग का हक रहता है, इस कारण चुनाव लड़ने वाले राजनेता, उनके प्रचार-अधिकारी और प्रचारक आन्दोलन आरम्भ हो जाने पर हर उस व्यक्ति के पास पहुंचने का प्रयास अवश्य करते हैं जिसको मतदान करना होता है। मतदाता मत चाहे किसी भी दल या उसके उम्मीदवार को दे, पर हर दल और उसका उम्मीदवार उसके पास एक-न-एक बार तो अवश्य पहुँचता है। इस कारण चुनाव-आन्दोलन के दौरान हर घर के कुण्डे-किवाड़ दिन में कई-कई बार खटाखटाये जाया करते हैं। कभी किसी दल का कोई नेता आ रहा है, तो कभी कार्यकर्ता ! कभी स्वयं उम्मीदवार ही जाकर हाथ जोड़ और मुँह पर चिपकी लम्बी मुस्कान के साथ अपने को मतदान करने का अनुरोध करता हुआ दिखाई दे जाता है ! जो मतदाता अपने स्वभाव, कर्म और विचार से किसी विशेष विचारधारा या दलों के साथ जुड़े रहा करते हैं, उनकी बात छोडिये। उनका मतपत्र तो विचारधारा या उससे मिलते-जुलते दल के उम्मीदवारों के लिए सुरक्षित रहा करता है, पर जहाँ तक आम विचारधारा या दलों से सम्बन्ध न रखने वाले मतदाताओं का प्रश्न होता है, उन्हें विशेष सावधान रहना पड़ता है। नाराज तो किसी भी चुनावी उम्मीदवार को नहीं किया जा सकता। फिर यह भी पता नहीं होता कि कौन जीते या कौन हारेगा हो सकता है, जिसे हम मत न देना चाहते हों, वही जीत कर हमारा प्रतिनिधि बन कर आ जाये ! सो इस प्रकार की स्थितियों में भी अपने को ठीक-ठीक रखनेके लिए समझदार मतदाता विशेष सावधान रहता है। वह मत पाने की इच्छा से दरवाज़ा खटखटाने वाले हर उम्मीदवार, हर दल और उसके कार्यकर्ता का हँस कर स्वागत करता है। उन सबको आश्वासन देता है कि उसका मतपत्र तो केवल उन्हीं के लिए सुरक्षित है,और किसी के नाम के आगे कभी भूल से भी मुहर नहीं लग सकती। इस प्रकार चुनाव-आन्दोलन करते समय जैसे नेता हर आदमी का हर काम करने या काम हो जाने कावायदा करता है। उसी प्रकार मतदाता भी हर दल के हर उम्मीदवार को अपना मत देने कावायदा करता और आश्वासन देता है। इसे हम जनतंत्र और उसके नाम पर होने वालेचुनावों की विवशता, एक बहुत बड़ी कमी कह सकते हैं!
चुनाव-आन्दोलन के समय और दिनों में कई प्रकार के चकित करने वाले, कई तरहसे मनोरंजन करने वाले दृश्य भी दिखायी दिया करते हैं। हमेशा अकड़ कर चलने वाला,किसी से सीधे मुंह बात न करने वाला, दूसरों की सहायता और दुख-दर्द से कोसों दूर रहने,वाला आदमी भीगी बिल्ली बना फिरता है। सभी से सेवा और काम पूछता फिरता है, वहभी हाथ जोड़ और जमीन तक झुक कर! हमेशा गालियाँ बकते और दंगा-फसाद करतारहने वाले आदमी नम्र और महात्मा गाँधी की औलाद बने घूमते हैं। खादी और सादगीसे घृणा करने वाले खादी की पोशाक पहन कर सादगी का अवतार बने नज़र आते है। इस प्रकार की बातों से स्पष्ट हो जाता है कि आजकल चुनाव-आन्दोलन कितने बनावटीबन चुके हैं। आम आदमी यों तो कदम-कदम पर ठगा-लूटा जाता ही है, चुनाव-आन्दोलनोंमें भी प्रायः सभी प्रकार के नेता उसे ठगने और लूटने की तैयारी करते हुए ही दिखायीदेते हैं। इसे जनतंत्र और चुनाव-आन्दोलन दोनों को स्पष्ट विडम्बना कहा जा सकता है।
चुनाव-आन्दोलन के दिन वैसे भी आम जन-जीवन पर बोझ डालने वाले हुआ करते हैं। अक्सर लोग रसीदें छपवाकर दलों और उम्मीदवारों के नाम पर चन्दा बटोरने निकल पड़ते हैं। किस-किस को दें और किसे न दें, निर्णय कर पाना बड़ा कठिन हो जाताहै। सभी कुछ-न-कुछ दन का आग्रह करते हैं, लिये बिना हिलने से भी इन्कार कर देतेहैं। कई बार तो आस-पड़ोस या गली-मुहल्ले का कोई ऐसा व्यक्ति भी आ जाता है।कि इन्कार कर पाना संभव ही नहीं हुआ करता। इस प्रकार आम आदमी का मत तो जाता ही है, कई-कई बार जेब खुलकर घर-परिवार का बजट भी बिगड़ जाता है, जो फिर कई-कई महीने संभल और सुधर नहीं पाता। वैसे भी रात-दिन लाऊड-स्पीकरों पर उम्मीदवार के नाम और चुनाव चिह्न आदि का प्रचार, मत देने की अपीलें, जोरदार नारे-बाज़ी आदि आदमी के कान के पर्दे तो फाड़ा ही करते है, उसकी चेतना पर सवारहोकर मन-मस्तिष्क को व्याकुल भी बनाये रखते हैं। फिर मोटरों के हार्नो, ढोल-ढमक्कों, बाजे-गाजों के साथ भाँ-भाँ करते हुए निकलने वाले लम्बे-लम्बे जुलूस, हर मोड़ और नुक्कड़ पर रात-दिन होती रहने वाली सभाएं, लाऊडस्पीकर लगा कर कान-फोड़ आवाज़ में दिये जाने वाले लम्बे-चौड़े भाषण, सब मिला कर चुनाव-आन्दोलनों के दिनों में नाक में दम हुआ रहता है। विद्यार्थी के लिए मन लगाकर पढ़ पाना संभव नहीं हो पाता। आराम के इच्छुक और रोगी चाह कर भी आराम नहीं कर पाते। कहीं जल्दी पहुँचने के इच्छुक जुलूसों को घण्टों रास्ता रोके हुए. चींटी की चाल से सरकते देख अपना माथापीट लेते हैं। इस प्रकार चुनाव-आन्दोलन अच्छा-खासा तमाशा खड़ा कर देते हैं। सर-दर्द और परेशानियों का कारण बन जाया करते हैं।
चुनाव-आन्दोलन के दिनों में आन्दोलन चलाने वालों द्वारा भोले-भाले नासमझ बच्चोंका भी बड़ा शोषण किया जाता है। उन्हें बिल्ले या कुछ खाने की चीजों का लालच देकरमात्र नारे लगाने के लिए इकट्ठा कर लिया जाता है। तभी तो अभी-अभी जो बच्चे किसी उम्मीदवार को जिंदाबाद कर रहे हैं, कुछ देर बाद उस के लिए मुर्दाबाद कहते दिखायी देतेहै। नन्हें-मुन्नों को इस प्रकार बरगलाना ठीक नहीं कहा जा सकता ! चुनाव-आन्दोलन काएक तरीका पोस्टरबाजी भी है। सो इन दिनों कोई भी दीवार बच नहीं पाती, जिस पर पोस्टरों की भरमार न होती हो ! इससे घरों की दीवारें गन्दी और काली हो जाती हैं। उतारेगये पोस्टरों, बाँटे गये इश्तहारों से गलियाँ-बाजार भर जाते हैं। महँगे और कठिनता से मिलने वाले कागज, प्रेस-छपाई आदि का जितना दुरुपयोग इस तरीके से होता है, उसका कोई हिसाब नहीं ! उतने काग़ज से किताबें आदि छापकर हज़ारों गरीब छात्रों की शिक्षा-व्यवस्थाका जा सकती है। और भी कई बातें कही जा सकती हैं। जैसे विरोधी दल आपस में टकराकर सिर-फुटौवल तो करते ही हैं, हत्याएँ भी हो जाती हैं। शराब-शबाब का दुरुपयोग तथा अन्य बहुत कुछ!
इस प्रकार स्पष्ट है कि आज के चुनाव एक प्रकार से अमानवीय तमाशा बनकर रह जाते हैं। फिर भी जनतंत्र को जिन्दा रखने के लिए उनका होना आवश्यक है।जनतंत्र की वे रीढ़ हैं। जनता के पास एक मान्य शासन, जिससे वह जन-विरोधी नेताओं,सरकारों को बदल कर कम-से-कम पाँच वर्षों में एक बार तो अपनी शक्ति का परिचय दे ही सकती है। अत: चुनाव-आन्दोलन बन्द करने को तो नहीं, पर उनमें पूरी तरह से सुधार लाने को कहा और प्रयत्न तो किया ही जा सकता है।
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