सह-शिक्षा के गुण दोष पर निबंध। Sah Shiksha par Nibandh
सह-शिक्षा का अर्थ है बालक और बालिकाओं का एक साथ एक ही विद्यालय में अध्ययन करना। समाज में स्त्री-पुरुष साथ-साथ रहते हैं, इसलिये बालक और बालिकाओं की सह-शिक्षा के सम्बन्ध में भी प्रश्न उठाना नहीं चाहिये, परन्तु फिर भी कुछ भारतीय विद्वान् इसके पक्ष में हैं और कुछ विरोध में। विदेशी सभ्यता ने उपहार में जहाँ भारतीयों को अन्य वस्तुयें दीं, वहाँ सह-शिक्षा भी दीं। यूरोप में सह-शिक्षा का जन्म स्विट्जरलैण्ड में हुआ, फिर शनै: शनै: इंग्लैण्ड, अमेरिका तथा फ्रांस में भी सह-शिक्षा बढ़ने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी में भारतवर्ष में भी सह-शिक्षा ने पदार्पण किया। भारतवर्ष में तब तो स्त्री शिक्षा का ही विरोध किया जाता था। भारतीयों के सामने यह दूसरी समस्या आई। कुछ लोगों ने इसका स्वागत किया, परन्तु अधिकांश जनता ने इस नवीन पद्धति को दोषयुक्त बताया, क्योंकि भारतीय इस बात पर विश्वास करते थे कि स्त्री और दलित न पढ़ें। जो लोग स्त्री का पढ़ना ही हानिकारक समझते थे, वे भला सह-शिक्षा का कैसे स्वागत कर सकते थे। मुगलकाल में तो स्त्रियों का घर से बाहर निकलना भी आपत्तिजनक था, इसलिये पर्दे की प्रथा का प्रादुर्भाव हुआ था। अब धीरे-धीरे स्त्रियों की शिक्षा तो प्रारम्भ हो गई, परन्तु अब प्रश्न यह आया कि लड़कियों की शिक्षा के लिये अलग संस्थायें हों या उनको लड़कों के विद्यालय में ही पढ़ने दिया जाये। पिछली दो शताब्दियों में इस समस्या पर जोरदार विवाद चलता रहा है, फिर भी यह योजना देश में किसी-न-किसी रूप में चल रही है।
सह शिक्षा के पक्ष में तर्क : समर्थकों का कथन है कि प्राचीन भारत में भी सह-शिक्षा थी। ऋषियों के गुरुकुलों में मुनिकुमार और मुनिकन्यायें साथ-साथ पढ़ते थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा पुरुषों के समान ही होती थी। महर्षि बाल्मीकि के आश्रम में आत्रेयी और महर्षि कण्व के आश्रम में शकुन्तला अन्य कुमारों के साथ विद्याध्ययन करती थीं। वेद मन्त्रों की रचना करने वाली स्त्रियों के नाम भी वेदों में मिलते हैं। उपनिषदों में गार्गी का वर्णन आता है, जिसने अपनी विद्वत्ता से महर्षि याज्ञवल्क्य को भी निरुत्तर कर दिया था। अपने पति की पराजय से दु:खी होकर मण्डन मिश्र की पत्नी ने शंकराचार्य जी से घण्टों शास्त्रार्थ किया था। स्त्री-शिक्षा और सह-शिक्षा के प्रचलन से देश में स्वस्थ वातावरण था। एवं लोगों के आचरण शुद्ध थे।
सह-शिक्षा के समर्थन में दूसरा अकाट्य तर्क यह दिया जाता है कि यदि स्त्रियों की शिक्षा के लिये अलग-अलग कॉलिजों की स्थापना की जाये तो उनमें लड़कियों की संख्या पर्याप्त नहीं हो सकेगी और इतनी योग्य और विदुषी अध्यापिकाओं का मिलना भी असम्भव है क्योंकि अभी तक हमारे देश में स्त्री शिक्षिकाओं की बहुत कमी है। कुछ विषय तो ऐसे हैं, जिनके पढ़ाने के लिए अध्यापिकायें बहुत कम मिलती हैं, जैसे—गणित, साइंस, इन्जीनियरिंग इत्यादि। फिर भी यदि उन संस्थाओं में पुरुष पढ़ायें, तो वह प्रयोजन पूरा नहीं होता, जिस उद्देश्य से वे शिक्षा संस्थायें पृथक् खोली गई हैं। इस प्रकार महिलाओं के लिये पृथक् संस्था खोलने से देश के धन का अपव्यय होगा। भारतवर्ष एक निर्धन देश है। फिर भी नागरिकों को शिक्षित करना शासन का कर्तव्य है। शिक्षा योजना की सफलता के लिये यह उचित ही है कि लड़के-लड़कियों का अध्ययन एक साथ हो।
तीसरा तर्क यह है कि लड़के-लड़कियों के एक साथ रहने से उनके स्वाभाविक गुणों का विकास होता है। उनमें सभ्यता, शिष्टता और शुद्ध आचरण का उदय होता है एवं परस्पर सहृदयता और सहानुभूति के भाव उत्पन्न होते हैं। वे एक-दूसरे से बहुत परिचित हो जाते हैं। लड़के-लड़कियों को उपस्थिति में उचित व्यवहार करना सीख जाते हैं। लडकियाँ भी लड़कों की उपस्थिति में सौम्य और शान्त रहना सीख जाती हैं तथा उनमें व्यवहार-कुशलता, वीरता और साहस आदि भाव आ जाते हैं सह शिक्षा वाले विद्यालयों के छात्र-छात्रायें अधिक परिष्कृत रुचि के हो जाते हैं। नित्य प्रति एक दूसरे से मिलने के कारण पारस्परिक आकर्षण समाप्त हो जाता है। यदि कोई वस्तु छिपाकर ख जाती है तो उसको देखने वालों का आकर्षण स्वतः ही बढ़ता है और जिस वस्तु के सम्पर्क में हम नित्य आते हैं उसमें न कोई नवीनता होती है और न कोई आकर्षण। इस प्रकार सह-शिक्षा से छात्र-छात्राओं में नैतिक उत्थान ही होगा। जिन स्कूलों व कॉलिजों में सह-शिक्षा नहीं होती, वे छात्र और छात्राएं बड़े संकोची और झेंपू किस्म के होते हैं। लड़कियाँ लड़कों से कतराती हैं। इस प्रकार दोनों का समुचित व्यक्तित्व विकसित नहीं हो पाता।
भारतीय संविधान में नारी को पुरुषों के समान ही अधिकार दिये गये हैं, वैसे भी आज का युग समानता का युग है परन्तु यह अधिकार तभी सफल हो सकता है, जब छात्र और छात्रायें शिक्षा काल में साथ उठें बैठें, साथ पढ़े अर्थात एक-दूसरे के सम्पर्क में आयें, तभी भावी जीवन में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर देश-हित में कार्य कर सकती हैं। दूसरे, साथ-साथ पढ़ने से लड़के और लड़कियाँ एक-दूसरे के स्वभाव से परिचित हो जाते हैं। कभी-कभी वे अपना जीवन साथी भी स्वतः हूँढने में सफल हो जाते हैं। इस प्रकार, समाज की दहेज आदि बहुत-सी कुरीतियाँ स्वयं नष्ट हो जाती हैं। ऐसी गुणवती स्वयंवरा कन्यायें माता-पिता पर भार नहीं बनतीं। तीसरी बात यह है कि पारस्परिक प्रतिद्वन्द्विता के कारण छात्र तथा छात्रायें एक-दूसरे से आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं। छात्र को सदैव यह ध्यान बना रहता है कि कहीं लड़की मुझसे ज्यादा नम्बर न ले आये, इस कारण वह और भी अधिक परिश्रम करता है, इसी प्रकार लड़कियाँ भी अधिक परिश्रम करती हैं। अपने से अधिक सुन्दर सिद्ध करने के लिये दोनों ओर से अनेक सौन्दर्य प्रसाधन काम में लाये जाते हैं, जिससे स्वच्छता की भावना बढ़ती है। यह सह-शिक्षा के समर्थकों का चौथा तर्क है। इसी प्रकार के और भी अनेक लाभ बताये जाते हैं।
सह-शिक्षा के विरोध में विचार प्रकट करने वालों का सबसे पुष्ट तर्क यह है कि लड़के और लड़कियों का भावी जीवन नितान्त भिन्न है, इसीलिए उनकी शिक्षा की व्यवस्था भिन्न होनी चाहिये। लड़कियों के लिये गृह-विज्ञान, शिशु-पालन तथा आरोग्य शास्त्र, इत्यादि विषयों को पढ़ना आवश्यक है जबकि लड़कों के लिए इन विषयों की कोई आवश्यकता नहीं है। इतिहास, भूगोल, गणित आदि की शिक्षा लड़कियों के लिये जीवनोपयोगी शिक्षा नहीं है। आधुनिक शिक्षा लड़कियों के लिए अधूरी शिक्षा है इससे उनको कोई लाभ नहीं। इस प्रकार सह-शिक्षा का कोई प्रयोजन ही नहीं। वास्तव में, स्त्री और पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। उनकी शिक्षा भी ऐसी होनी चाहिये जो उनके पूरक बनने में सहायक हो सके। सह-शिक्षा में दोनों को एक-सी शिक्षा मिलने से दोनों में एक से गुणं ही विकसित होंगे। इस प्रकार वे एक-दूसरे के पूरक न बनकर एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी बन जायेंगे।
सह शिक्षा के विरोध में तर्क : विरोधियों का कथन है कि सह-शिक्षा नैतिक पतन में सहायक है। जब लड़के हर समय सुन्दर-सुन्दर लड़कियों को देखेंगे तब दर्शन के पश्चात् स्पर्श की इच्छा उत्पन्न होना स्वाभाविक है। स्पर्श के अनन्तर हृदय में आलिंगनादि वासनाजन्य भावनाओं का अवश्य ही आविर्भाव होगा। प्रारम्भ में भाई और बहन के कृत्रिम सम्बन्ध एक प्रेमी और प्रेमिका के रूप में परिवर्तित होते देखे गये हैं। आज भी जहाँ सह-शिक्षा चल रही है। वहाँ प्रेम-विवाह और स्वेच्छाचारिता की घटनायें नित्य सुनने को मिलती हैं। ललनाओं के लावण्य ने अनेक सिद्ध तपस्वियों के आसन हिला दिये हैं। आग और फूस का बैर सृष्टि के आरम्भ से चल रहा है। स्त्रियाँ साक्षात् अग्नि शिखा है। स्पर्श करने वाला जलेगा न तो और क्या होगा। विश्वामित्र जैसे ऋषि मेनका को देखकर जब अपने ऊपर नियन्त्रण न रख सके तब आज का नवयुवक कैसे यह सब कुछ सहन कर सकता है। गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि
"दीप-शिखा सम युवति जन, मन जसि होत पतंग"
प्राचीन काल में बालक-बालिकाओं के साथ अध्ययन करने का कहीं भी स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता। प्राचीन ऋषियों ने तो यहाँ तक लिखा है कि ब्रह्मचर्यावस्था में ब्रह्मचारी को स्त्री के दर्शन भी नहीं करने चाहियें। तब यह कैसे सत्य मान लिया जाये कि प्राचीन गुरुकुलों में सह-शिक्षा की व्यवस्था थी। कबीर ने नारी को विष की खान माना है। वे कहते हैं
"नारी की छाँई परत, अन्धा होत भुजंग।
कह कबीर तिन हाल क्या, जो नित नारी के संग ।।"
मनुस्मृति में मनु ने स्पष्ट लिखा है कि विवाह से पूर्व किशोर आयु के बालक और बालिकाओं को एकदूसरे से दूर रखना चाहिये और उनकी शिक्षा-दीक्षा भी पृथक् होनी चाहिये। उनका कथन है कि कुमारावस्था की शक्तियों का प्रयोग कठोरता के साथ विद्योपार्जन के लिए ही किया जाना चाहिये, यह मानव जीवन में साधना का समय है। सह-शिक्षा से यह अमूल्य काल प्रेम-लीलाओं में व्यतीत हो जायेगा। नवयुवकों के चरित्र दूषित हो जायेंगे और वे अपने उद्देश्य से विचलित होकर पथ-भ्रष्ट हो जायेंगे।
जहाँ सह-शिक्षा से राष्ट्र के धन की बचत है, वहाँ चारित्रिक पतन से कई गुनी अधिक हानि है। किसी विद्वान् की उक्ति है
“अक्षीणो वित्ततः क्षीण वृत्ततस्तु हतोहतः"
अर्थात्, धन की हानि कोई विशेष महत्त्व नहीं रखती, परन्तु चरित्र की हानि मनुष्य को समूल नष्ट कर देती है। दूसरे, भारतवर्ष गर्म देश है, यहाँ कैन्यायें युवावस्था शीघ्र प्राप्त कर लेती हैं। ठण्डे देशों में 24, 25 वर्ष तक तो साधारण बचपन ही रहता है परन्तु यहाँ इतनी अवस्था तक युवावस्था आकर लौटने की भी प्रतीक्षा करने लगती है। दूसरी बात यह है कि कुछ प्रसंग श्रृंगार रस के ऐसे आते हैं कि अध्यापक भी उन्हें स्पष्ट रूप से नहीं पढ़ा सकते। कक्षा में भी लड़के और लडकियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध रहते हैं। सीट्स भी अलग-अलग रखी जाती हैं। दोनों एक-दूसरे से संभाषण तक नहीं कर सकते। फलस्वरूप दोनों ओर आकर्षण बढता है।
निष्कर्ष : इस प्रकार पक्ष और विपक्ष के तर्कों पर विचार करने के पश्चात भारतीय विद्वानों ने यह निश्चय किया है कि ग्यारह वर्ष तक की छात्रायें छात्रों के साथ अध्ययन कर सकती हैं, क्योंकि तब तक उनमें किशोरावस्था की प्रवृत्तियों उत्पन्न नहीं होती हैं। ग्यारह वर्ष के पश्चात सत्रह वर्ष की आयु तक छात्र-छात्राओं की शिक्षा पृथक्-पृथक् शिक्षा संस्थाओं में होनी चाहिए, क्योंकि इस अवस्था में ही भावनाओं का आवेग अधिक होता है, ज्ञान की मात्रा कम। अट्ठारह वर्ष से छात्र-छात्राओं की शिक्षा पुनः एक साथ हो सकती है, क्योंकि इस अवस्था तक दोनों में ही अपना हित-अहित विचार करने की क्षमता आ जाती है। सह-शिक्षा और पृथक शिक्षा के बीच का यह मार्ग आधुनिक विद्वानों को मान्य है। इसी मध्य मार्ग का अनुसरण करने से सम्भव है कि हानि कम हो और लाभ अधिक।
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