मित्रता पाठ का सारांश - आचार्य रामचंद्र शुक्ल : मित्रता आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखित प्रसिद्ध निबंध है, जिसे उन्होंने जीवनोपयोगी विषय पर लिखा है, जिसमें इनकी लेखन-शैली संबंधी अनेक विशेषताओं के दर्शन हो जाते हैं। शुक्ल जी ने मित्रता के संबंध में बताते हुए कहा है कि जब कोई युवक किशोरावस्था में घर से बाहर जाता है, उसे मित्र चुनने में कठिनाई होती है। यदि उसका व्यवहार मेल-मिलाप वाला होता है, तो उसकी लोगों से जान-पहचान बढ़ जाती है जो बाद में मित्रता का रूप धारण कर लेती है। मित्रों के चुनाव पर उसके जीवन की सफलता निर्भर होती है क्योंकि अच्छे व बुरे मित्रों की संगति ही उसे अच्छा व बुरा बना सकती है।
मित्रता पाठ का सारांश - आचार्य रामचंद्र शुक्ल
मित्रता आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा
लिखित प्रसिद्ध निबंध है, जिसे उन्होंने जीवनोपयोगी विषय पर लिखा है, जिसमें इनकी लेखन-शैली संबंधी अनेक विशेषताओं के दर्शन हो जाते हैं। शुक्ल जी ने मित्रता के संबंध में बताते हुए कहा है कि जब कोई युवक
किशोरावस्था में घर से बाहर जाता है, उसे मित्र चुनने में कठिनाई होती है। यदि उसका व्यवहार मेल-मिलाप वाला होता है, तो उसकी लोगों से जान-पहचान बढ़ जाती
है जो बाद में मित्रता का रूप धारण कर
लेती है। मित्रों के चुनाव पर उसके जीवन की सफलता निर्भर होती है क्योंकि अच्छे व बुरे मित्रों की संगति ही उसे अच्छा व बुरा बना सकती है। युवा लोग
मित्र बनाने से पहले मित्रों के आचरण व प्रकृति का ध्यान नहीं रखते, वे केवल उनकी बाहरी विशेषताओं पर मुग्ध हो जाते हैं, जबकि मनुष्य अगर घोड़ा भी खरीदता है तो उसके गुण-दोषों को परख लेता है। किसी प्राचीन विद्वान ने कहा भी है ‘‘विश्वासपात्र मित्र से बड़ी रक्षा रहती है।’’ जिसे ऐसा मित्र मिल जाए उसे समझना चाहिए कि खजाना मिल गया।
जब व्यक्ति छात्रावास में रहता है तब उस पर मित्र बनाने की धुन सवार
रहती है। बचपन की मित्रता भी अद्भुत है उसमें जितनी जल्दी दूसरे की बातें मन को लगती हैं, उतनी जल्दी ही रूठना मनाना भी हो जाता
है। मित्रता व प्रेम के लिए यह आवश्यक नहीं है कि दो लोगों के आचरण व स्वभाव में समानता हो जैसे राम
और लक्ष्मण के स्वभाव एक दूसरे से विपरीत थे, परंतु दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था। उसी तरह कर्ण और दुर्योधन के
स्वभाव में विपरीतता होने के बाद भी दोनों में गहरी मित्रता थी। इसी प्रकार चाणक्य व चंद्रगुप्त, अकबर व बीरबल आदि अनेक उदाहरण हैं।
मित्र का परम कर्तव्य अपने मित्र की
सहायता व उसे विकास के लिए प्रोत्साहित करना है। हमें ऐसे ही मित्रों की खोज करनी
चाहिए, जो हमारे शुभचिंतक हों जैसे
राम व सुग्रीव। यदि कोई हमारे भले बुरे के बारे में हमें सचेत न कर सके तो हमें
उससे दूर ही रहना चाहिए। ऐसे युवक जो आवारागर्दी करते
हैं उनसे शोचनीय जीवन किसी और का नहीं है। क्योंकि उन्हें फूल-पत्तियों, झरनों की कल-कल की आवाज आदि में कोई
सौंदर्य नजर नहीं आता है। जो दिन-प्रतिदिन विषयवासनाओं में लिप्त रहता है और जिनके हृदय में केवल बुरे विचार ही उठते हैं ऐसे युवकों का
भविष्य अंधकारमय होता है, अत: हमें ऐसे लोगों की मित्रता से दूर रहना चाहिए। बुरी संगति बहुत भयानक होती है क्योंकि
यह व्यक्ति के सभी सद्गुणों का नाश कर देती है और दिन-प्रतिदिन मनुष्य को पतन के गड्ढे में गिरा देती है। इसके
विपरीत अच्छी संगति मनुष्य को पतन के गड्ढे से बाहर निकालने वाली बाहु के समान होगी।
शुक्ल जी कहते हैं कि इंग्लैंड
का एक विद्वान इस बात के लिए हमेशा खुश होता था कि उसे युवावस्था में राजदरबार में स्थान नहीं मिला क्योंकि
वहाँ के लोगों की बुरी संगति उसके आध्यात्मिक विकास में बाधक होती। लेखक कहते हैं कि अश्लील व फूहड़ बात करने वालों
को तुरंत रोक देना चाहिए। यदि तुम सोचोगे कि तुम्हारे चरित्र के प्रभाव के कारण वह स्वयं चुप हो जाएगा
तो ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि एक बार मनुष्य जब बुराई की तरफ बढ़ता है तो वह नहीं देखता कि वह कहाँ जा रहा है और उस
बुराई के प्रति धीरे-धीरे तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। अंत में तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। इसलिए मन को स्वच्छ
और उज्ज्वल रखने का सर्वोत्तम उपाय बुरी संगति से दूर रहना है क्योंकि काजल की कोठरी में कितना भी चतुर
व्यक्ति प्रवेश करे, उसे कालिख लग ही जाती है।
Nice summary
Deletenot that good
Deleteok ok
Deletegood
DeleteMy favorite writer😊
DeleteVery very nice.
जबसे इस निबंध को पढ़ा है मैं लेखक जी का फन हो गया... और तभी से मुझे हिंदी साहित्य से बहुत प्रेम हो गया