शेरपा तेनजिंग नोर्गे की जीवनी। Sherpa Tenzing Biography in Hindi : शेरपा तेनजिंग, हिमालय की गोद में पले एक साद्दारण व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने आत्म-विश्वास के बल पर असम्भव को सम्भव कर दिखाया। तेन्जिंग का जन्म उत्तरी नेपाल में थेम नामक स्थान पर 1914 में एक शेरपा बौद्ध परिवार में हुआ था। हालाँकि उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिला फिर भी वे कई भाषाएँ बोल सकते थे। वे बचपन से ही हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों पर घूमने के स्वप्न देखा करते थे। तेनजिंग को पर्वतारोहण का पहला मौका सन् 1935 ई0 में मिला। उस समय वे मात्र इक्कीस वर्ष के थे। उन्हें अंग्रेज पर्वतारोही शिष्टन के दल के साथ कार्य करने के लिए चुना गया। काम मुश्किल था। बार-बार नीचे के शिविर से ऊपर के शिविर तक भारी बोझ लेकर जाना होता था।
शेरपा तेनजिंग नोर्गे की जीवनी। Sherpa Tenzing Biography in Hindi
‘‘प्रातः काल मौसम बिल्कुल साफ था, वे चल पड़े। जैसे-जैसे वे चढ़ाई चढ़ रहे थे, साँस लेने में कठिनाई हो रही थी। वे प्यास से बेहाल थे। अब केवल 300 फुट की चढ़ाई बाकी थी। उनके सामने सबसेे बड़ी चुनौती थी, एक बड़ी सी खड़ी चट्टान को पार करना। इसे पार करते समय बर्फ खिसकने का खतरा था। मगर उनके हौंसले और दृढ़-संकल्प के आगे चट्टान को भी घुटने टेकने पड़े।’’
नाम
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शेरपा
तेनजिंग नोर्गे
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वास्तविक नाम
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नांगयाल वंगड़ी
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जन्म
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29 मई 1914
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राष्ट्रीयता
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नेपाली
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व्यवसाय
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पर्वतारोही,
टूर गाइड
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जीवनसाथी
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दावा फुटी,
अंग लहमू, डक्कु
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बच्चे
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पेम पेम, नीमा, जमलिंग और नोरबू
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मृत्यु
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9 मई,
1986
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शेरपा तेनजिंग, हिमालय की गोद में पले एक साद्दारण व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने आत्म-विश्वास के बल पर असम्भव को सम्भव कर दिखाया। तेन्जिंग का जन्म उत्तरी नेपाल में थेम नामक स्थान पर 1914 में एक शेरपा बौद्ध परिवार में हुआ था। हालाँकि उन्हें पढ़ने-लिखने का अवसर नहीं मिला फिर भी वे कई भाषाएँ बोल सकते थे। वे बचपन से ही हिमालय की ऊँची-ऊँची चोटियों पर घूमने के स्वप्न देखा करते थे।
तेनजिंग का बचपन : तेनजिंग का बचपन याकों के विशाल झुण्डों की रखवाली में बीता। याकों से वस्त्रों के लिए ऊन, जूतों के लिए चमड़ा, ईंद्दन के लिए गोबर तथा भोजन के लिए दूध, मक्खन एवं पनीर मिलता था। पहाड़ों की ढलानों पर चराते-चराते वे याकों को अट्ठारह हजार फुट की ऊँचाई पर ले जाया करते थे, जहाँ दूर-दूर तक हिममण्डित ऊँची-ऊँची चोटियाँ दिखाई पड़ती थीं। उनमें सबसे उन्नत चोटी थी-‘शोभो लुम्मा’। उनके देशवासी एवरेस्ट को इसी नाम से पुकारते थे। ‘शोभो लुम्मा’ के बारे में यह बात प्रचलित थी कि कोई पक्षी भी इसके ऊपर से उड़ नहीं सका है। तेनजिंग इस अजेय पर्वत-शिखर पर चढ़ने और इस पर विजय प्राप्त करने का सपना देखने लगे। धीरे-धीरे यह स्वप्न उनके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा बन गयी।
पर्वतारोहण का पहला अनुभव : तेनजिंग को पर्वतारोहण का पहला मौका सन् 1935 ई0 में मिला। उस समय वे मात्र इक्कीस वर्ष के थे। उन्हें अंग्रेज पर्वतारोही शिष्टन के दल के साथ कार्य करने के लिए चुना गया। काम मुश्किल था। बार-बार नीचे के शिविर से ऊपर के शिविर तक भारी बोझ लेकर जाना होता था। अन्य शेरपाओं की तरह वे भी बोझ ढोने के अभ्यस्त थे। पहाड़ों पर चढ़ने का यह उनका पहला अनुभव था। कई बातें बिल्कुल नई और रोमांचक थी। उन्हें विशेष प्रकार के कपड़े, जूते और चश्मा पहनना पड़ता था और टीन के डिब्बों में बन्द विशेष प्रकार का भोजन ही करना होता था। उनका बिस्तर भी अनोखा था। देखने में यह एक बैग जैसा प्रतीत होता था। उन्होंने चढ़ने की कला में भी बहुत कुछ नई बातें सीखीं। नवीन प्रकार के उपकरणों के प्रयोग, रस्सी व कुल्हाडि़यों का उपयोग और मार्गों को चुनना आदि ऐसी ही बातें थी, जिन्हें जानना आवश्यक था।
एवरेस्ट पर्वतारोहण सपना का सच हुआ : सन् 1953 ई0 में तेनजिंग को मौका मिला कि वह अपना बचपन का सपना पूरा कर सकें। उन्हें एक ब्रिटिश पर्वतारोही दल में सम्मिलित होने का आमंत्रण मिला। दल का नेतृत्व कर्नल हंट कर रहे थे। इस दल में कुछ अंग्रेज और दो न्यूजीलैंड वासी थे, जिनमें एक एडमंड हिलेरी थे।
वे अभियान की तैयारी में जुट गए। उन्होंने स्वस्थ रहने के लिए भरपूर प्रयास किया। वे प्रातःकाल उठकर पाषाण-खंडों से एक बोरा भरते और इसे लेकर पहाडि़यों पर ऊपर-नीचे चढ़ने-उतरने का अभ्यास करते रहे। उन्होंने ‘करो या मरो’ का दृढ़ संकल्प कर लिया था। दार्जिलिंग से प्रस्थान करने के लिए मार्च 1953 की तिथि निश्चित हुई। उनकी पुत्री नीमा ने साथ ले जाने के लिए एक लाल-नीली पेन्सिल दी, जिससे वह स्कूल में काम करती थी। एक मित्र ने राष्ट्रीय-ध्वज दिया। तेनजिंग ने दोनों वस्तुएँ एवरेस्ट शिखर पर स्थापित करने का वचन दिया।
वे भरपूर आत्म-विश्वास एवं ईश्वर में दृढ़ आस्था के साथ 26 मई 1953 को प्रातः साढ़े छः बजे आगे बढ़े। सुरक्षा के लिए उन्होंने रेशमी, ऊनी और वायुरोधी तीनों प्रकार के मोजे पहन रखे थे। संयुक्त राष्ट्र संघ, ग्रेट ब्रिटेन, नेपाल और भारत के चार झण्डे उनकी कुल्हाड़ी से मजबूती से लिपटे हुए थे। उनकी जैकेट की जेब में उनकी पुत्री की लाल-नीली पेन्सिल थी।
जब केवल 300 फुट और चढ़ना शेष था तो एक बड़ी बाधा आयी। यह एक खड़ी चट्टान थी। पहले हिलेरी एक सँकरी और ढालू दरार से होकर इसकी चोटी पर पहुँचे फिर तेनजिंग ने यहाँ कुछ समय विश्राम किया। उनका लक्ष्य समीप था। हृदय उत्साह और उत्तेजना से भर उठा । वे चोटी के नीचे कुछ क्षण रुके.......ऊपर की ओर देखा और फिर बढ़ चले। तीस फुट की एक रस्सी के सिरे दोनों के हाथ में थे। उन दोनों में दो मीटर से अधिक अन्तर न था। धैर्य के साथ आगे बढ़ते हुए 29 मई, 1953 को प्रातः साढ़े ग्यारह बजे संसार के सर्वोच्च शिखर एवरेस्ट की चोटी पर पहुँच गए।
एवरेस्ट की चमकती चोटी पर खड़े तेनजिंग व हिलेरी का मन हर्ष एवं विजय की भावना से भर उठा। ऐसा दृश्य उन्होंने जीवन में कभी नहीं देखा था। वे अभिभूत हो उठे। तेनजिंग ने राष्ट्र ध्वज बर्फ में गाड़े और कुछ मिठाइयाँ व बेटी की दी हुई पेंसिल बर्फ में गाड़ दी। उन्होंने भगवान को धन्यवाद दिया और मन ही मन अपनी सकुशल वापसी की प्रार्थना की।
सम्मान और कीर्ति : एवरेस्ट से लौटने पर नेपाल नरेश ने उन्हें राजभवन में निमंत्रित किया और ‘नेपाल-तारा’ पदक पहनाया। भारत में भी उनका भव्य स्वागत हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने पर्वतारोहियों के सम्मान में एक स्वागत-समारोह आयोजित किया। 1959 ने भारत सरकार ने उन्हें पद्म भूषण से सम्मानित किया।
हिमालय माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट के निदेशक : 4 नवम्बर, 1954 ई0 को पण्डित नेहरू ने हिमालय माउंटेनियरिंग इंस्टीट्यूट का उद्घाटन किया। तेनजिंग ने विदेश जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किया और इस संस्थान के निदेशक बने। वे भारत के सद्भावना राजदूत भी रहे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने सलाहकार के रूप में अपने अनुभव से संस्थान को लाभान्वित किया।
उनके अदम्य साहस और संकल्प में दृढ़ता के कारण उन्हें ‘बर्फ का शेर’ कहा जाता है। मार्कोपोलो, कोलम्बस, वास्कोडिगामा, यूरी गागरिन, पियरी जैसे साहसिक अभियानों के नेतृत्वकर्ता की भाँति तेनजिंग का नाम भी सदैव इतिहास में अमर रहेगा।
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