प्राचीन भारत के महान खगोलविद् (वैज्ञानिक) आर्यभट्ट, वराहमिहिर, सवाई जयसिंह : हजारों वर्षों से वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्माण्ड के रहस्यों से पर्दा हटाने का प्रयास किया जा रहा है। नक्षत्रों, सूर्य, आकाशगंगाओं की उत्पत्ति, बनावट आदि विषयों पर निरन्तर खोज जारी है। आधुनिक वैज्ञानिकों के इन प्रयासों पर 2500 वर्ष पूर्व प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने अपने चिंतन द्वारा ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए हैं जिनसे लोग आज भी चकित हैं। भारतीय वैज्ञानिकों में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, सवाई जयसिंह आदि प्रमुख हैं। 1975 ई0 के 19 अप्रैल का दिन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दिन था। इस दिन भारत का सबसे पहला कृत्रिम उपग्रह छोड़ा गया। इसका नाम रखा गया आर्यभट्ट। इस उपग्रह के नाम से सम्बन्धित कहानी है एक महान गणितज्ञ और खगोल वैज्ञानिक की। जिसका नाम था आर्यभट्ट।
प्राचीन भारत के महान खगोलविद् (वैज्ञानिक) आर्यभट्ट, वराहमिहिर, सवाई जयसिंह
हजारों वर्षों से वैज्ञानिकों द्वारा ब्रह्माण्ड के रहस्यों से पर्दा हटाने का प्रयास किया जा रहा है। नक्षत्रों, सूर्य, आकाशगंगाओं की उत्पत्ति, बनावट आदि विषयों पर निरन्तर खोज जारी है। आधुनिक वैज्ञानिकों के इन प्रयासों पर 2500 वर्ष पूर्व प्राचीन भारतीय खगोलविदों ने अपने चिंतन द्वारा ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए हैं जिनसे लोग आज भी चकित हैं। भारतीय वैज्ञानिकों में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, सवाई जयसिंह आदि प्रमुख हैं।
आर्यभट्ट
1975 ई0 के 19 अप्रैल का दिन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दिन था। इस दिन भारत का सबसे पहला कृत्रिम उपग्रह छोड़ा गया। इसका नाम रखा गया आर्यभट्ट। इस उपग्रह के नाम से सम्बन्धित कहानी है एक महान गणितज्ञ और खगोल वैज्ञानिक की। जिसका नाम था आर्यभट्ट।
बचपन से ही आर्यभट्ट आकाश में तारों को अपलक निहारते रहते थे। उन्हें लगता कि आकाश में ढेरों रहस्य छिपे हैं। उनमें इन रहस्यों को जानने की इच्छा बलवती होती गए। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद उन्होंने शिक्षा के महान केन्द्र नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ वे खगोल विज्ञान पर जानकारियाँ जुटाने में लग गए। गहन अध्ययन के बाद उन्होंने "आर्यभट्टीय" नामक ग्रन्थ की रचना संस्कृत श्लोकों में की। यह ग्रन्थ खगोल विज्ञान की एक उत्कृष्ट रचना है।
पुस्तक से प्रभावित होकर तत्कालीन गुप्त शासक ’बुद्धदेव’ ने उन्हें नालन्दा विश्वविद्यालय का प्रद्दान (कुलपति) बना दिया।
उनके निष्कर्षों के प्रमुख तथ्य
- पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है, जिससे दिन और रात होते हैं।
- चन्द्रमा सूर्य के प्रकाश से चमकता है। उसका अपना प्रकाश नहीं है।
- सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण के समय राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा को निगल जाने की धारणा अंधविश्वास है।
- ग्रहण एक खगोलीय घटना है।
आगे चल कर आर्यभट्ट ने एक और पुस्तक ’आर्यभट्ट सिद्धान्त’ के नाम से लिखी। यह पुस्तक दैनिक खगोलीय गणनाओं और अनुष्ठानों (धार्मिक कृत्यों) के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग (कैलेण्डर) बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है। निःसन्देह आर्यभट्ट प्राचीन भारतीय विज्ञान और खगोलशास्त्र का प्रकाशवान नक्षत्र है।
वराहमिहिर की कहानी
सम्राट विक्रमादित्य ने एक बार अपने राज ज्योतिषी से राजकुमार के भविष्य के बारे में जानना चाहा। राज ज्योतिषी ने दुखी स्वर में भविष्यवाणी की कि अपनी उम्र के अठारहवें वर्ष में पहुँचने पर राजकुमार की मृत्यु हो जाएगी। राजा को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने आक्रोश में राज ज्योतिषी को कुछ कटुवचन भी कह डाले, लेकिन हुआ वही, ज्योतिषी के बताए गए दिन को एक जंगली सुअर ने राजकुमार को मार दिया। राजा और रानी यह समाचार सुनकर शोक में डूब गये। उन्हें राज ज्योतिषी के साथ किए अपने व्यवहार पर बहुत पश्चाताप हुआ। राजा ने ज्योतिषी को अपने दरबार में बुलवाया और कहा-“राज ज्योतिषी मैं हारा आप जीते।” इस घटना से राज ज्योतिषी भी बहुत दुखी थे। पीड़ा भरे शब्दों में उन्होंने कहा -“महाराज, मैं नहीं जीता । यह तो ज्योतिष और खगोलविज्ञान की जीत है।” इतना सुनकर राजा बोले-“ ज्योतिषी जी, इस घटना से मुझे विश्वास हो गया है कि आप का विज्ञान बिलकुल सच है। इस विषय में आपकी कुशलता के लिये मैं आप को मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ’वराह का चिह्न’ प्रदान करता हूँ। उसी समय से ज्योतिषी मिहिर को लोग वराहमिहिर के नाम से पुकारने लगे।
वराहमिहिर के बचपन का नाम मिहिर था। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा अपने पिता से मिली। एक बार महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट पटना (कुसुमपुर) में कार्य कर रहे थे। उनकी ख्याति सुनकर मिहिर भी उनसे मिलने पहुँचे। वह आर्यभट्ट से इतने प्रभावित हुए कि ज्योतिष और खगोल ज्ञान को ही उन्हांेने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। मिहिर अपनी शिक्षा पूरी करके उज्जैन आ गए। यह विद्या और संस्कृति का केन्द्र था।उनकी विद्वता से प्रभावित होकर गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने मिहिर को अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया और उन्होंने ’राज ज्योतिषी’ घोषित कर दिया।
वराहमिहिर वेदों के पूर्ण जानकार थे। हर चीज को आँख बन्द करके स्वीकार नहीं करते थे। उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक था। वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकोलॉजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलॉजी) और भू-विज्ञान (जिओलॉजी) के सम्बन्ध में कुछ महŸवपूर्ण तथ्य उजागर कर आगे के लोगों को इस विषय में चिन्तन को एक दिशा दी।
वराहमिहिर द्वारा की गयी प्रमुख टिप्पणियाँ-
"कोई न कोई ऐसी शक्ति जरूर है जो चीजों को जमीन से चिपकाये रखती है।" (बाद में इसी कथन के आधार पर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज की गयी)
"पौधे और दीमक इस बात की ओर इंगित करते हैं कि जमीन के नीचे पानी है।"
वराहमिहिर की प्रमुख रचनाएँ-
- पंच सिद्धान्तिका
- बृहतसंहिता
- बृहज्जाक
अपनी पुस्तकों के बारे में वराहमिहिर का कहना था- “ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इससे आसानी से पार नहीं पा सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढे़गा उसे यह पार ले जायेगी।” उनका यह कथन कोरी शेखी नहीं है, बल्कि आज भी ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी पुस्तक को ’’ग्रन्थरत्न’’ समझा जाता है।
सवाई जयसिंह की कहानी
ऊबड़-खाबड़ पहाडि़यों पर बने आमेर किले के ऊपर आकाश बड़ा सम्मोहक लग रहा था। किले की छत से एक राजकुमारी और राजा आकाश में खिले चाँद-तारों को देख रहे थे। आकाश को निहारते हुये राजकुमारी ने पूछा “तारे और चन्द्रमा यहाँ से कितनी दूर हैं ?” हालाँकि राजा को खगोलशास्त्र में रुचि थी, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके। राजा ने तय किया कि वे इस प्रश्न के उत्तर की खोज अवश्य करेंगे। यह उनके जीवन की परिवर्तनकारी घटना साबित हुई। बाद में सवाई जयसिंह महान खगोलविद् और गणितज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हुए।
सवाई जयसिंह ने 13 वर्ष की उम्र में आमेर की राजगद्दी सँभाली। पहले इनका नाम जयसिंह था।उन्होंने 1701 में मराठों को युद्ध में हराकर विशालगढ़ जीत लिया था। उनकी इस विजय पर खुश होकर औरंगजेब ने उन्हें सवाई की उपाधि से सम्मानित किया। ’सवाई’ का अर्थ है वह एक व्यक्ति जो क्षमता में दूसरों से सवाया हो।
धीरे-धीरे राजा जयसिंह ने अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत कर ली। साथ में खगोलविद् और वास्तुकार के रूप में भी ख्याति प्राप्त की। वे खगोलविदों को दरबार में निमंत्रण देते और गोष्ठियाँ करवाते। उनका लक्ष्य खगोलशास्त्र का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना था। राजा जयसिंह ने खगोल पर पुस्तकें, संहिताएँ, सारणियाँ और सूची इत्यादि पुर्तगाल, अरब और यूरोप से इकट्ठा कीं। कई पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद कराया और उन्हें संस्कृत में नाम भी दिये।
कुछ अनुवादित संस्कृत पुस्तकें-पुस्तक का नाम संस्कृत अनुवाद
- टालेमी की एलमाजेस्ट - सिद्धान्त सूरी कौस्तम
- उलुगबेग की जिजउलुगबेगी - तुरूसुरणी
- ला हीरे की टैबलि एस्ट्रोनामिका - मिथ्या जीव छाया
राजा सवाईं जयसिंह ने खगोलीय पर्यवेक्षणों के लिये यूरोप से दूरबीन मँगाई और फिर यहाँ दूरबीनों का निर्माण शुरू कर दिया। सन् 1724 ई0 में दिल्ली में एक वेधशाला का निर्माण किया गया। इसे नाम दिया गया- जन्तर-मन्तर । इसे बनाने में राजा जयसिंह ने पंडित विद्याधर भट्टाचार्या से सलाह ली। बाद में इन्होंने जयपुर शहर की डिजाइन बनाने में भी सहायता की। उन दिनों यूरोप में पीतल के छोटे उपकरणों का प्रचलन था, परन्तु राजा जयसिंह ने ईंट-चूने के विशाल उपकरण बनवाए।
राजा सवाईं जयसिंह की वेधशाला में उन लोगों का स्वागत था जो खगोल विज्ञान पढ़ना चाहते थे। जन्तर-मन्तर बनवाने का उद्देश्य विज्ञान को लोकप्रिय बनाना था। यह उस समय और भी महत्वपूर्ण था क्योंकि तब अपने देश में विज्ञान प्रयोगशालाओं का अभाव था।
सवाईं जयसिंह ने गहन अध्ययन व शोध के बाद खगोल विज्ञान के क्षेत्र में कई नई जानकारियाँ दीं। जयपुर व दिल्ली की वेधशाला (जन्तर-मन्तर) उनका अनुपम उपहार है।
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