भगवान श्री कृष्ण का जीवन परिचय। Lord Shri Krishna ka Jivan Parichay
नाम
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श्रीकृष्ण
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जन्म
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अष्टमी
तिथि, कृष्ण पक्ष, भाद्रपद मास
18
फरवरी 3102 ईसापूर्व
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जीवन काल
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125 वर्ष
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माता-पिता
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वसुदेव
और देवकी
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पालक माता-पिता
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यशोदा
और नन्द
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पत्नी
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सत्यभामा,
जाम्बवंती, रूक्मिणी आदि
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उत्तराधिकारी
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प्रद्युम्न
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भगवान् कृष्ण को भगवान् विष्णु का आँठवा अवतार माना जाता है उनका जन्म द्वापरयुग में हुआ था। कृष्ण के समकालीन महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद्भागवत और महाभारत में कृष्ण के चरित्र वर्णन किया गया है। कृष्ण को अक्सर मोर-पंख वाले पुष्प या मुकुट पहनकर चित्रित किया जाता है, और अक्सर बांसुरी (भारतीय बांसुरी) बजाते हुए उनका चित्रण हुआ है।
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भगवान श्री कृष्ण |
भागवत पुराण में यह कहा गया है - द्वापरयुग में भोजवंशी राजा उग्रसेन मथुरा में राज करते थे। उनका एक क्रूर पुत्र कंस था और उनकी एक बहन देवकी थी। कंस ने अपने पिता को कारगर में डाल दिया और स्वयं मथुरा का राजा बन गया। देवकी का विवाह वसुदेव के साथ हुआ था। कंस ने जब यह भविष्यवाणी सुनी कि उसका वध देवकी के आठवें बेटे के हाथों होगा तो उसने देवकी और वसुदेव को कारागार में डाल दिया और उनके छ: बेटों की जन्म होते ही हत्या कर दी। बलराम इनके सातवें पुत्र थे।
भगवान् कृष्णा का जन्म : भगवान श्रीकृष्ण का जन्म देवकी के गर्भ से मथुरा के राजा कंस के कारागार में हुआ। कंस से रक्षा करने के लिए जब वासुदेव जन्म के बाद आधी रात में ही उन्हें यशोदा के घर गोकुल में छोड़ आए तो उनका पालन पोषण यशोदा ने किया। लौटते समय वसुदेव यशोदा की कन्या महामाया को अपने साथ लेते आए। कहते हैं कि जब कंस ने उसको मारने की चेष्टा की तो वह हाथ से छूट गई और आकाश की ओर जाते हुआ उसने भविष्यवाणी कि तुझे मारनेवाला तो गोकुल में जन्म ले चुका है।
जब कंस को पता चला कि देवकी का आठवाँ पुत्र गायब हो चुका है तो उसने वसुदेव और देवकी को कारागार से मुक्त कर दिया। मुक्त होने के बाद वे लोग मथुरा में रहने लगे।भारत के प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में बालक कृष्ण की लीलाओं के अनेक वर्णन मिलते हैं। जिनमें यशोदा को ब्रह्मांड के दर्शन, माखनचोरी और उसके आरोप में ओखल से बाँध देने की घटनाओं का सूरदास ने सजीव वर्णन किया है। यशोदा ने बलराम के पालन पोषण की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
श्रीकृष्ण का बचपन : श्रीकृष्ण बाल्यावस्था से ही इतने पराक्रमी और साहसी थे कि उनके द्वारा किए गए कार्यों को देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे और उन्हें अलौकिक मानने लगे थे। कंस अपनी सुरक्षा के लिए कृष्ण का अन्त करना चाहता था। इस कार्य के लिए उसने जिन लोगों को भेजा उन सबका श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही वध कर दिया। कभी तो वे अपनी बाँसुरी के मधुर स्वर से सभी को आत्मिक सुख प्रदान करते दिखायी पड़ते तो कभी कंस के अत्याचारों से गोकुलवासियों की रक्षा करते हुए लोकहित में प्रवृत्त दिखायी देते। श्रीकृष्ण को अध्ययन करने हेतु सन्दीपन गुरु के आश्रम भेजा गया। गुरुकुल में कृष्ण ने अपने गुरु की सेवा करते हुए विद्या प्राप्त की।
कंस का वध : कंस के स्वेच्छाचारी एवं क्रूर शासन के कारण प्रजा में व्यापक असन्तोष था। गोकुल में श्रीकृष्ण के नेतृत्व में कंस के अत्याचारी शासन का विरोध आरम्भ हो गया। कंस इस स्थिति को जानता था। उसने कृष्ण के वध का षड्यन्त्र रचा और अक्रूर द्वारा श्रीकृष्ण को बुलवाया। गोकुलवासियों को कंस पर सन्देह था। वे नहीं चाहते थे कि श्रीकृष्ण मथुरा जाकर कंस के जाल में फँसे। श्रीकृष्ण ने तो अत्याचारियों का अन्त करने का संकल्प ही कर लिया था, अतः वे अपने बड़े भाई बलराम के साथ मथुरा आ पहुँचे। योजनानुसार मथुरा में मल्लयुद्ध आरम्भ हुआ। श्रीकृष्ण ने मल्लयुद्ध में कंस के चुने हुए पहलवानों को पराजित किया और अन्त में उन्होंने कंस को मार डाला।
महाभारत युद्ध को रोकने का प्रयास: उस समय हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र का राज्य था। वहाँ के राज परिवार में कौरव और पाण्डवों के बीच कलह चल रही थी। कौरव पाण्डवों को उनका अधिकार देने के लिए कौरव कदापि तैयार नहीं थे। इस कलह को रोकने के लिए श्रीकृष्ण ने बहुत प्रयास किया। वे पाण्डवों की ओर से सन्धि का प्रस्ताव लेकर कौरवों के पास गए थे।
श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र से निवेदन किया, ‘‘महाराज! वीरों का विनाश हुए बिना ही कौरवों और पाण्डवों में सन्धि हो जाए, मैं यही प्रार्थना करने आया हूँ।’’
श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र के निरंकुश पुत्र दुर्योधन को भी समझाते हुए कहा, ‘‘ हे तात! सन्धि से ही तुम्हारा और जगत का कल्याण होगा।’’
लेकिन दुर्योधन अपने इसी हठ पर डटा रहा कि मैं युद्ध के बिना सुई की नोंक के बराबर भी भूमि पाण्डवों को नहीं दूँगा। इस प्रकार श्रीकृष्ण का सन्धि प्रयास असफल हो गया। परिणामस्वरूप दोनों कौरवों एवं पाण्डवों में भयंकर युद्ध हुआ जिसे महाभारत युद्ध के नाम से जाना जाता है।
महाभारत युद्ध के दौरान अर्जुन को गीता का उपदेश
महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने। अर्जुन राज्य और सुख के लिए अपने गुरु तथा कुल के लोगों से युद्ध करने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्हें अपने स्वजनों को देखकर मोह उत्पन्न हो गया। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपने कर्त्तव्य के लिए प्रेरित किया। उन्होंने कहा कि आत्मा, अजर और अमर है। जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्र ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण शरीर को छोड़कर नये शरीर में प्रवेश करती है। इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी गला सकता है और न वायु सुखा सकती है। अतः प्रत्येक मनुष्य को फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है। यही कर्मयोग है। कृष्ण के उपदेश गीता के अमृत वचन हैं।
गीता में श्रीकृष्ण ने कर्म का जो महामन्त्र दिया है, वह मानव समाज के लिए वरदान है। इस पर मनन कर मनुष्य सांसारिक सुख से ऊपर उठकर कर्म करने की प्रेरणा प्राप्त करता है जो जीवन का वास्तविक सुख है। गीता वास्तव में भारतीय चिन्तन और धर्म का निचोड़ है और इसमें सारे संसार तथा समस्त मानव जाति को एक सूत्र में बाँधने की पूर्ण क्षमता है।
श्रीकृष्ण के उपदेश सुनकर अर्जुन को अपने कर्तव्य का ज्ञान हुआ और उसने वीरतापूर्वक युद्ध किया। श्रीकृष्ण के कुशल संचालन के कारण महाभारत के युद्ध में पाण्डव विजयी हुए। वस्तुतः यह पाण्डवों की कौरवों पर विजय नहीं थी बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर, सत्य की असत्य पर विजय थी।
पापियों का संहार : श्रीकृष्ण का सम्पूर्ण जीवन अत्याचार और अहंकार से संघर्ष करते हुए व्यतीत हुआ। कंस, जरासंध, शिशुपाल आदि अनेक निरंकुश शासकों का संहार श्रीकृष्ण के ही द्वारा हुआ। अनेक निरंकुश राजाओं की प्राणाहुति महाभारत के समर क्षेत्र में हो गयी। यही नहीं, अहंकार के वश में होकर श्रीकृष्ण की यादव सेना भी आपस में लड़कर समाप्त हो गयी। कहा जाता है कि आखेटक द्वारा चलाया गया बाण श्रीकृष्ण के पैर में आकर लगा इसी से श्रीकृष्ण के जीवन का अन्त हो गया।
निष्कर्ष : श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व के विषय में संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि वे व्यक्ति नहीं एक परम्परा थे। वे दार्शनिक भी थे और कर्मयोगी भी। वे राजनीतिज्ञ भी थे और समाज सुधारक भी। वे योद्धा भी थे और शान्ति के अग्रदूत भी। वे गुरु थे और सखा भी थे। इसलिए तो लोग उन्हें ईश्वर का अवतार मानते हैं।
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