गुरु नानक देव जी की जीवनी। Guru Nanak Biography in Hindi : बचपन से ही नानक धर्म और ईश्वर सम्बन्धी बातों में रुचि लेने लगे थे। वे अधिकतर साथियों के साथ भजन-कीर्तन में मस्त रहते थे। उनके पिता को पुत्र के ये सारे कार्य पसन्द नहीं थे। नानक को शिक्षा-दीक्षा के लिए पाठशाला भेजा गया परन्तु वहाँ भी नानक पढ़ने-लिखने के स्थान पर ज्ञान और भक्ति की बातें किया करते थे। जहाँ अन्य बच्चे समय से अपने पाठ यादकर कक्षा में सुनाया करते, वहीं नानक सदैव गुमसुम रहते थे। वे एकान्त में बैठकर घण्टों तक चुपचाप मनन और चिन्तन किया करते थे। वे ईष्वर के भजन और कीर्तन में इतने लीन रहते थे कि खान-पान की भी सुध न रहती। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। पिता को लगा कि नानक को कोई असाध्य रोग हो गया है। वे उनके इलाज के लिए उपाय खोजने लगे।
गुरु नानक देव जी की जीवनी। Guru Nanak Biography in Hindi
नाम
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गुरु नानक
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जन्म
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15 अप्रैल 1469
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जन्म स्थान
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ननकाना साहब (तलवंडी)
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पिता का नाम
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कल्याणचंद या कालू
मेहता
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माता का नाम
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तृप्ता देवी
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मृत्यु
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22 सितंबर 1539
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पिता ने बुला कर कहा ‘‘पुत्र, बाला के साथ लाहौर जाओ और कोई सच्चा सौदा करो।’’ पिता की बात मानकर वे चल पड़े। रास्ते में एक जगह कुछ साधु तपस्यारत दिखाई पड़े। उन्हें चिन्ता हुई कि इनके खाने-पीने की व्यवस्था कौन करता होगा? वे बाला से बोले- ‘‘भाई बाला, पिताजी ने सच्चा सौदा करने को कहा है। देखो न इससे सच्चा सौदा और क्या होगा कि हम इन साधुओं को भोजन कराएँ ।’’ इतना कहकर नानक ने पास के गाँव से खाने-पीने की सामग्री मँगाई और साधुओं को भरपेट भोजन कराया, फिर घर लौट आए। उनके खाली हाथ लौटने पर पिता बहुत नाराज़ हुए। नानक ने कहा-‘‘पिताजी, मैंने तो सच्चा सौदा ही किया है। कर्म करते हुए अपना मन वाहे गुरु में लगाना, भले लोगों की संगति करना और मिल बाँटकर खाना यही तो सच्चा सौदा है।
यह घटना सिखों के प्रथम गुरु ‘नानक देव’ के जीवन की है, जो मानवता के परम उपासक थे। वे मनुष्य की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानते थे।
बचपन से ही नानक धर्म और ईश्वर सम्बन्धी बातों में रुचि लेने लगे थे। वे अधिकतर साथियों के साथ भजन-कीर्तन में मस्त रहते थे। उनके पिता को पुत्र के ये सारे कार्य पसन्द नहीं थे। नानक को शिक्षा-दीक्षा के लिए पाठशाला भेजा गया परन्तु वहाँ भी नानक पढ़ने-लिखने के स्थान पर ज्ञान और भक्ति की बातें किया करते थे। जहाँ अन्य बच्चे समय से अपने पाठ यादकर कक्षा में सुनाया करते, वहीं नानक सदैव गुमसुम रहते थे।
वे एकान्त में बैठकर घण्टों तक चुपचाप मनन और चिन्तन किया करते थे। वे ईष्वर के भजन और कीर्तन में इतने लीन रहते थे कि खान-पान की भी सुध न रहती। धीरे-धीरे उनका स्वास्थ्य गिरने लगा। पिता को लगा कि नानक को कोई असाध्य रोग हो गया है। वे उनके इलाज के लिए उपाय खोजने लगे।
लेकिन कोई रोग हो तब तो। पीड़ा तो नानक के हृदय में थी इस पीड़ा को नाड़ी पकड़ने वाला वैद्य भला क्या समझता ?कृकृकृकृ
वैद्य ने नानक की नाड़ी देखी लेकिन उन्हें किसी रोग का पता नहीं चला। तब नानक ने अपने पिता से कहा-
वैद्य बुलाया वैदगी, पकडि़ टटोले बाँहि।
भोला वैद्य न जानगी, करक कलेजे माँहि।।
अर्थात् आयुर्वेद का वैद्य केवल बाँह या नाड़ी टटोल कर मेरे रोग का पता नहीं लगा सकता क्योंकि पीड़ा तो मेरे मन में है।
नानक कुछ और बड़े हुए तो पिता को यह चिन्ता सताने लगी कि उनके व्यापार को कौन सँभालेगा? नानक का मन तो व्यापार में लगता ही नहीं था। यह बड़ा होकर क्या करेगा ? लेकिन उनकी बहन नानकी अपने ‘वीर’ में असाधारण तेज देखती थीं। वे समझ चुकी थीं कि उनका भाई नानक आगे चलकर ज़रूर एक तेजस्वी पुरुष होगा, पर पिता को ये बातें कतई पसन्द नहीं थीं। वे चाहते थे कि उनका बेटा उनकी बताई राह पर चले पर बेटे ने तो स्वयं ही अपनी राह चुन ली थी।
धीरे-धीरे नानक की ख्याति चारों ओर फैलने लगी। उनके ज्ञान, सत्संग, भजन आदि गुणों की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी। लोगों के मन में यह बात धीरे-धीेरे घर करने लगी कि-‘‘मेहता जी का बेटा तो कोई सिद्ध पुरुष है।’’
इधर पिता की चिन्ता और बढ़ गई कि यदि नानक संन्यासी हो गए तो उनका वंश कैसे चलेगा ? उन्होंने नानक को व्यापार के लिए अपने दामाद के साथ सुल्तानपुर भेज दिया। नानक को वहाँ पर सरकारी गल्ले की दुकान में काम मिल गया। वे अपना काम ईमानदारीपूर्वक करने लगे। काम के साथ गरीबों-दुखियों को मुफ्त भोजन कराना, साधु-संतों की सेवा करना और ईश्वर का भजन करना उनकी दिनचर्या थी। धीरे-धीरे इस काम से वे ऊबने लगे। बहन नानकी ने सोचा कि इनका विवाह कर दिया जाय तो शायद इनका मन ऐसे कामों में लगने लगे। फिर क्या था ? आनन-फानन में उनकी शादी गुरुदासपुर निवासी मूलचन्द की पुत्री सुलक्षणी देवी से कर दी गई। श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द नामक उनके दो पुत्र भी हुए लेकिन उनका मन परिवार और सांसारिक कामों में फिर भी नहीं लगा।
नानक का हाल-चाल लेने के लिए पिता ने मरदाना रबानी को भेजा। मरदाना भी नानक के पास जाकर उनका परम भक्त बन गया। वह नानक के साथ खंजड़ी बजाकर गाता रहता था। नानकदेव उसके साथ देष-विदेष की यात्रा पर निकल पड़े तथा ऊँच-नीच, छोटे-बड़े के भेदभाव को दूर करने के लिए तरह-तरह के प्रयास करते रहे।
उन्हें सामाजिक विषमता अखरती थी। नानक गरीब और दुखियारों को देखकर द्रवित हो उठते। वे सदैव से दीनों और गरीबों की सहायता करते थे। नानक देव ने विभिन्न स्थानों की यात्रा की। वे अपनी यात्राओं के क्रम में अफगानिस्तान, काबुल, अरब, तिब्बत आदि देषों में गए और अपने ज्ञान का प्रकाष फैलाया। वे मानवता के महान उपासक थे और जीवन पर्यन्त मानव में आपसी समानता की बात करते रहे। उनका कहना था कि अत्याचारों को सहन करना सबसे बड़ा पाप है। उनकी मान्यता थी कि ईष्वर एक है। वे उसी के उपासक थे और उसे ही पूरी सष्ष्टि का नियंता मानते थे।
यह भी एक संयोग ही है कि उनकी समाधि और मकबरे की दीवार एक ही है। ऐसी धार्मिक एकता की मिसाल दुनिया में और कहीं नहीं मिलती।
कहते हैं कि समर्थ व्यक्ति के पीछे दुनिया चलती है। ऐसे पुरुष अपनी छाप समाज पर कई तरह से छोड़ जाते है। ऐसे ही थे मानवता के महान उपासक नानकदेव जिनकी ख्याति आज भी दुनिया के कोने-कोने में गूँज रही है।
तलवण्डी से ननकाना साहब
नानक देव की ख्याति से अभिभूत हो उनके शिष्यों ने उनके गाँव तलवण्डी का नाम ही बदल दिया। तलवण्डी अब ‘ननकाना साहब’ के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान अब पाकिस्तान में स्थित है।
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