भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था। ‘भारतेंदु’ उनकी उपाधि थी। जीवन परिचय— भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर,1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे और गिरधर दास उपनाम से कविता लिखा करते थे। 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु ७ वर्ष की होगी। ये दिन उनकी आँख खुलने के थे। भारतेंदु का कृतित्व साक्ष्य है कि उनकी आँखे एक बार खुलीं तो बंद नहीं हुई। पैंतीस वर्ष की संक्षिप्त आयु में उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। वे हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार थे। इनका मूल नाम ‘हरिश्चंद्र’ था। ‘भारतेंदु’ उनकी उपाधि थी। इनका कार्यकाल युग की संधि पर खड़ा है। उन्होंने रीतिकाल की विकृत सामंती संस्कृति की पोषक वृत्तियों को छोड़कर स्वस्थ परंपरा की भूमि अपनाई और नवीनता के बीज बोए। हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेंदु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया।
जीवन परिचय— भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर,1850 में काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे और गिरधर दास उपनाम से कविता लिखा करते थे। 1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समय उनकी आयु ७ वर्ष की होगी। ये दिन उनकी आँख खुलने के थे। भारतेंदु का कृतित्व साक्ष्य है कि उनकी आँखे एक बार खुलीं तो बंद नहीं हुई। पैंतीस वर्ष की संक्षिप्त आयु में उन्होंने मात्रा और गुणवत्ता की दृष्टि से इतना लिखा, इतनी दिशाओं में काम किया कि उनका समूचा रचनाकर्म पथदर्शक बन गया। जब हरिश्चंद्र पाँच वर्ष के थे तब इनकी माता तथा जब दस वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। इस तरह मातापिता के सुख से भारतेंदु वंचित हो गए। बचपन का सुख नहीं मिला। विमाता ने खूब सताया। 13 वर्ष की अवस्था में ‘मन्नो देवी’ नामक युवती से इनका विवाह हुआ। संवेदनशील व्यक्ति के नाते उनमें स्वतंत्र रूप से देखने-सोचने व समझने की आदत का विकास होने लगा। पढ़ाई की विषय-वस्तु और पद्धति से उनका मन उखड़ता रहा। क्वींस कॉलेज, बनारस में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कॉलेज आते-जाते रहे पर यहाँ से मन बार-बार भागता रहा। स्मरण शक्ति तीव्र थी, ग्रहण क्षमता अद्भुत। इसलिए परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे। बनारस में उन दिनों अंग्रेजी पढ़े-लिखे और प्रसिद्ध लेखक- राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद थे, भारतेंदु शिष्य भाव से उनके यहाँ जाते। उन्हीं से अंग्रेजी शिक्षा सीखी। भारतेंदु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू भाषाएँ सीख ली। उनको काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पाँच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया–
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान।।
अत्यधिक उदार व दानशील होने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति कमजोर हो गई। ये ऋणग्रस्त हो गए। बहुत कोशिशों के बाद भी ये ऋण-मुक्त नहीं हो पाए और क्षय रोग से ग्रस्त हो गए। हिंदी साहित्य की यह दीप्ति सन् 1885 ई़. में सदैव के लिए बुझ गई।रचनाएँ— भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेंदु के नाटक लिखने की शुरूआत बंगला के विद्यासुंदर (1867)नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किंतु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेंदु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया।
(अ) नाटक— भारत-दुर्दशा, अँधेरी नगरी, नील देवी, रत्नावली, भारत-जननी, मुद्राराक्षस, सती-प्रताप, धनंजय विजय, सत्य हरिश्चंद्र आदि।
(ब) काव्य कृतियाँ— प्रेम माधुरी, प्रेम तरंग, दानलीला, प्रेम सरोवर, कृष्ण चरित आदि।
(स) उपन्यास— पूर्ण प्रकाश, चंद्रप्रभा
(द) निबंध संग्रह— दिल्ली दरबार दर्पण, मदालसा, सुलोचना
(य) यात्रा वृत्तांत— लखनऊ की यात्रा, सरयूपार की यात्रा
(र) संपादन— हरिश्चंद्र चंद्रिका, हरिश्चंद्र मैगजीन, कविवचन सुधा
भाषा-शैली— हिंदी साहित्य को भारतेंदु जी की देन भाषा और साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में है। भारतेंदु जी का खड़ीबोली और ब्रजभाषा दोनों पर समान अधिकार था। भारतेंदु जी ने खड़ी-बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया, जो उर्दू से भिन्न है और हिंदी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने संपूर्ण गद्य साहित्य की रचना की। इन्होंने काव्य के सृजन हेतु ब्रजभाषा को अपनाया। इनके द्वारा प्रयुक्त ब्रजभाषा अत्यंत सरल, सरस एवं माधुर्य से परिपूर्ण है। भाषा में नवीनता एवं सजीवता है। साथ ही प्रचलित शब्दों, मुहावरों एवं कहावतों का यथास्थान प्रयोग किया गया है। इसके परिणामस्वरूप उनकी भाषा में प्रवाह उत्पन्न हो गया है। भारतेंदु जी ने मुख्य रूप से मुक्तक शैली का प्रयोग किया। इस शैली के अंतर्गत इन्होंने अनेक नवीन प्रयोग करके अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया। इनकी शैली भावों के अनुकूल है।
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