होली पर निबंध – Holi Essay in Hindi : भारतीय पर्व परंपरा में होली आनंद उल्लास का सर्वश्रेष्ठ रसोत्सव है। मुक्त, स्वच्छंद परिहास का त्यौहार है। नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज मस्ती की त्रिवेणी है। सुप्त मन की कंदराओं में ईर्ष्या, द्वेष जैसे निकृष्ट विचारों को निकाल फेकने का सुंदर अवसर है। होली वसंत ऋतु का यौवनकाल है। ग्रीष्म के आगमन की सूचक है। वनश्री के साथ साथ खेतों की श्री एवं हमारे तन मन की श्री भी फाल्गुन के ढलते-ढलते संपूर्ण आभा में खिल उठती है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने फाल्गुन के सूर्य की ऊष्मा को ‘प्रियालिंगन मधु-माधुर्य स्पर्श’ बताते हुए कहा है- ‘सहस्त्र सहस्त्र मधु मादक स्पर्शों से आलिंगित कर रही इन किरणों ने फाल्गुन के इस बसंती प्रांत को सुगंधित स्वर्ण में आह्वादित कर दिया है।
होली पर निबंध – Holi Essay in Hindi
भारतीय पर्व परंपरा में होली आनंद उल्लास का सर्वश्रेष्ठ रसोत्सव है। मुक्त, स्वच्छंद परिहास का त्यौहार है। नाचने-गाने, हंसी-ठिठोली और मौज मस्ती की त्रिवेणी है। सुप्त मन की कंदराओं में ईर्ष्या, द्वेष जैसे निकृष्ट विचारों को निकाल फेकने का सुंदर अवसर है।
होली वसंत ऋतु का यौवनकाल है। ग्रीष्म के आगमन की सूचक है। वनश्री के साथ साथ खेतों की श्री एवं हमारे तन मन की श्री भी फाल्गुन के ढलते-ढलते संपूर्ण आभा में खिल उठती है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने फाल्गुन के सूर्य की ऊष्मा को ‘प्रियालिंगन मधु-माधुर्य स्पर्श’ बताते हुए कहा है- ‘सहस्त्र सहस्त्र मधु मादक स्पर्शों से आलिंगित कर रही इन किरणों ने फाल्गुन के इस बसंती प्रांत को सुगंधित स्वर्ण में आह्वादित कर दिया है।‘
‘दशकुमारचरित’ में होली का उल्लेख महोत्सव के नाम से किया गया है। वैसे भी बसंत काम का सहचर है। इसलिए कामदेव के विशेष पूजन का विधान है। कहीं फाल्गुन शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक कहीं चैत्र शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक मदनोत्सव का विधान है। आमोद प्रमोद और उल्लास के अवसर पर मन की अमराई में मंजरित इस सुख सौरभ का अपना स्थान है।
“किंतु यह मदनोत्सव कालिदास, श्री हर्ष और बाणभट्ट की पोथियों की वायु बनकर रह गया है। अब बस मादन रह गया है, ना मदन है, ना उत्सव। वर्तमान युग में काम को सेक्स का पर्याय बना कर इतना बड़ा अवमूल्यन सृष्टि तत्व का हुआ है कि काम के देवत्व की बात करते हुए डर लगता है। सच्चाई यह है कि काम व्यापनशील विष्णु और शोभा सौंदर्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी के पुत्र हैं। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर दो चेतनाएँ होती हैं- एक आत्मविस्तार की और दूसरी अपनी ओर खींचने की। दोनों का सामंजस्य होता है तो काम जन्म लेता है। एक निराकार उत्सुकता जन्म लेती है। वह उत्सुकता यदि बिना किसी शर्त के आकार लेती है तो अभिशप्त होती है और अपने को छार करके आकार ग्रहण करें तो भिन्न होती है।“- डॉक्टर विद्यानिवास मिश्रा
होली के साथ अनेक दंतकथाओं का संबंध जुड़ा हुआ है। पहली कथा है प्रह्लाद और होलिका की। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु नास्तिक थे और वे नहीं चाहते थे कि उनके राज्य में कोई ईश्वर की पूजा करें, किंतु स्वयं उनका पुत्र प्रहलाद ईश्वर भक्त था। अनेक कष्ट सहने के बाद भी उसने ईश्वर भक्ति नहीं छोड़ी, तब उसके पिता ने अपनी बहन होलिका को प्रह्लाद के साथ आग में बैठने को कहा। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग में नहीं जलेगी। अग्नि ज्वाला में होलिका प्रहलाद को लेकर बैठी। परिणाम उल्टा निकला होली का जल गई और प्रहलाद सुरक्षित बाहर आ गया।
दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार ठुण्डा नामक राक्षसी बच्चों को पीड़ा पहुंचाती तथा उनकी मृत्यु का कारण बनती थी। एक बार राक्षसी पकड़ी गई। लोगों ने क्रोध में उसे जीवित जला दिया। इस घटना की स्मृति में होली के दिन आग जलाई जाती है।
भारत कृषि प्रधान देश है। होली के अवसर पर पकी हुई फसल काटी जाती है। खेत की लक्ष्मी जब घर के आंगन में आती है तो किसान अपने सुनहरे सपने को साकार पाता है। वह आत्म विभोर होकर नाचता है, गाता है। अग्नि देवता को नवान्न की आहुति देता है।
फाल्गुन पूर्णिमा होलिका दहन का दिन है। लोग घरों से लकड़ियां इकट्ठी करते हैं। अपने अपने मोहल्ले में अलग-अलग होली जलाते हैं। होली जलाने से पहले स्त्रियां लकड़ी के ढेर को उपलों का हार पहनाती हैं और उसकी पूजा करती हैं और रात्रि को उसे अग्नि की भेंट कर देती हैं। लोग होली के चारों और खूब नाचते और गाते हैं तथा होली की आग में नई फसल के अनाज की बाल को भूनकर खाते हैं।
होली से अगला धुलेंडी का दिन है। फाल्गुन की पूर्णिमा के चंद्रमा की ज्योत्स्ना, बसंत की मुस्कुराहट, परागी फगुनाहट, फगुहराओं की मौज मस्ती, हंसी-ठिठोली मौसम की दुंदभी बजाती धुलेंडी आती है। रंग भरी होली जीवन की रंगीनी प्रकट करती है। मुंह पर अबीर-गुलाल, चंदन या रंग लगाते हुए गले मिलने में जो मजा आता है, मुंह को काला पीला रंगने में जो उल्लास होता है, रंग भरी बाल्टी एक दूसरे पर फेंकने में जो उमंग होती है, निशाना साध कर पानी भरा गुब्बारा मारने में जो शरारत की जाती है, वह सब जीवन की सजीवता प्रकट करते हैं।
चारों ओर अबीर-गुलाल, रंग भरी पिचकारी और गुब्बारों का समा बांधा है। छोटे बड़े नर-नारी, सभी होली के रंग में रंगे हैं। डफ-ढोल, मृदंग के साथ नाचती-गाती हास्य रस की फुव्वारें छोड़ती, परस्पर गले मिलती, वीर बैन उच्चारती, आवाजें कसती, छेड़छाड़ करती टोलियाँ होली के प्रेम आनंद में पगी हैं। गोपाल सिंह नेपाली ने इस का चित्रण बड़े सुंदर रूप में किया है-
बरस बरस पर आती होलीस रंगों का त्यौहार अनूठा।
चुनरी इधर-उधर पिचकारी, गाल लाल का कुमकुम फूटा।
लाल लाल बन जाते काले, गोरी सूरत पीली नीली।
मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति रसम ऋतु रानी रंगीली।।
आज होली उत्सव में शील और सौहार्द संस्कारों की विस्मृति से मानव आचरण में चिंतनीय विकृतियों का समावेश हो गया है। गंदे और अमिट रासायनिक लेपों, गाली-गलौज और आवाज कसी एवं छेड़छाड़ ने होली की धवल-फाल्गुनी, पूर्णिमा पर गर्हित की छाया छोड़ दी है, जिसने पर्व की पवित्रता और संदेश की अनुभूति को तिरोहित कर दिया है।
आज होली परंपरा निर्वाह की विवशता का मार्गदर्शन मात्र रह गया है। कहीं होली की उमंग तो दिखती नहीं शालीनता की नकाब चढ़ी रहती है। उल्लास दुबका रहता है। नशे से उल्लास की जागृति का प्रयास किया जाता है।
आज का मानव अर्थ चक्र में दबा हुआ इससे त्रस्त है। भागते समय को वह समय की कमी के कारण पकड़ नहीं पाता इसलिए आनंद, हर्ष, उल्लास, विनोद उसके लिए दूज का चंद्रमा बन गए हैं। इस दम घोटू वातावरण में होली-पर्व चुनौती है। इस चुनौती को स्वीकार करें। मंगलमय रूप में हास्य, व्यंग्य-विनोद का अभिषेक करें।
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