मानव अधिकारों पर वैश्वीकरण के प्रभाव। Manav Adhikar par Vaishvikaran ke Prabhav वैश्वीकरण के इस दौर में मानव अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ा है। वर्तमान समय में विश्व स्तर पर कौन सी ऐसी सम-सामयिक घटनाऐं हुई है, जिनका मानव अधिकारों पर प्रभाव पड़ा है। वो घटनाऐं किस हद तक मानव अधिकारों पर प्रभाव डालती है। यहाँ ये तय करन उचित होगा कि वैश्वीकरण के सन्दर्भ में मानव से सम्बन्धित कौन से अधिकार अहमियत रखते हैं। यदि बात की जाये तो मानव के लिये सब से महत्वपूर्ण उसकी जिन्दिगी है। अत: मानव के अन्य अधिकार जैसे स्वतन्त्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार के साथ-साथ मानव के लोकतांत्रिक अधिकार में शामिल वातावरण का अधिकार मायने रखता है। वैश्वीकरण के इस दौर में इन अधिकारों पर कैसा प्रभाव पड़ा है ये चर्चा का विषय है।
मानव अधिकारों पर वैश्वीकरण के प्रभाव। Manav Adhikar par Vaishvikaran ke Prabhav
वैश्वीकरण के इस दौर में मानव अधिकारों पर क्या प्रभाव पड़ा है।
वर्तमान समय में विश्व स्तर पर कौन सी ऐसी सम-सामयिक घटनाऐं हुई है, जिनका
मानव अधिकारों पर प्रभाव पड़ा है। वो घटनाऐं किस हद तक मानव अधिकारों पर प्रभाव
डालती है। यहाँ ये तय करन उचित होगा कि वैश्वीकरण के सन्दर्भ में मानव से सम्बन्धित
कौन से अधिकार अहमियत रखते हैं। यदि बात की जाये तो मानव के लिये सब से महत्वपूर्ण
उसकी जिन्दिगी है। अत: मानव के
अन्य अधिकार जैसे स्वतन्त्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, शिक्षा का अधिकार के
साथ-साथ मानव के लोकतांत्रिक अधिकार में शामिल वातावरण का अधिकार मायने रखता है।
वैश्वीकरण के इस दौर में इन अधिकारों पर कैसा प्रभाव पड़ा है ये चर्चा का विषय
है।
बात मानव अधिकारों की चल रही है। विश्व वैश्वीकरण के सन्दर्भ में, ये जानना
आवश्यक है कि वैश्वीकरण का ‘शाब्दिक अर्थ क्या है? वैश्वीकरण
के मायने हैं, ‘स्थानीय या क्षेत्रीय वस्तुओं या घटनाओं के
विश्व स्तर पर रूपान्तरण की प्रक्रिया।‘ अर्थात किसी घटना या वस्तु का विश्व स्तर पर
क्या प्रभाव है।
1960 व उससे पहले के समय में ‘वैश्वीकरण’ का उपयोग ‘सामाजिक विज्ञान’ में किया जाता रहा है।
1980 के दशक से वैश्वीकरण का उपयोग अर्थशास्त्रियों द्वारा किया गया परन्तु
1980 से 1990 के दशक तक ये धारणा लोकप्रिय नहीं हुई। वैश्वीकरण का सबसे प्राचीन
दृष्टिकोण ‘चार्ल्स तेज रसेल’ द्वारा दिया गया है। वैश्वीकरण को एक सदियो लम्बी
प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जो मानव जनसंख्या व सभ्यता के विकास पर नजर रखती
है। वैश्वीकरण को पिछले 50 वर्षों से सामाजिक विज्ञान के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न
विषयों के सम्बन्धित करके समझा जा सकता है।
‘राजनीतिक वैश्वीकरण’ विश्व
सरकार का एक गठन है। जो राष्ट्रों के बीच सम्बन्धों का संचालन करता है, इसके
अतिरिक्त सामाजिक व आर्थिक वैश्वीकरण से उत्पन्न होने वाले अधिकारों की गारन्टी
देता है। वैश्वीकरण की इस दौड़ से संयुक्त राज्य अमेरिका ने शक्ति के पद का
लुत्फ उठाया है ऐसा उसने राजनीतिक स्तर पर किया और क्यू किया क्योंकि इसकी
आर्थिक स्थिति अन्य देशों के मुकाबले में बेहतर थी। अन्य दूसरे देशों के
नागरिकों के मानव अधिकारां का उसके द्वारा समय-समय पर हनन किया गया चाहे नागासाकी
हिरोशिमा (जापान) हो या अफगानिस्तान राजनीतिक वैश्वीकरण के दो पहलुओं को देखता
है: - (1) जैवमण्डल में नजर आ रही क्षति, (2) गरीबी, असमानता, न्याय में हो रही देरी, पारम्परिक
संस्कृतिक का क्षरण। ये सब वैश्वीकरण से सम्बन्धित क्षति का परिणाम है। अब
चाहे वे राजनीतिक हो या अधिक।
(1) जैवमण्डल
को तीन भागों में बांटा गया है:-
(1)
जल मण्डल (Hydrosphere) पृथ्वी
पर स्थित सभी जलीय भाग जैसे महासागर, झील, जल धाराऐं, नदियाँ पृथ्वी का लगभग 73 प्रतिशत सतह जल से
ढकी है।
(2)
स्थल मण्डल (Lithosphere) यानि जमीन
की ठोस पर्त जैसे – चट्टानें, मृदा (मिट्टी) खनिज आते हैं, खनिज में
फस्फोरस, कैल्सियम, आयरन आते हैं।
(3)
वायु मण्डल (Atmosphere) वायुमण्डल
में – आक्सीजन, कार्बन-डाई ऑक्साइड, नाइट्रोजन
आदि गैसें जीवों कों वायु मण्डल से मिलती है। जल मण्डल, स्थल मण्डल, वायु मण्डल
के साथ मिलाकर सभी जीवधारी एवं बड़ी इकाई बनाते हैं वही जैव मण्डल कहलाता है।
आर्थिक वैश्वीकरण से समस्त जैव मण्डल को नुकसान हो रहा है। इस वैश्वीकरण
का सीधा प्रभाव मानव अधिकारों पर पड़ रहा है एक ओर विकासवादी देश है जो विकास के
नाम पर समस्त पर्यावरण का सत्यानाश कर रहे हैं, दूसरी ओर विकासवादी
देश है जो विकास के नाम पर समस्त पर्यावरण का सत्यानाश कर रहे हैं, दूसरी और
ऐसे व्यक्ति बहुत कम हैं जो ‘जियो और जीने दो’ के नियम को अपनाये हुए
हैं। हम जियो और जीने दो के सिद्धान्त को किस हद तक अपनाये हुए है बात साबित होती
है, जल मण्डल में होने वाले प्रदूषण से जल से वाहित होने वाले मल के
मिलने से अनेक वैक्टीरिया और अन्य रोग पैदा होता हैं। टॉयफाइड, पीलिया, पेचिश
जैसे रोग जल मण्डल के दूषित होने से होते हैं। पारा (मरकरी) लेड (सीसा) फलोराइड
पानी में मिलने से मानव को नुकसान पहुंचता है यहाँ तक उसकी मृत्यु तक हो सकती है।
अभी हाल ही में (मैगी) में ‘सीसे’ की मात्रा अत्यधिक होने से उसे प्रतिबन्धित कर
दिया गया और पीने के मुआमले में हम लोग क्या कर रहे हैं। सीसे की अधिक मात्रा
शरीर में पहुंचने से मानसिक रोग, उच्च रक्त चाप आदि बीमारियाँ देखने में आती
है। इसके अलावा पानी में आक्सीजन की कमी होने के कारण पानी में रहने वाले
प्राणियों और पौधों की भी मृत्यु हो जाती है।
धार्मिक आस्था के नाम पर भी मनुष्य का ‘जीने का
अधिकार’ रक्षित नहीं है। केवल दिल्ली में भी 800 से अधिक, दुर्गा
प्रतिमाऐं स्थापित होती हैं। कोलकाता में लगभग सौ वर्ष पूर्व एक-दो प्रतिमाऐं ही
स्थापित होती थी। 50 वर्ष पूर्व 300, 400 और आज इनकी तादाद 2500 से ज्यादा है। ‘केन्द्रीय
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड’ के 2010 की रिपोट के आधार पर कहा जाता है कि
विसर्जन के बाद पानी में ‘टोटल डिजाल्वड सालिड’ बढ़कर 100
प्रतिशत तक पहुंच जाता है। पानी में खनिज तत्व जैसे लोहा, तांबा आदि
की मात्रा 200 से 300 प्रतिशत बढ़ जाती है जिससे मनुष्यों में अपगंता बढ़ने का
खतरा बना रहता है।
आज के इस वैश्वीकरण के दौर में यदि हम जल मण्डल को रक्षित कर मानव
अधिकारों की रक्षा कर सकते हैं तो ये एक सराहनीय काम है। इसके लिये हमे हानिकारक ‘अपशिष्ट
पदार्थो’ को पानी में मिलने से रोकना होगा। पीने के पानीके स्त्रोतों जैसे
तालाब, नदी, आदि के चारों ओर दीवार बनाकर उसमें गन्दगी को
मिलने से रोकना होगा। पीने का पानी के स्त्रोतों जैसे तालाब, नदी, आदि के
चारें ओर दीवार बनाकर उसमें गन्दगी को मिलने से रोकना होगा। नदियों व तालाबों में
पशुओं के नहलाने व वाहनों के धोने पर पाबन्दी होनी चाहिए। समय-समय पर जलाशयों की
सफाई आक्सीकरण – तालों व Fitlers सहायता से जल का
शुद्धीकरण।
स्थल मण्डल को शुद्ध व साफ रखकर मानवीय अधिकारों को रक्षित किया जा
सकता है। स्थल मण्डल में ठोस पर्त में यानि मिट्टी को प्रदूषित होने से रोकने
में भूमि तथा जल में मलमूत्र विसर्जन पर रोक होनी चाहिए। ठोस पदार्थ जैसे तांबा, लोहा, काँच, को मिट्टी
में नहीं दबाना चाहिए। उर्वरकों तथा कीटनाशकों का प्रयोग जरूरत पड़ने पर सीमित
मात्रा में करना चाहिए।
स्थल मण्डल में फास्फोरस, कैल्शियम आदि को शामिल किया गया है। वैश्वीकरण
कामानव अधिकारों पर यह प्रभाव पड़ा है कि कैल्शियम के नाम पर आज उसे ‘शुद्ध
प्राकृतिक’ दूध भी नसीब नहीं है दूध व उससे बनी वस्तुओं में मिलावट के नाम पर
उसकी जिन्दगी से खिलवाड़ किया जा रहा है। किस चीज का वैश्वीकरण हुआ है। मिलावट का, बेइमानीका, अशुद्धता
का? वैश्वीकरण जरूर हुआ है और इस वैश्वीकरण का मानव अधिकारों पर विपरीत प्रभाव
पड़ा है। वायुमण्डल में विश्व के बड़े देशों द्वारा तरक्की के मानव अधिकरों पर
विपरीत प्रभाव पड़ा है। वायुमण्डल में विश्व के बड़े देशों द्वारा तरक्की के
नाम पर इतनी अधिक मात्रा में विषैली गैसें छोड़ी गई हैं जैसे कार्बन डाइआक्साइड, कार्बन
मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन आक्साइड आदि। क्लोरो फ्लोरो कार्बन
पदार्थ आसमान में ‘ओजोन पर्त’ को नष्ट करके नुकसानदे ‘पराबैगनी
किरणें’ जीवों को हानि पहुंचती है। वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका व चीन दुनिये
के सबसे अधिक ‘ईपीटीसी कार्बन’ 16.6: निर्गत कर
वातावरण को दूषित कर रहा है। रूस, जापान, दक्षिण कोरिया, कनाडा, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली, ईरान, फ्रांस, पौलेंड, मैक्सिको
विश्वके तकरीबन 40 देश ऐसे हैं जिनसे ‘कार्बन’ उत्सर्जन ज्यादा हो रहा है। इसके अतिरिक्त 28
देशों का समूह ‘यूरोपीय संघ’ 7.3 प्रतिशत ईपीसीटी
रेंज में है। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस आदि बड़े देशों में वैश्वीकरण से उद्योगों
की समस्या अधिक बड़ गयी है जिसका प्रभाव मानव अधिकारों पर पड़ा है।
वायुमण्डल के दूषित होने से मानव के स्वास्थ्य पर नुकसानदेह असर
पड़ रहा है परिणाम स्वरूप श्वसनतन्त्र प्रभावित हो रहा है तथा दमा, गले का
दर्द, निमोनिया एवं फेफड़ो का कैन्सर आदि खतरनाक बीमारियाँ सामने आ रही
हैं। ज्वालामुखियों से निकली राख, आंधी तूफान से उड़ती धूल, वनों में
लगी आग से निकलने वाला धुंआ, कोहरा, ये सभी इन बीमारियों के लिए जिम्मेदार हैं।
इसके अलावा अम्लीय वर्षा के जरिये फसलों व वनों का भी नुकसान पहुंच रहा है।
वायु मण्डल शुद्ध करने के लिये घरों से निकलने वाले धुंए को कम करना
होगा। पेट्रोल व डीजल से निकलने वाले धुऐं को ‘निर्वातक छन्ना’ (Vaccum
Filter) के जरिये कम करना चाहिए। ईट के भट्टे गांव व शहरी आबादी से दूर होना
चाहिए। सड़कों के किनारे अधिक पेड़ पौधे लगाने चाहिए।
इन तमाम कोशिशों के जरिये वैश्वीकरण का मानव अधिकारों पर जो नकारात्मक
प्रभाव पड़ा है शायद कुछ हद तक उसको कम किया जा सके। वैश्वीकरण का जो जैव मण्डल
पर क्षति वाला प्रभाव रहा है वे जलीय मण्डल, स्थलीय मण्डल, वायु मण्डल को शुद्ध
करके जैव मण्डल को क्षति से बचाया जा सकता है, न केवल इन्सान बल्कि
कुदरत की तमाम मखलूक कुदरत का हसीन ‘शाहकार’ है। उसकी सुन्दरता में कम इजाफा होगा जब वैश्वीकरण
के इस दौरन में मानव के अधिकारों को रक्षित किया जावे।
आज इस वैश्वीकरण के जमाने में न तो ठण्डी हवायें ही चलती हैं और न ही
झूमते हुए शजर यानि (वृक्ष) नजर आते हैं, वैश्वीकरण की इस मदहोशी का मानव अधिकारों पर
नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। तरक्की के चक्कर में इन्सान ये भूल बैठा है कि वह
स्वयं ही अपने पर्यावरण को नष्ट करने पर तुला है, कभी तकनीकी विकास के
बहाने, कभी धार्मिकता की आड़ में उच्च स्तरीय व्यवस्था गड़बड़ा गई है। इस
व्यवस्था में तकरीबन चार बातें आती हैं – (1) जनसंख्या, (2) जैव
समुदाय (Biotic Community) घास का मैदान, तालाब (3) पारितन्त्र
Ecosystem (Biosphere) जल, थल, वायु प्राकृतिक भाग जिसमें सूक्ष्म जीव, पौधे, जन्तु
आदि रहते हैं जीव मण्डल कहलाता है। यही चार आधारों वाली व्यवस्था गड़बडा गई है
जिसके कारण पर्यावरण को सुरक्षित रखने में खतरा उत्पन्न हो गया है, वैश्वीकरण
के कारण ये खतरा दिन दूना और रात चौगुना बड़ रहा है। जनसंख्या विस्फोट के कारण
आवास, स्थान, भोजन ऊर्जा आदि की मांग बड़ती जा रही है। इसे
पूरा करने के लिए मुनष्य वनों को काट रहा है वहां मकानों, सड़कों, खेती, मवेशियों
के लिये चारागाहों का निर्माण कर रहा है। जल-विद्युत योजनाऐं बनानेके लिए सैकड़ों
किलो मीटर वनों का नाश हो रहा है। मनुष्य के दैनिक कार्यव औद्योगिक किया-कलाप
वायु-जल एवं मृदाका प्रदूषण कर रहे हैं तथा वन्य जीवों के आवास को नष्ट कर रहे
हैं।
यदि वैश्वीकरण की वहज से मानव अधिकारों पर हानिकारक प्रभाव पड़ रहा है, और मनुष्य
स्वयं उस पर्यावरण का नाश कर रहा है जिसमें व स्वयं श्वास लेता है, इसे रोकने
के लिये जिसमें पहले कदम पर वनों व पेड़ों का संरक्षण करना है। इसमें मानव के
अधिकारों की रक्षा सर्वप्रथम कार्य है, मानव का कानूनी व मानवीय अधिकार है कि उसे ऐसा
वातावरण राज्य व सरकार की ओर से देना चाहिए जिसमें वो साफ सुथरी फिजा में सांस ले
सकें। प्राकृतिक संतुलन बनाये रखने के लिये वह मानव अधिकारों की रक्षा के लिये ये
उपाय करना उचित होगा – विशाल वृक्ष पर अनेक जन्तु निवास करते हैं अत: वृक्षोंको
ईधन व अन्य व्यापारिक उपयोगों के लिये काटने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देना
चाहिए। वनों में चोरी एवं तस्करी रोकने के लिये सुदृढ़ एवं कठोर व्यवस्था की
जानी चाहिए। वनों को पर्यटक स्थलों के रूप में विकसित नहीं करना चाहिए। यदि औषधि
निर्माण के लिये वृक्ष को काटा जाये तो उतनी ही मात्रा में नये वृक्ष रोपड़ कर
दिया जाये।
अन्तर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर मनुष्यों के अधिकारों को
संरक्षित किया गया है जिसमें यूनेस्को का मानव और जीवन मण्डल कार्यक्रम व विश्व
संरक्षण नीति प्रमुख है। इसके अतिरिक्त भारतीय संविधान में अनधिकृत रूप से जंगलों
को काटने पर पाबन्दी लगा दी गई। जुलाई 1995 ई. में सम्पूर्ण देश में प्रत्येक
वर्ष 1 से 8 अक्टूबर तक जंगली जीव सप्ताह माना जाता है। आवश्यकता इन कानूनों पर
अमल करने की है। तरक्कीकी इस दौड़ में यदा कदा वृक्षारोपण का कार्य भी चल रहा है
लेकिन प्रकृति का नुकसान इतना अधिक हो चुका है कि इनते कम स्तर पर इस कार्य को
किया गया तो वे दिन दूर नहीं जब पृथ्वी ‘आग का गोला’ बनती नजर आयेगी। प्राकृतिक नुकसान के लिये जिम्मेदार
ग्रीन हाउस गैसों के लगातार बड़ने से मानव अधिकार को ‘खतरा’ हासिल है।
ग्रीन हाउस गैसों के लगातार बढ़ने से धरतीव समुद्र सतह का तापमान इतना अधिक हो
जायेगा उदाहाणर्थ 2015 का औसत वैश्विक तापमान 0.73 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है।
यदि तापमान इसी रफतार से बढ़ता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब 2050 आते-आते दुनिया की
एक चौथाई प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर होंगी। प्रकृति में असन्तुलन इतना अधिक
हो गया है जिसका विपरीत प्रभाव मानव अधिकारों पर पड़ रहा है। वातावरण में 6 ’सांपों’ की संख्या
कम होने से ‘चूहों’ की संख्या बढ़ गई है, जिससे न
केवल फसलों को बल्कि इंसानों की जिन्दगी पर ‘प्लेग’ (रोग) का
खतरा भी बढ़ गया है। यही कारण है कि आज भारत में अधिकांश क्षेत्रों में ‘सूखा’ और
अमेरिका में ‘बाड़’ आ रही है। यही आलम रहा या पृथ्वी का तापमान औसत
बड़ता रहा तो ग्लेशियरके पिगलने से समुद्र तट के किनारे बसे देश, शहर नष्ट
हो जायेंगे। वर्तमान समय में न केवल भारत बल्कि वैश्वीकरण के इस दौर में ‘पर्यावरण’ की रक्षा
करके ‘मानव अधिकारों’ पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभाव को रोकना सबसे
बड़ी ‘चुनौती’ बनता जा रहा है।
तकनीकी विकास के नाम पर वैश्वीकरण की इस दौड़ में राजनीतिक स्तर पर
लोगों के हाथ में ‘सेलफोन’ जिसे ‘मोबईल’ फोन भी कहते हैं, का होना आवश्यक हो
गया है, एक तरफ ये कहा जाता है कि हमें अपनी ‘सभ्यता संस्कृति’ नहीं भूलनी
चाहिए दूसरी तरफ ये कहा जाता है कि सबके हाथों में ‘ऐनेरोइड’ फोन होगा
तभी देश का विकास होगा। क्या आप जानते है कि ‘विकिरण प्रदूषण’ (Radiation
Pollution) से मानव अधिकांश को जितना नुकसान पहुंच सकता है, मोबइल फोन
एवं टावरों द्वारा प्रसारित होने वाली ‘विद्युत चुम्बकीय तरंगे इन्सानी ‘दिमाग’ और ‘तंत्रिका
तंत्र’ में विद्युत स्पन्द उत्पन्न करती है, जिससे
सिरदर्द, अपच, अनिद्रा तथा स्मरण शक्ति का अल्पकालीन क्षय, इसके
अतिरिक्त इन विकिरणों के सम्पर्क में लम्बे समय तक रहने से मांसपेशियों की
जकड़न, अन्धापन, बहरापन, मास्तिष्क में गांठ, रक्त
कैंसर आदि रोगों की सम्भावना बनी रहती है।
वैश्वीकरण का मानव अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने के साथ कहा जा
सकता है कि जितना विकास या वैश्वीकरण इन तमाम सेल, मोबइल आदि चीजों का
हुआ है उतना ही वैश्वीकरण इन तमाम रोगों का भी हुआ है। वैश्विक स्तर पर कैंसर
से हुई है। 2015 आते-आते कैंसर के मरीजों की संख्या बड़ा गई है। अब तक 17 लाख नये
मामले सामने आये हैं।
‘स्वास्थ शरीर में स्वरूप मन का विकास’ यह कथन
मानव को उसके अधिकारों के बारे में जागरुक करता हे। जब स्वस्थ शरीर ही नहीं होगा
और उसमें स्वस्थ मन कहाँ से आयेगा। जब शरीर-मन दोनों अस्वस्थ हैं तो मानव कैसे
स्वस्थ हो सकता है। उसके अधिकार कहा गयें कौन विकास करेगा किसके लिये विकास होगा?
वैश्वीकरण का दूसरे पहलुओं पर जो अध्ययन किया जाता है उनमें गरीबी, असमानता, न्याय
मिलने में देरी, पारम्परिक संस्कृति का क्षरण आदि शामिल है।
गरीबी से न केवल भारत बल्कि एशियाई स्तर पर बांग्लादेश, भूटान, नेपाल, अफगानिस्तान
आदि देशों में मानव को दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो रहा है। पहले व्यक्ति
की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति होगी।उसके उपरान्त विकास आदि से सम्बन्धित वस्तुओं
पर ध्यान दिया जायेगा। मानव अधिकारों को प्राप्त करने में अक्षम व्यक्तियों को
स्वयं अपने अधिकारों की जानकारी होना भी आवश्यक है। असमानता तो विश्व स्तर पर
हर जगह देखने को मिल जायेगी लेकिन व्यक्तियों में इतनी समझ या साहस नहीं है कि
अपने प्रति हो रही असमानता के विरूद्ध आवाज उठाये। न्यायिक आधार पर भी मानव के
अधिकार रक्षित नहीं है। न्याय मिलने में अनआवश्यक देर या जुर्म के अनुपात में
दण्ड का न मिलना ये भी मानव अधिरकारों पर कुठाराघात है जो आज उस वैश्वीकरण के
जमाने में हो रहा है। ‘पारम्परिक संस्कृति’ को भी तभी
सुरक्षित रखा जा सकता है, तब ‘नैतिक मूल्यों का मानव में ‘वास’हो आज के
इस वैश्वीकरण के जमाने में ये बात नामुनकीन लगती है। जैसाकि विश्व स्तर पर हो
रही घटनाओं को देख कर कहा जा सकता है। बताइये जलवायु जैसे नाजुक मुद्दों पर हो रहे
पेरिस पर्यावरण सम्मेलन’ से पूर्व आतंकी हमला या फिर साम्प्रदायिक
मतभेदों के होने से बिगड़ी सामाजिक व्यवस्था या फिर ‘आतंकवाद’ के नाम पर
अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान के प्रति रवैया ये सब मानव अधिकारों के ऊपर पड़ने
वाले प्रभाव को नकारात्मक रूप में ही दर्शाता है।
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