आन का मान नाटक का सारांश : श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ का आरंभ रेगिस्तान के एक रेतीले मैदान से होता है। इस समय भारत की राजनीतिक सत्ता मुख्यतः मुगल शासक औरंगजेब के हाथों में थी और जोधपुर में महाराज जसवंत सिंह का राज्य था। वीर दुर्गादास राठौर महाराज जसवंत सिंह का कर्तव्यनिष्ठ सेवक था और महाराज की मृत्यु हो जाने के बाद वह उनके अवयस्क पुत्र अजीत सिंह के संरक्षक की भूमिका निभाता है। अपने पिता औरंगजेब की नीतियों का विरोध करते हुए उसका पुत्र अकबर द्वितीय औरंगजेब से अलग हो जाता है और उसकी मित्रता दुर्गादास राठौर से हो जाती है।
आन का मान नाटक का सारांश
श्री हरिकृष्ण ‘प्रेमी’ द्वारा रचित नाटक ‘आन का मान’ का आरंभ रेगिस्तान के एक रेतीले मैदान से होता है। इस समय भारत की राजनीतिक सत्ता मुख्यतः मुगल शासक औरंगजेब के हाथों में थी और जोधपुर में महाराज जसवंत सिंह का राज्य था। वीर दुर्गादास राठौर महाराज जसवंत सिंह का कर्तव्यनिष्ठ सेवक था और महाराज की मृत्यु हो जाने के बाद वह उनके अवयस्क पुत्र अजीत सिंह के संरक्षक की भूमिका निभाता है। अपने पिता औरंगजेब की नीतियों का विरोध करते हुए उसका पुत्र अकबर द्वितीय औरंगजेब से अलग हो जाता है और उसकी मित्रता दुर्गादास राठौर से हो जाती है।
औरंगजेब की चाल से अकबर द्वितीय को ईरान चले जाना पड़ा। अपनी मित्रता निभाते हुए अकबर द्वितीय की संतानों सफीयत और बुलंद अख्तर के पालन-पोषण का दायित्व दुर्गादास ने अपने ऊपर ले लिया। समय के साथ-साथ सभी युवा होते हैं और राजकुमार अजीत सिंह सफीयतुन्निसा पर आसक्त हो जाता है। सफीयत के टालने के बावजूद भी अजीत सिंह में उसके प्रति प्रेम की भावना अत्यधिक बढ़ जाती है, जिसके कारण दुर्गादास नाराज हो जाते हैं। दुर्गादास द्वारा राजपूती आन एवं मान का ध्यान दिलाने पर अजीत सिंह अपनी गलती मानकर क्षमा मांग लेता है। युद्ध की तैयारी प्रारंभ होती है।
औरंगजेब के संधि प्रस्ताव को लेकर ईश्वरदास आता है। मुगल सूबेदार शुआजत खां द्वारा सादे वेश में प्रवेश करने के बावजूद अजीत सिंह उस पर प्रहार करता है, परंतु राजपूती परंपरा का निर्वाह करते हुए निशस्त्र व्यक्ति पर प्रहार होने से दुर्गादास बचा लेता है।
द्वितीय अंक का सारांश : आन का मान नाटक के सर्वाधिक मार्मिक स्थलों से संबंधित दूसरे अंक की कथा भीम नदी के तट पर स्थित ब्रम्हपुरी से प्रारंभ होती है। ब्रम्हपुरी का नाम औरंगजेब ने इस्लाम पूरी रख दिया है। औरंगजेब की दो पुत्रियों मेहरुन्निसा एवं जीनतुन्निसा में से मेहरुन्निसा हिंदुओं पर औरंगजेब द्वारा किए जाने वाले अत्याचार का विरोध करती है, जबकि जीनतुन्निसा अपने पिता की नीतियों की समर्थक है। अपने दोनों पुत्रियों की बात सुनने के बाद औरंगजेब मेहरुन्निसा द्वारा रेखांकित किए गए अत्याचारों को अपनी भूल मानकर पश्चाताप करता है। वह अपने बेटों विशेषकर अकबर द्वितीय के प्रति की जाने वाली कठोरता के लिए भी दुखी होता है। उसके अंदर अकबर द्वितीय की संतानों यानी अपने पौत्र-पौत्री क्रमशः बुलंद एवं सफीयत के प्रति स्नेह और बढ़ जाता है। औरंगजेब अपनी वसीयत में अपने पुत्रों को जनता से उदार व्यवहार करने के लिए परामर्श देता है। वह अपनी मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को सादगी से करने के लिए कहता है। वसीयत लिखे जाने के समय ही ईश्वरदास वीर दुर्गादास राठौर को बंदी बना कर लाता है। औरंगजेब अपने पौत्र-पौत्री यानी बुलंद और सफीयत को पाने के लिए दुर्गादास से सौदेबाजी करना चाहता है, लेकिन दुर्गादास इसके लिए तैयार नहीं होता।
तृतीय अंक का सारांश : आन का मान नाटक के तीसरे अंक की कथा सफीयत के गान के साथ प्रारंभ होती है और उसी समय अजीत सिंह वहां पहुंच जाता है। वह सफीयत को अपना जीवन साथी बनाने का इच्छुक है, लेकिन सफीयत स्वयं को विधवा कहकर अजीत सिंह के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करती। अजीत सिंह द्वारा अनेक तर्क देने के बावजूद सफीयत अजीत सिंह को लोकहित हेतु स्वहित को त्यागने का सुझाव देती है। वह वहां से जाना चाहती है, लेकिन प्रेम के उद्वेग में बहता अजीत सिंह उसे अपने पास बैठा लेता है।
बुलंद अख्तर के आने से सफीयत सकुचा जाती है तथा अपने भाई से अजीत सिंह के प्रेम एवं विवाह की इच्छा की बात बताती है। वह इसका विरोध करता है और फिर वहां से चला जाता है। इसी समय दुर्गादास का प्रवेश होता है और वह इन सब बातों को सुनकर औरंगजेब के संदेह को उचित मानता है।
दुर्गा दास के विरोध की भी परवाह ना करते हुए अजीत सिंह सफीयत को साथ चलने का प्रस्ताव देता है। यह देखकर सफीयत के सम्मान की रक्षा हेतु दुर्गादास तैयार हो जाता है। तभी मेवाड़ से अजीत सिंह का विवाह का प्रस्ताव आता है, जिसे वह दुर्गादास की चाल समझता है। दुर्गादास पालकी मंगवा कर सफीयत को बैठाकर चलने के लिए तैयार होता है, तो अजीत सिंह पालकी रोकते हुए दुर्गादास को चेतावनी देता है-
“दुर्गादास जी ! मारवाड़ में आप रहेंगे या मैं रहूंगा।”
दुर्गादास सधे हुए शब्दों में कहता है, “आप ही रहेंगे महाराज ! दुर्गादास तो सेवक मात्र है। उसने चाकरी निभा दी।”
ऐसा कहकर दुर्गादास जन्मभूमि को अंतिम बार प्रणाम करता है और यहीं पर नाटक की कथा समाप्त हो जाती है।
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