शिक्षा का व्यवसायीकरण पर निबंध: पहले के समय में शिक्षा को सबसे पवित्र काम माना जाता था। गुरु अपने शिष्यों को बिना किसी लालच के ज्ञान दिया करते थे। लेक
शिक्षा का व्यवसायीकरण पर निबंध (Shiksha ka Vyavsayikaran Essay in Hindi)
शिक्षा का व्यवसायीकरण पर निबंध: पहले के समय में शिक्षा को सबसे पवित्र काम माना जाता था। गुरु अपने शिष्यों को बिना किसी लालच के ज्ञान दिया करते थे। लेकिन आज के समय में शिक्षा एक “बिज़नेस” बन गई है। लाखों रुपये की फीस लेकर बड़ी-बड़ी इमारतों वाले स्कूल यह दावा करते हैं कि वही सबसे अच्छी शिक्षा दे सकते हैं। शिक्षा उस आदर्श से भटक चुकी है, जहाँ उसका उद्देश्य केवल व्यक्तित्व निर्माण था। अब शिक्षा एक महँगा उत्पाद बन चुकी है, जो पैसों से खरीदी जाती है और मुनाफे के लिए बेची जाती है।
शिक्षा का व्यवसायीकरण तब शुरू हुआ जब निजी संस्थानों ने इसे लाभ का साधन मान लिया। आज अधिकांश स्कूल और विश्वविद्यालय "रिज़ल्ट" और "ब्रांड वैल्यू" के नाम पर लाखों की फीस लेते हैं। सच्चाई यह है कि आज शिक्षा अमीरों के लिए आसान और गरीबों के लिए एक सपना बन गई है। एक साधारण स्कूल की फीस भी अब इतना ज़्यादा हो गई है कि एक मध्यमवर्गीय परिवार बच्चों की पढ़ाई के लिए कर्ज लेने को मजबूर हो जाता है।
बात केवल फीस की नहीं है, बात सोच की है। शिक्षा आज एक सेवा नहीं, बल्कि एक उद्योग बन चुकी है — जहाँ छात्र "ग्राहक" हैं, शिक्षक "कर्मचारी" और स्कूल एक "कंपनी"। इस प्रणाली में शिक्षा का मूल उद्देश्य — चरित्र निर्माण, सोचने की शक्ति, और नैतिक विकास — कहीं पीछे छूट गए हैं। शिक्षा का व्यवसायीकरण उस समाज का संकेत है जहाँ नैतिक मूल्य बाज़ार के मूल्यों से हार रहे हैं।
कोचिंग संस्थानों का खेल भी इसी मानसिकता का हिस्सा है। IIT, NEET, UPSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी के नाम पर लाखों की फीस ली जाती है। गाँव और कस्बों के हज़ारों बच्चे सपनों के शहरों में जाकर कोचिंग करते हैं, माता-पिता सब कुछ बेचकर उन्हें भेजते हैं। और नतीजा? केवल कुछ प्रतिशत ही सफल होते हैं, बाक़ी हताशा और आत्मग्लानि में डूब जाते हैं। बच्चे आठ-आठ घंटे की क्लास और टेस्ट में इतने उलझ जाते हैं कि उनमें से कई अवसाद और आत्महत्या की ओर बढ़ जाते हैं।
आज कई स्कूलों में किताबों से ज़्यादा ज़ोर "स्मार्ट बोर्ड", "एयर कंडीशन्ड क्लास", "इंटरनेशनल टूर" और "ब्रांडेड इंफ्रास्ट्रक्चर" पर दिया जाता है। शिक्षा का मतलब ज्ञान से अधिक अब एक ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है। माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल में नहीं, “ब्रांड” में डालना चाहते हैं — ताकि समाज में दिखा सकें कि “हमारे बच्चे फलां इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ते हैं।”
सरकारी शिक्षा प्रणाली की अनदेखी ने निजी संस्थानों को और बल दिया है। सरकारी स्कूलों में शिक्षक उपस्थित नहीं, संसाधन उपलब्ध नहीं, और गुणवत्ता का अभाव है। इसके विपरीत, निजी संस्थानों ने हर सुविधा के नाम पर फीस के दाम बढ़ा दिए हैं। बच्चा क्या सीख रहा है — यह गौण हो गया है, प्राथमिकता केवल इस बात पर है कि स्कूल की मार्केटिंग कितनी मज़बूत है।
शिक्षा का व्यवसायीकरण केवल आर्थिक असमानता को नहीं बढ़ाता, यह सामाजिक असंतुलन भी उत्पन्न करता है। एक बच्चा जिसकी माँ किसी गाँव की आँगनबाड़ी में काम करती है, और दूसरा बच्चा जो किसी शहर के महंगे बोर्डिंग स्कूल में पढ़ रहा है — दोनों की प्रतिभा भले ही समान हो, लेकिन अवसरों की खाई उन्हें दो अलग-अलग दुनियाओं में खड़ा कर देती है।
लेकिन सब कुछ नकारात्मक नहीं है। अभी भी ऐसे शिक्षक और संस्थाएँ हैं जो सही मायनों में ज्ञान का दीप जलाए हुए हैं। ऐसे लोग आशा की किरण हैं। जरूरत इस बात की है कि हम शिक्षा को बाजार नहीं, मिशन समझें। सरकार, समाज और नीति-निर्माताओं को यह तय करना होगा कि शिक्षा को व्यापार बनने से कैसे रोका जाए।हमें यह समझना होगा कि जब शिक्षा बिकने लगती है, तब सोच भी बिकने लगती है। और जब सोच बिकती है, तब समाज के निर्णय केवल बाजार तय करते हैं — फिर वह समाज अपने विवेक से नहीं, विज्ञापनों से चलता है।
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