प्रेस की स्वतंत्रता पर निबंध: प्रेस, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, समाज में सूचनाओं के संप्रेषण और जनमत निर्माण का एक सशक्त माध्यम है। एक प
प्रेस की स्वतंत्रता पर निबंध (Essay on Freedom of the Press in Hindi)
प्रेस की स्वतंत्रता पर निबंध: प्रेस, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, समाज में सूचनाओं के संप्रेषण और जनमत निर्माण का एक सशक्त माध्यम है। एक प्रबुद्ध समाज की नींव स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता पर ही टिकी होती है। "प्रेस की स्वतंत्रता" का आशय केवल सरकार की आलोचना करने की छूट से नहीं है, बल्कि यह उस अधिकार से जुड़ा है जिसमें पत्रकार बिना भय, दबाव या पक्षपात के सत्य को जन-जन तक पहुँचा सकें। यह स्वतंत्रता किसी भी लोकतंत्र की आत्मा होती है, और भारत जैसे विविधता-पूर्ण राष्ट्र में इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
स्वतंत्र प्रेस न केवल सूचनाओं को उपलब्ध कराता है, बल्कि वह एक प्रहरी की तरह सत्ता और समाज दोनों की गतिविधियों पर निगरानी भी रखता है। चाहे भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हो, सामाजिक अन्याय का उजागर करना हो या नीतियों की समीक्षा — एक निर्भीक और स्वतंत्र पत्रकारिता ही आमजन के हितों की रक्षा कर सकती है। जब प्रेस स्वतंत्र होता है, तभी वह सत्ता के केंद्रों से सवाल पूछ सकता है और जन-संवाद को जीवंत बनाए रख सकता है।
हालाँकि, स्वतंत्रता के इस आदर्श को व्यवहार में लाना अनेक बार चुनौतीपूर्ण सिद्ध होता है। भारत में संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी दी गई है, जिसमें प्रेस की स्वतंत्रता भी अंतर्निहित मानी जाती है। परंतु यह स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है। इसमें "राज्य की संप्रभुता", "सार्वजनिक व्यवस्था", "शालीनता और नैतिकता" जैसे कई प्रतिबंध निहित हैं, जो कभी-कभी प्रेस पर अनावश्यक नियंत्रण का आधार भी बन जाते हैं।
हाल के वर्षों में भारत में प्रेस की स्वतंत्रता पर अनेक प्रश्नचिह्न उठे हैं। कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा जारी की गई रिपोर्ट्स, जैसे कि "रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स" की प्रेस फ्रीडम इंडेक्स, में भारत की रैंकिंग लगातार गिरती जा रही है। पत्रकारों पर हमले, गिरफ्तारी, मीडिया हाउसों पर सरकारी दबाव, या विज्ञापन रोककर दबाव बनाने जैसी घटनाएँ चिंता का विषय बन चुकी हैं। कई बार कॉर्पोरेट स्वार्थ और राजनीतिक गठजोड़ भी समाचारों की निष्पक्षता पर प्रभाव डालते हैं, जिससे पत्रकारिता अपने मूल धर्म से भटकने लगती है।
दूसरी ओर, यह भी आवश्यक है कि प्रेस अपनी स्वतंत्रता के साथ जिम्मेदारी को भी समझे। कभी-कभी टीआरपी या वायरल होने के लोभ में मीडिया सनसनी फैलाने लगता है, जिससे तथ्यों की अनदेखी होती है और समाज में गलत संदेश पहुँचता है। विशेषकर सोशल मीडिया के दौर में, फेक न्यूज़ और आधी-अधूरी सूचनाएँ प्रेस की विश्वसनीयता को कमजोर करती हैं। प्रेस की स्वतंत्रता तब सार्थक होती है जब वह सत्य और विवेक के साथ जुड़ी हो, न कि केवल 'लाभ' के साथ।
प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा केवल संविधान या न्यायपालिका तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि समाज को भी इस स्वतंत्रता के महत्व को समझना होगा। पाठकों को भी यह समझना चाहिए कि प्रेस की स्वतंत्रता केवल पत्रकारों का अधिकार नहीं, बल्कि लोकतंत्र का एक अनिवार्य हिस्सा है। हमें ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा जहाँ पत्रकार बिना भय के कार्य कर सकें, जहाँ सत्ता की आलोचना को देशद्रोह न माना जाए, और जहाँ विचारों की विविधता का सम्मान हो।
अंततः, एक लोकतंत्र की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वहाँ कितनी स्वतंत्रता से विचार अभिव्यक्त किए जा सकते हैं, कितनी ईमानदारी से सत्ता से प्रश्न पूछे जा सकते हैं और कितनी निष्पक्षता से सूचनाएँ जनमानस तक पहुँचाई जा सकती हैं। प्रेस की स्वतंत्रता कोई विशेषाधिकार नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्तरदायित्व है, जिसकी रक्षा करना हम सबका कर्तव्य है। यदि हम इस स्तंभ को कमजोर होने देंगे, तो न केवल पत्रकारिता, बल्कि पूरा लोकतांत्रिक ढाँचा डगमगा जाएगा। अतः समय की माँग है कि हम प्रेस की स्वतंत्रता को केवल नारा न बनाएँ, बल्कि उसे व्यवहारिक और संरक्षित अधिकार के रूप में स्वीकार करें।
COMMENTS