कर्ण खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग श्रीकृष्ण और कृष्ण की कथावस्तु/सारांश: स्वभाव से शान्तिप्रिय युधिष्ठिर युद्ध को टालना चाहता था, अतः उसने श्रीकृष्ण को सं
कर्ण खण्डकाव्य के चतुर्थ सर्ग श्रीकृष्ण और कर्ण की कथावस्तु/सारांश
चतुर्थ सर्ग में श्रीकृष्ण और कर्ण का सारांश: स्वभाव से शान्तिप्रिय युधिष्ठिर युद्ध को टालना चाहता था, अतः उसने श्रीकृष्ण को संधि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास भेजा। कुटिल दुर्योधन भला सन्धि के प्रस्ताव को क्यों मानता ? श्रीकृष्ण निराश होकर वापस लौट गये। कृष्ण ने युद्ध को टालने का एक और उपाय सोचा। उन्होंने कर्ण को समझाया कि वह दुर्योधन को छोड़कर पाण्डवों के पक्ष में आ जाए। कृष्ण ने कर्ण को उसके जन्म का रहस्य भी बताया और कहा कि वह कुन्ती ज्येष्ठ पुत्र तथा पाण्डवों का बड़ा भाई है। यदि वह पाण्डवों के पक्ष में आ जाये तो राजा वही बनेगा। कर्ण ने दुर्योधन के द्वारा उसके प्रति किये गये उपकार बताकर विश्वासघात करने में विवशता प्रकट की। कर्ण ने अपनी माता कुन्ती के व्यवहार पर खेद प्रकट किया। यदि कुन्ती यह रहस्य कुछ पहले बता देती तो वह अनेक अपमानों से बच जाता। मैं कुंती का पुत्र हूँ, यह कहने के तो कुंती के पास कई अवसर आए–
यों न उपेक्षित होता मैं, यों भाग्य न मेरा सोता।
स्नेहमयी जननी ने यदि रंचक भी चाहा होता।।
घृणा, अनादर, तिरस्क्रिया, यह मेरी करुण कहानी।
देखो, सुनो कृष्ण! क्या कहता इन आँखों का पानी।
कर्ण आगे कहता है कि आज अधिरथ मेरे पिता और राधा मेरी माँ हैं। इन्हें छोड़कर कैसे मैं कुंती को अपनी माँ के रूप में ग्रहण कर लूँ? कैसे मैं मित्र दुर्योधन के प्रति कृतघ्न बनूँ, जिसने मुझ पर अपूर्व उपकार किया है? कृष्ण ने अर्जुन, भीम आदि की वीरता का भय भी दिखाया किन्तु कर्ण किसी भी तरह अपने निर्णय से टस से मस नहीं हुआ।वह कृष्ण से कहता है, "तुम अर्जुन को महावीर, अदम्य और अजेय कहते हो, लेकिन अर्जुन की वीरता तुम्हारे ही बल से है, अन्यथा वह कुछ भी नहीं।" मैं जानता हूँ, जिधर तुम हो, विजय उधर ही होगी। अर्जुन से जाकर कह देना कि अब तो मेरे पास कवच और कुंडल भी नहीं हैं, किन्तु मेरा पुरुषार्थ और आत्मबल ही मुझे यह बलिदान देने के लिए प्रेरित कर रहा है। आप यह बात कभी युधिष्ठिर से मत कहियेगा कि मैं उनका बड़ा भाई हूँ, अन्यथा वे यह राज-पाट छोड़ देंगे और दुर्योधन का कृतज्ञ होने के कारण मैं सब कुछ उसके चरणों पर धर दूँगा।
बहुत दिनों से मुझे एक आत्मग्लानि रही है कि द्रौपदी भरी सभा में अपमानित हुई थी और मैंने ही वह दुष्कर्म कराया था। अत: इस शरीर को त्यागकर अपने इस दुष्कर्म का प्रायश्चित करुँगा।
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