समष्टि की परिभाषा तथा इसकी विभिन्न पारस्परिक क्रियाओं का वर्णन कीजिए: समष्टि किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित समय पर निवास करने वाली समान जाति
समष्टि की परिभाषा तथा इसकी विभिन्न पारस्परिक क्रियाओं का वर्णन कीजिए।
समष्टि की परिभाषा: समष्टि किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में निश्चित समय पर निवास करने वाली समान जाति के जीवधारियों के समूह को समिष्ट कहा जाता है। दूसरे शब्दों में एक ही समय में एक ही क्षेत्र में रहने वाले, एक ही जाती के जीवों के समूह को समष्टि या जनसंख्या (population )कहते है।
समष्टि की पारस्परिक क्रियाएँ
किसी भी जीव जाति को अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए तथा न्यूनतम आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक और जाति की आवश्यकता होती है, जिसका उपयोग वह भोजन के रूप में कर सकें। जीवों के मध्य होने वाली वे क्रियाएँ जिसमें एक जीव से दूसरे को लाभ हो अथवा दोनों को एक-दूसरे से लाभ हो, पारस्परिक क्रियाएँ कहलाती हैं।
उदाहरण के लिए पौधों को आवश्यक पोषक तत्व सूक्ष्म जीवों द्वारा जटिल कार्बनिक पदार्थों के अपघटन क्रिया के फलस्वरूप प्राप्त होता है। इस प्रकार हम समझ सकते हैं, सूक्ष्म जीव पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने में सहायक होते हैं एवं पौधे इन जीवों को भोजन (कार्बोहाइड्रेड, स्टार्च) आदि देते हैं।
अन्तरजातीय पारस्परिक क्रियाएँ दो भिन्न जातियों की समष्टियों की पारस्परिक क्रिया से उत्पन्न होती हैं। ये क्रियाएँ किसी एक जाति या दोनों के लिए लाभदायक, हानिकारक या उदासीन हो सकती हैं। लाभदायक क्रियाओं को धनात्मक पारस्परिक क्रियाएँ एवं हानिकारक क्रियाओं को ऋणात्मक पारस्परिक क्रियाएँ कहते हैं।
जातियों में पारस्परिक क्रियाएँ एक-दूसरे सें लाभ, हानि तथा उदासीनता के आधार पर निम्नलिखित प्रकार की होती हैं- (i) परभक्षण, (ii) परजीविता, (iii) सहोपकारिता।
(i) परभक्षण (Predation ): परभक्षी जीव प्रायः मांसाहारी होते हैं, जो अन्य जीवों पर निर्भर रहकर जीवन यापन करते हैं। ये जीव मुख्यतः जन्तुओं को मारकर उनसे अपना भोजन ग्रहण करते हैं। पारिस्थितिकी के अनुसार परभक्षियों का अस्तित्व में होना भी आवश्यक होता उदाहरण के लिए यदि पौधों को खाने वाले जीव या पौधों के उत्पाद को खाने वाले जीव अस्तित्व में न रहें, तो इनकी स्थिर ऊर्जा का खर्च भी नहीं हो पायेगा एवं नयी ऊर्जा का रूपान्तरण पुनः नहीं होगा ।
परभक्षी में मुख्यतः शेर, बाघ, लकड़बग्घा (Hyena), लोमड़ी, कीड़े, छिपकली आदि जीव दूसरे जीवों का भक्षण करके पारिस्थितिकी में समष्टि को नियंत्रण रखने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त ये पोषी स्तर पर ऊर्जा स्थानान्तरण में सहायक होते हैं। परभक्षी एकाहारी (Monophagous) अल्पभक्षी (Oligophagous) तथा विविध भक्षी (Polyphagous) हो सकते हैं। परभक्षी द्वारा समष्टि नियंत्रण को पारिस्थितिक तंत्र में खाद्य शृंखला क्रम में देखा जा सकता है । सर्प द्वारा भक्षण में चूहों की संख्या का क्रम रूप से कम हो जाना । स्पर्शी जातियों के मध्य स्पर्धा को कम करके समुदाय में जातियों की विविधता बनाए रखने से परभक्षी सहायक होते हैं। कभी-कभी यदि परभक्षी अपने शिकार का अधिक भक्षण करता है, तो हो सकता है कि एक समय के बाद शिकार विलुप्त हो जाए एवं परभक्षी भी भोजन के अभाव से विलुप्त हो जाएँ। उदाहरण के लिए बहुत समय पहले डायनासोर का अस्तित्व से विलुप्त हो जाना। हालांकि डायनासोर केवल भोजन के कारण ही नहीं विलुप्त हुआ होगा, इसके और भी कई कारण होंगे।
कुछ जन्तुओं द्वारा परभक्षी से बचने के लिए अनुकूलता का विकास करना - स्वयं को परभक्षियों या शत्रुओं से बचाने के लिए जातियों ने विभिन्न रक्षा विधियाँ विकसित कर ली हैं। कुछ कीट, मेढ़क, गिरगिट आदि जातियों में रंग परिवर्तन करने का गुण होता है, जिससे वे स्वयं को परभक्षियों के शिकार से बचा सकते हैं। रंग परिवर्तन की क्रिया को छद्मावरण (Camouflaging) कहा जाता है। कुछ जातियाँ विषैले पदार्थ स्रावित करती हैं, जैसे मोनार्क तितली के शरीर से विशिष्ट रसायन स्रावित होता है, जिससे ये स्वाद में खराब लगती हैं।
(ii) परजीविता (Parasitation): परजीवी जन्तु दूसरे जन्तुओं के शरीर में रहकर पोषण ग्रहण करते हैं, परजीवी, परपोषी की केवल एक ही जाति पर जीवन व्यतीत करते हैं। अतः ये परपोषी विशिष्ट के रूप में विकसित होते हैं।
परपोषी जीव की बाह्य पृष्ठ से आहार आपूर्ति करने वाले परजीवी बाह्य परजीवी (Exoparasite) कहलाते हैं। जूँ, बाह्य परजीवी की तरह निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त कुत्तों पर क् (चिचिंडयाँ), समुद्री मीण, अमर बेल आदि परजीवी परपोषी की बाह्य सतह से आहार आपूर्ति करते हैं। कस्कुटा (अमरबेल) बड़े वृक्षों पर वृद्धि करता है, विकास प्रक्रिया के दौरान इसकी पर्णहरिम और पत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं। यह दूसरे पौधे पर रहकर अपना भोजन लेता है। साधारणतः झाड़ियों पर पीले रंग का जाल जैसा दिखाई देता है। बाह्य परजीवी के अतिरिक्त कुछ ऐसे जन्तु जो दूसरे जन्तुओं के शरीर के भीतर पाये जाते हैं, उन्हें अन्तः परजीवी (Endoparasite) कहते हैं। एस्कैरिस, फीताकृमि, बैक्टीरियोफेज आदि अन्तःपरजीवी कहलाते हैं। ये जन्तु शरीर के यकृत, गुर्दा, फेफड़ा, RBCs आदि में रहते हैं ।
परजीवियों का एक और उदाहरण अण्डपरजीविता का है। अण्डपरजीवी पक्षी अपने अण्डे को दूसरे पक्षियों के घोंसले में रख देती हैं, परपोषी पक्षी अण्डे को अपना अण्डा समझकर सेती है। इसके लिए परजीवी पक्षी के अण्डे आकार, रचना में परपोषी अण्डों के सदृश दिखते हैं, ताकि परपोषी पक्षी अण्डे को पहचान न पाए। जीवन शैली के अनुरूप परजीवी ने विशेष अनुकूलतायें विकसित किये, जिनमें अनावश्यक अंगों का अभाव, परपोषी जन्तुओं से चिपकने के लिए चूषक अंगों का विकास, पाचन तंत्र अल्प विकसित अथवा अविकसित, उच्च जनन क्षमता आदि हैं। परजीवी विकास में जन्म से लेकर विकास तक एक या अधिक माध्यमों का सहारा लेते हैं ।
उदाहरण के लिए लिवर फ्लूक अपने जीवन चक्र को दो माध्यमों घोंघा एवं मछली की सहायता से पूरा करता है। इसी तरह मलेरिया परजीवी मनुष्य एवं मच्छर में रहकर अपना जीवन चक्र पूरा करता है। मलेरिया परजीवी प्लाज्मोडियम मलेरिया रोग का कारक होता है। परजीविता में केवल एक ही जीव को लाभ होता है।
(iii) सहोपकारिता (Symbiosis) : सहोपकारिता (सहजीविता) वह प्रक्रिया है, जिसमें कार्य करने वाले दोनों जातियों को लाभ होता है । उदाहरण के लिए राइजोबियम जीवाणु तथा अन्य सूक्ष्म जीव जो नाइट्रोजन स्थिरीकरण में भाग लेते हैं, वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को पौधों के लिए उपयोगी पदार्थ के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। इसी क्रिया में पौधे सूक्ष्म जीवों को भोजन (कार्बोहाइड्रेड) प्रदान करते हैं। इसका एक अन्य उदाहरण लाइकेन का पौधा है। यह कवक एवं प्रकाश संश्लेषी शैवाल के सहयोग से बनता है। परागण एवं बीज प्रकीर्णन की क्रिया भी सहोपकारिता का एक और उदाहरण है, जिसमें कीट, जन्तु फूलों से भोजन रूपी रस, बीज आदि ग्रहण करते हैं। कुछ जन्तु बीजों को जमीन खोदकर उसके अन्दर रख देते हैं कि वे बाद में इसे खाएँगे । लेकिन उनके द्वारा भूल जाने पर बीज से नये पौधे का जन्म होता है। इसी प्रकार मधु - मक्खियाँ फूलों के रस को पाने के लिए एक पौधे से दूसरे पौधे पर जाती है, जिससे पुष्प परागण में सहायता मिलती हैं।
सहोपकारिता पारस्परिक क्रिया में पौधे एवं जन्तु का प्रायः सह विकास शामिल है। कुछ विशेष पादपों में विशिष्ट जातियों द्वारा ही परागण क्रिया हो सकती हैं अन्यथा नहीं। उदाहरण के लिए अंजीर की जाति केवल बर्र जाति से ही परागित हो सकती है। दूसरी अन्य जाति से नहीं। मादा बर्रे अंजीर के फल का प्रयोग अण्डे देने एवं लार्वा के पोषण के लिए करती है। बदले में मादा बर्रे पुष्प को परागित करती है ।
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