मरुस्थलीय पादपों एवं जंतुओं के अनुकूलन पर टिप्पणी लिखिए: मरुस्थलीय पौधों की स्टोमैटा ( रन्ध्र) पर मोम जैसा आवरण रहता है। इससे पौधों में वाष्पोत्सर्जन
मरुस्थलीय पादपों एवं जंतुओं के अनुकूलन पर टिप्पणी लिखिए
मरुस्थलीय पादपों और जंतुओं के अनुकूलन- कम वर्षा वाले स्थान की जलवायु शुष्क हो जाती है तथा मिट्टी रेतीली एवं मृत हो जाती है। ऐसे स्थानों को मरुस्थल या रेगिस्तान कहा जाता है। इस प्रकार के आवासों में उगने वाली वनस्पतियों को मरुदभिद (Xerophytes) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इन आवासों में पाये जाने वाले प्राणियों (जंतुओं) को मरुस्थलीय प्राणी से सम्बोधित किया जाता है। मरुस्थलीय क्षेत्रों में पायी जाने वाली मिट्टी में जल उपस्थित होने के बाद भी पौधों द्वारा इनका उपयोग नहीं हो पाता है। ऐसे स्थान में लवण, अम्ल की अधिकता हो सकती है।
मरुस्थलीय / मरुद्भिद पादपों में अनुकूलन निम्नलिखित हैं-
- कुछ मरुस्थलीय पौधों की स्टोमैटा ( रन्ध्र) पर मोम जैसा आवरण रहता है। इससे पौधों में वाष्पोत्सर्जन की क्रिया कम होती है। कुछ पौधों में रन्ध्र कम होते हैं तथा ये रात्रि के समय खुलते हैं।
- प्रायः मरुस्थलीय पौधों की जड़ें भूमि में अधिक गहराई तक जाती हैं। इन जड़ों में मूलरोम एवं मूलगोप सुविकसित होते हैं। उदाहरण-एस्पैरैगस।
- मरुस्थलीय पौधे पानी और भोजन को संग्रहित करने के लिए मांसल होते हैं.
- मरुस्थलीय पादपों में पत्तियाँ काँटों में रूपान्तरित हो जाती हैं। कुछ पौधों में पर्णवृन्त पर्णफलक में रूपान्तरित हो जाता है। पर्णफलक प्रकाश संश्लेषण में सहायक होता है। पत्तियों की चिकनी सतह ऊष्मा को परावर्तित करने में सहायक होती हैं। जैसे - नागफनी में काँटेदार रूपान्तरित पत्तियाँ, पार्किन्सोनिया में रूपान्तरित पर्णफलक।
- मरुस्थलीय पादपों की काष्ठीय, मोटी छाल वाला तना पत्तियों का कार्य करता है। जैसे-नागफनी।
- हाइपोडर्मिस या अधस्त्वचा बहुस्तरीय होती है।
- वैस्कुलर बण्डल (संवहन ऊतक ) बहुस्तरीय कोशिकाओं द्वारा घिरे रहते हैं।
मरुस्थलीय / मरुद्भिद जंतुओं में अनुकूलन-
- मरुस्थलीय जंतुओं में सबसे पहला नाम रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊँट का आता है। ऊँट के पैरों के पंजें मोटे गद्देदार एवं चौड़े होते हैं, जो इन्हें मरुस्थल में चलने के अनुकूल बनाता है। इनमें विकसित कूबड़ (Hump) में वसा एकत्रित रहता है, जो इन्हें कम प्यास की अनुभूति कराता है। ऊँट रेगिस्तान में लगभग 15 से भी अधिक दिन तक बिना पानी पिये कार्य कर सकता है।
- मरुस्थलीय रोडेण्ट्स (कुतरने वाले चूहे, गिलहरी), सूखे बीजों, रसेदार (गुदेदार) कैक्टस तथा दूसरे पौधों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं। इनसे इन्हें पानी की आपूर्ति हो जाती है। ये जंतु दिन के समय बिल में रहते हैं, ताकि वाष्पोत्सर्जन कम हो एवं जल के ह्रास को कम किया जा सके। ये उत्सर्जन क्रिया में सान्द्र मल-मूत्र का त्याग करते हैं।
- मरुस्थल में पाये जाने वाले बाह्योष्मी जीवों के लिए शीत निद्रा अत्यन्त आवश्यक होती है
- रेगिस्तान में रहने वाली छिपकलियाँ तथा सर्प शीत ऋतु में जमीन में लगभग आधा मीटर गहराई में चले जाते हैं।
- रेत में रहने वाले जंतु आँखों, कानों एवं नासाद्वार की सुरक्षा लिए कई अनुकूलताएँ विकसित कर लिए हैं। जैसे- आँखों को पतले कवच द्वारा सुरक्षित रखना। ऊँट की आँखों में लम्बे घने बरौनियाँ से आँखों की सुरक्षा होती है।
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