दुष्यन्त का चरित्र चित्रण: राजा दुष्यन्त अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक के नायक हैं। वह धीरोदात्त कोटि के नायक हैं। वह पुरुवंशी राजा हैं। दुष्यन्त के चरित्र
दुष्यन्त का चरित्र चित्रण - Dushyant Ka Charitra Chitran
दुष्यन्त का चरित्र चित्रण: राजा दुष्यन्त अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक के नायक हैं। वह धीरोदात्त कोटि के नायक हैं। वह पुरुवंशी राजा हैं। दुष्यन्त के चरित्र की कुछ विशेषतायें इस प्रकार हैं-
शारीरिक सौष्ठव एवं पराक्रम
शारीरिक सौष्ठव की दृष्टि से राजा दुष्यन्त अत्यन्त सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हैं। उनकी आयु लगभग 30-35 वर्ष है। उनके शारीरिक सौन्दर्य से सभी प्रभावित हो जाते हैं। उनके सौन्दर्य को देखकर प्रियंवदा कहती है " को नु खल्वेष चतुरगम्भीराकृतिर्मधुरं प्रियमालपन् प्रभाववानिव लक्ष्यते ।"
वह नितान्त परिश्रमी और मृगया प्रेमी हैं। वह धनुष की टंकार मात्र से ही यज्ञ में विघ्न उपस्थित करने वाले राक्षसों को भगा देते हैं। उनका पराक्रम इतना अधिक है कि स्वयं इन्द्र भी दानवों का वध करने के लिए उन्हें स्वर्ग बुलाते हैं।
मृदुभाषी एवं स्नेही राजा
दुष्यन्त मधुर वाणी बोलने वाले राजा हैं। प्रियंवदा उनकी मधुर वाणी की प्रशंसा करती है। उनके विचार उच्चकोटि के और सन्तुलित हैं। वह जब तक यह निश्चय नहीं कर लेते कि शकुन्तला क्षत्रिय कन्या है तब तक वह उससे विवाह का विचार अपने मन में नहीं लाते हैं। वह एक उच्चकोटि के प्रेमी और उत्तम पति हैं। नाटक के तृतीय अंक में शकुन्तला की अवस्था देखकर वह उससे पाणिग्रहण और रक्षा की स्वीकृति देता है तथा कृशकाय शकुन्तला की सेवा शुश्रूषा भी करता है।
सहृदय और संयमी
राजा दुष्यन्त सहृदय और संयमी है। षष्ठ अंक में धनमित्र नामक व्यापारी की मृत्यु पर वह शोक प्रकट करते हैं । उनको सन्तानहीनता का बहुत दुःख है। वह धन के लोभी नहीं हैं। प्रजा की रक्षा को ही वह अपना मुख्य धर्म समझते हैं। वह सदैव दुःखियों के दुःख को दूर करने के लिए तत्पर रहते हैं। वह शाप के प्रभाव के परिणामस्वरूप शकुन्तला को नहीं पहचान पाते हैं। वह परस्त्री की ओर देखना पाप समझते हैं "अनिवर्णनीयं परकलत्रम् ।"
उत्तम शासक
दुष्यन्त उच्चकोटि के शासक हैं। उनमें एक सफल शासक के सभी गुण विद्यमान हैं। वह कर्तव्यपरायण, सहृदयी, संयमी, निर्भीक, पराक्रमी और विनीत हैं। वह आश्रम में उपस्थित विघ्नों को दूर करके अपनी कर्तव्यपरायणता का परिचय देते हैं। वह इन्द्र की सहायता करके अपने पराक्रम को प्रकट करते हैं। शाप का प्रभाव समाप्त होने के पश्चात् वह अत्यन्त दुःखित होते हैं और अपनी सहृदयता का परिचय देते हैं ।
अन्य गुण
राजा दुष्यन्त मातृभक्त और आज्ञाकारी पुत्र हैं। नाटक के द्वितीय अंक में माता की आज्ञा प्राप्ति के पश्चात् स्वयं ऋषिकार्य में व्यस्त होने के कारण वह अपने स्थान पर शीघ्र ही विदूषक को भेजता है । वह कला प्रेमी है। नाटक के पंचम अंक में रानी हसंपदिका के संगीत को सुनकर वह मन्त्रमुग्ध हो जाता है। वह कुशल चित्रकार भी है। षष्ठ अंक में हमें उसकी चित्रकला में प्रवीणता के दर्शन होते हैं जब वह शकुन्तला के अपूर्ण चित्र को पूर्ण करते हैं ।
राजा दुष्यन्त ऋषियों के प्रति विशेष आदरभाव रखते हैं। यही कारण है कि प्रथम अंक में तपस्वी के कहने पर वह मृग पर बाण नहीं चलाते । वह अत्यन्त शिष्ट वेष में आश्रम में प्रवेश करते हैं।
इस प्रकार महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक में नाटक के नायक दुष्यन्त के उदात्त चरित्र को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है।
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