अन्धायुग के युधिष्ठिर का चरित्र चित्रण: युधिष्ठिर पाण्डवों के अग्रज और धर्मराज हैं। शासन के वास्तविक उत्तराधिकारी होने के बावजूद धृतराष्ट्र उनको शासन
अन्धायुग के युधिष्ठिर का चरित्र चित्रण
अन्धायुग के युधिष्ठिर का चरित्र चित्रण: युधिष्ठिर पाण्डवों के अग्रज और धर्मराज हैं। शासन के वास्तविक उत्तराधिकारी होने के बावजूद धृतराष्ट्र उनको शासन सूत्र न सौंपकर अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बना देते हैं। इसी अन्याय को लेकर महाभारत युद्ध हुआ था। 'अन्धायुग' में युधिष्ठिर का चरित्राँकन पूर्व रूप में ही हुआ है। वह अत्यन्त शन्तिपूर्ण और विरक्त स्वभाव के हैं। उन्होंने आजीवन सत्यव्रती रहने का निर्णय किया किन्तु फिर भी एक बार कृष्ण के अत्यधिक दबाव डालने पर उन्हें एक अर्द्धसत्य बोलना पड़ा था। भीम ने अश्वत्थामा नामक एक हाथी का वध किया और युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य के सामने जोर से यह कह दिया कि अश्वत्थामा मारा गया और इसके बाद उनका सारथी रथ को द्रोण से दूर उड़ा ले गया तथा द्रोण युधिष्ठिर का धीमे से कहा गया यह कथन नहीं सुन सके कि 'नरो वा कुंजरी वा'। इसी एक झूठ के कारण द्रोणाचार्य की हत्या हो गयी और अश्वत्थामा उनके इस झूठ से भड़क उठता है। उसके मन में प्रतिहिंसा की ज्वाला सुलग उठती है और उसे युधिष्ठिर से चिढ़ हो जाती है क्योंकि उन्हीं के झूठ ने उसके पिता की हत्या की है। इस घृणा और प्रतिहिंसा ने उसके शान्त जीवन को परिवर्तित कर दिया और वह मनुष्यता त्याग कर पशु बन जाने की घोषणा करता है। युधिष्ठिर की इस अर्द्धसत्यजन्य घृणा को वह कई स्थलों पर स्पष्ट व्यक्त करता है -
'अर्द्धसत्य से ही
युधिष्ठिर ने उनका
वध कर डाला ।
उस दिन से
मेरे अन्दर भी
जो शुभ था, कोमलतम था
उसकी भ्रूण हत्या
युधिष्ठिर के अर्द्धसत्य ने कर दी
धर्मराज होकर वे बोले
'नर वा कुंजर'
मानव को 'पशु से
उन्होंने पृथक नहीं किया ।'
अथवा
'एक अर्द्धसत्य ने युधिष्ठिर के
मेरे भविष्य की हत्या कर डाली है।'
युधिष्ठिर चाहे अश्वत्थामा की इस घणा से अनजान हों किन्तु उन्हें अपने आचरण की शुद्धता पर विश्वास नहीं रह गया था। महाभारत ने उनकी अन्तरात्मा को झिंझोड़ डाला। वह विजयी थे और शासनारूढ़ हो गए थे किन्तु भावी दुश्चिन्ताओं ने व्यथित और प्रायः जर्जर कर डाला था भावी विकृत युग के सपने सदैव उनके माथे पर चिन्ता की रेखाओं के रूप विद्यमान थे-
'थे एक युधिष्ठिर
जिनके चिन्तित माथे पर
थे लदे हुए भावी विकृत युग के सपनें'
वह जानते थे कि कृष्ण शापग्रस्त हो चुके हैं। उनके अवसान के उपरान्त युद्धजन्य विभीषका और उत्पीड़न युग के समस्त ज्ञान को नष्ट कर डालेगा लंगड़ी संस्कृति लड़खड़ा कर गिर पड़ेगी और समस्त संसार में अज्ञान, जड़त और कुण्ठाएँ व्याप्त हो जाएँगी । इसीलिए वह प्रायः चिन्तित रहा करते और चिन्तन में तल्लीन रहा करते थे-
'सीढ़ी पर बैठे घुटनों पर माथा रक्खे
अक्सर डूबे रहते थे निष्फल चिन्तन में
देखा करते थे सूनी-सूनी आँखों से
बाहर फैले-फैले निस्तब्ध तिमिर घन में ।'
उनकी चिन्ता का प्रमुख विषय था कि इस युद्ध ने उन्हें क्या दिया? वह कौन-सी उपलब्धि है जो युद्ध से उन्होंने प्राप्त की? वरन् इसने तो उनके मन व शांति को ही छीन लिया है, उन्हें अशान्त बना दिया है। झूठ, छल, भीषण नरसंहार और हिंसा से विजय प्राप्त करके भी अपने को पराजित अनुभव करना यही उनकी उपलब्धि है और इसी उपलब्धि की यातना को वह भोगने को विवश हैं-
'ऐसे भयानक महायुद्ध को
अर्द्धसत्य, रक्तपात, हिंसा से जीतकर
अपने को बिल्कुल हारा हुआ अनुभव करना
यह भी यातना ही है।'
विजय प्राप्त करने के उपरान्त युधिष्ठिर यह अनुभव करते हैं कि उनके सभी भाई अज्ञानी, मूर्ख, घमण्डी अथवा खोखले हो गए हैं। भीम के व्यवहार से तो वह अत्यधिक खिन्न हो गए हैं, क्योंकि वह बार-बार युयुत्सु का अपमान करता रहता है। युधिष्ठिर जानते हैं कि भीम के ही व्यवहार से खिन्न होकर धृतराष्ट्र और गाँधारी वन मे चले गए और तब से युयुत्सु उन्हीं के आश्रित है किन्तु भीम फिर भी अपने दंभ में उसका अपमान करने से नहीं चूकता। इससे युधिष्ठिर को मानसिक आघात पहुँचता है-
'जिनके लिए युद्ध किया है
उनको यह माना कि वे सब कुटुम्बी अज्ञानी हैं,
जड़ हैं, दुर्विनीत हैं, या जर्जर हैं।'
युधिष्ठिर इस बात से व्यथित हैं कि जो राज्य उन्होंने प्राप्त किया है उसके सिंहासन के पीछे चूँकि अज्ञान और अंधता की कभी न नष्ट होनेवाली परम्परा जुड़ी है, इसलिए उससे स्वस्थ शासन और जन-कल्याण सम्भव ही नहीं है। सिंहासन ही नहीं बल्कि राज्य की प्रजा भी उसी अंधे शासन की विकृतियों से ग्रस्त है तथा उसी में जीने की आदी है। ऐसे में शासक यदि बदल भी जाएँ तो भी वह नियमों में परिवर्तन नहीं कर सकता-
"सिंहासन प्राप्त हुआ है जो
यह माना कि उसके पीछे अंधेपन की
अटल परम्परा है;
जो हैं प्रजाएँ
यह माना कि वे पिछले शासन के
विकृति साँचे में हैं ढली हुई ।"
यही सोचते-सोचते वह गहन अंधकार में ऐसे भयावह और अनिष्टकारी अमंगल के विषय में सोचने लगते हैं, जिनकी कल्पना ही व्यक्ति को कँपकँपा देती है। उन्हें यह भी कम कष्टकर नहीं लगता कि हत्यारे अश्वत्थामा की मणि को वह अपने शीश पर धारण करें और ऐसे क्लेशयुक्त वातावरण में भी जीवन को बनाये रखें। किन्तु वह अपनी दुश्चिन्ताओं, भावी अमंगल की कल्पना और अपनी वैयक्तिक चिन्ताओं के विषय में किसी से कुछ कह भी तो नहीं सकते। अपने उस अज्ञानी, घमण्डी और जर्जर परिवार के प्रति उन्हें विशेष चिन्ता है जो अपने दर्प में भविष्य में घटित होनेवाले अमंगल के प्रति असावधान हैं-
"यह है मेरा
हासोन्मुख कुटुम्ब,
जिसे कुछ ही वर्षों में बाहर घिरा हुआ
अंधेरा निगल जाएगा,
लेकिन जो तन्मय हैं भीम के
अमानुषिक विनोदों में।"
इन सब दुराशाओं-आशँकाओं ने उन्हें जीवन से ही विरक्त कर दिया है। सिंहासन का सुखोपभोग उन्हें कष्टकर और अप्रीतिकर अनुभव होता है क्योंकि वह एक असफल शासक हैं, जो न तो दण्ड ही दे पाते हैं और न दया ही प्रदर्शित कर पाते हैं। वह अपने परिवार को ही नियंत्रण में नहीं रख पाते तो फिर प्रजा उनके नियंत्रण में कैसे रह सकती है। धतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती के वन में जल मरने के समाचार ने उन्हें तोड़ डाला था और निकट भविष्य में कृष्ण के अवसान का ध्यान आते ही वह अत्यधिक विक्षुब्ध होकर विदुर से हिमालय के शिखरों में जाकर गल मरने की बात कहने लगते हैं-
"और विजय व्या है?
एक लम्बा और धीमा
और तिल-तिल कर फलीभूत
होनेवाला आत्मघात
और पथ कोई भी शेष
नहीं है अब मेरे आगे ।"
अन्ततः हम यही कह सकते हैं कि युधिष्ठिर के चरित्र में केवल शान्ति कामना है। बरबस थोपे गए युद्ध ने उन्हें असत्य भाषण के लिए विवश किया और युद्ध से उन्हें घोर वित ष्णा है। यह वित ष्णा उनके समग्र चरित्र का मेरूदण्ड है और इस कृति में तो उनके केवल इसी वित ष्णा रूप का ही मर्मस्पर्शी चित्राँकन हुआ है। अपनी इस भावना से उन्होंने शासक का पद भी छोड़ दिया था। उनके चरित्र की विशेषताएँ नाटक के संवाद में आद्योपांत दिखाई देती हैं।
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