चाणक्य का चरित्र चित्रण- बाबू जयशंकर प्रसाद के ‘चंद्रगुप्त' नाटक का एक प्रमुख पात्र चाणक्य है। शरीर में मेरुदंड के समान नाटक के कथानक में चाणक्य के चर
चाणक्य का चरित्र चित्रण - Chanakya Ka Charitra Chitran
चाणक्य का चरित्र चित्रण- बाबू जयशंकर प्रसाद के ‘चंद्रगुप्त' नाटक का एक प्रमुख पात्र चाणक्य है। शरीर में मेरुदंड के समान नाटक के कथानक में चाणक्य के चरित्र की प्रधानता है। नाटक का सारा ढाँचा उसी पर खड़ा हुआ है। नाटक में उसके काम शरीर में नसों के समान फैले हुए हैं। सतर्कता, गौरवमय गंभीरता और दूरदर्शिता - चाणक्य के इन गुणों का परिचय हमें नाटक के प्रथम दृश्य में ही मिल जाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार चाणक्य ही नाटक का नायक है ।
सतर्कता तथा गंभीरता
तक्षशिला की राजीनीति पर दृष्टि रखने की बात - सिंहरण के भुख से सुनते ही चाणक्य सतर्क होकर शिक्षकोचित प्रश्न कर उसकी परीक्षा लेता है - "जानते हो कि यवनों के दूत यहाँ क्यों आये हैं?" आवेश में आकर उद्धत स्वभाववाला आम्भीक तलवार चला देता है। तब चाणक्य गौरवमय गंभीरता से राजकुमारी को आज्ञा देता हैं – ‘“मैं गुरुकुल का अधिकारी हूँ। मैं आज्ञा देता हूँ कि गोधाभिमूत कुमार को लिवा ले जाओ । गुरुकुल में शस्त्रों का प्रयोगं शिक्षा केलिए होता है । द्वंद्व युद्ध केलिए नहीं ।"
दूरदर्शिता
चाणक्य देश की स्थिति से पूर्ण जानकारी रखता है। इसलिए वह दूरदर्शी राजनीतिज्ञ की भाँति चंद्रगुप्त को समझाता है – “मुझे लोगों को समझाकर शस्त्रों का प्रयोग करना पडेगा ।... आगामी दिवसों में जब आर्यावर्त के सब स्वतंत्र राज्य एक के अनंतर दूसरे विजेता से पद - दलित होंगे।" मगध अमात्य पूछते हैं - "तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त प्रतिनिधि बनकर जाना चाहते हो या मृत्यु।" यह सुनकर चाणक्य अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहता है - "जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिए नहीं और सुनो, पर्वतेश्वर का नाश करने केलिए तो कदापि नहीं।"
ब्राह्मणत्व तथा धीरता
ब्राह्मत्व का अहं चाणक्य में बहुत प्रबल है। प्रखर बुद्धि और अनंत शक्ति रखते हुए भी उस बुद्धि और शक्ति का दुरुपयोग नहीं करता । लोक कल्याण में रत रहना ही उनकी दृष्टि में ब्राह्मणत्व का आदर्श हौ । वह स्वयं कहता है – ‘“चंद्रगुप्त। मैं ब्राह्मण हूँ। मेरा साम्राज्य करुणा का था, मेरा धर्म प्रेम का था ।.... बौद्धिक विनोद कर्म था, संतोष धन था। " ब्राह्मण के इस आदर्श का अंत तक पालन करता है। धीरता चाणक्य का जन्मजात लक्षण है। धीरता का परिचय उसके प्रत्येक कथन से मिलता है। अपमानित होने पर वह नंद की सभा में गरज उठता है – “खींच ले ब्राह्मण की शिखा। शूद्र के अन्न से पले हुए कुत्ते। खींच ले। परंतु यह शिखानंद कुल की काल सर्विणी है, वह तब तक न बंधन में बंधेगी जब तक नंदकुल निःशेष न होगा । "
चाणक्य साहसी भी है। घोरे से घोरे विपत्तियों में भी नहीं घबराता। जिस प्रकार पौधे अंधकार में बढते है, उसी प्रकार उसकी नीतिकाला विपत्ति - काल में लहलहाती है। वह एकाकी होकर भी नंद, पर्वतेश्वर, आम्भीक, राक्षस, सिकंदर और सिल्युकस आदि महान शक्तियों से टक्कर लेतो है और अपने बुद्धि - बल से उन्हें पराजित करता है।
सिद्धांतप्रद तथा क्षमाशील
वह कठोर सिद्धांतप्रद है। वह अपनी प्रतिज्ञा, "दया किसी से न मागूँगा और अधिकार मिलने पर किसी पर न दिखाउँगा” का सतत पालन करता है। राष्ट्रीयता उसका सिद्धान्त है। वह चंद्रगुप्त और सिंहरण से कहता है – “मालव और मगध को भूलकर जब तुम आर्यावर्त का नाम लोगे, तभी वह मिलेगा।”
वह त्यागी और क्षमाशील भी है। सुवासिनी को अपने प्रतिद्वन्द्वी राक्षस के हाथों में सौंपकर अपने त्याग का परिचय देता है। वह चंद्रगुप्त से कहता है - " राजा न्याय कर सकता है, परंतु ब्राह्मण क्षमा कर सकता है।" वह क्रूरता भी अवश्य है। कितु उसकी क्रूरता जन्म- जात न होकर परिस्थिति जन्य है। फिर भी उसमें मनुष्य का हृदय है। बाल्यकाल की सहचरी सुवासिनी की स्मृति एकदम उसके स्मृति - पटल से विलीन न हुई ।
राजनीतिज्ञ
एक कुटिल राजनीतिज्ञ के रूप में चाणक्य का चरित्र बहुत ही प्रसिद्ध है। उसका नाम कौटिल्य भी है। अपने राजनीतिज्ञ की पहली पहचान यह है कि उसे मनुष्यों और परिस्थितियों की खरी परख होनी चाहिए। चंद्रगुप्त को देखते ही उसने पहचान लिया था कि वह राजा होने के योग्य है । वह देश की परिस्थितियों को समझकर इस निर्णय पर पहुंचता - (1) विदेशियों को निकालना है। (2) चंद्रगुप्त को सम्राट बनाना है। फिर वह योजना बना लेता है।
चाणक्य विशुद्ध परिणामवादी है। परिणाम में भलाई ही उसके कामों की कसौटी है। वह स्वयं कहता है – “केवल सिद्धि देखता है, साधन चाहे कैसे ही हों।" मालविका की जान लेने में वह कोई संकोच नहीं करता। कल्याणी आत्महत्या करती है तो वह एक दम सहज भाव से कहता है - "चंद्रगुप्त आज तुम निष्कंटक हो।"
उपसंहार
चाणक्य सैनिक नहीं था, किंतु उसने सेनापतियों को रण - संचालन की नीति सिखायी। वह दरिद्र था, पर उसने सम्राटों पर भी शासन किया। चाणक्य विधाता की एक आश्चर्य सृष्टि कह सकते हैं। उस के चरित्र का अत्यन्त उकृष्ट एपं उज्ज्यल रूप हमारे सामने तब आता है जब वह चंद्रगुप्त को मेघ - मुक्त चंद्र देखकर तथा अपने प्रतिद्वंद्वी राक्षस को मंत्रिपद सौपकर रंगमच से चुपचाप हट जाता है।
अंत में विश्वंभर मानव के शब्दों में हमें भी यह कहता है, "उसके कर्म- पादप को यद्यपि अपमान की प्रतिकार - भावना और दिव्य यश के अर्जन का खाद्य भी मिला है; पर राष्ट्रप्रेम की रसधारा के सतत चिंतन से क्रूरता के काँटों में रक्षित निस्पृहता का पुण्य और देश- गौरव का फल जो उसने भेंट किया, वह वर्णनातीत है। "
निष्कर्ष
यह कहना अनुचित न होगा कि चाणक्य नाटक का प्रधान पात्र या नायक कहलाने योग्य है।
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