नमक का दारोगा कहानी का सारांश: 'नमक का दारोगा' शीर्षक कहानी प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानियों में से एक है। यह एक सोद्देश्य रचना है। इस कहानी को आदर्शोन्
नमक का दारोगा कहानी का सारांश
नमक का दारोगा कहानी का सारांश: 'नमक का दारोगा' शीर्षक कहानी प्रेमचंद की बहुचर्चित कहानियों में से एक है। यह एक सोद्देश्य रचना है। इस कहानी को आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी रचना भी कहा जा सकता है। कहानी में प्रयुक्त एक मुहावरे को यदि देखा जाए तो यह पता चलता है कि नमक का दारोगा 'धन के ऊपर धर्म की जीत' की कहानी है। धन और धर्म दोनों ही क्रमशः असत्य व सत्य अथवा असदृवृत्ति व व सद्वृत्ति के प्रतीक हैं।
नमक का दारोगा कहानी में पंडित अलोपीदीन धन की ताकत का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है जबकि कर्मयोगी मुंशी वंशीधर धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला पात्र है । कहानी का सार इस प्रकार है-
अंग्रेजी शासन ने जब से नमक पर कर लगाया और नमक का नया विभाग बना एवं प्रकृति द्वारा दी गई वस्तु के प्रयोग करने का निषेध किया गया तब से लोगों ने अनेक प्रकार से चोरी-छिपे व छल-प्रपंचों से रिश्वत देकर नमक का व्यापार आरम्भ कर दिया। ऐसे अधिकारियों को लाभ हो रहा था। लोग पटवारीगिरी छोड़कर नमक विभाग में नौकरी करना चाहते थे । इसके दारोगा पद के लिए वकीलों का भी मन ललचा जाता था। ऐसे में वंशीधर एक शिक्षित युवक नौकरी की तलाश में घर से निकला तो उस समय उसके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। परिवार कर्ज से दबा हुआ था। उसके पिता जी तो उसे ऐसी नौकरी करने का परामर्श देते थे जिसमें वेतन भले ही कम हो किन्तु रिश्वत का जुगाड़ अवश्य हो। किन्तु वंशीधर इस विचार से सहमत नहीं था। वह धार्मिक प्रवृत्ति वाला युवक था। उसके पिता ने रिश्वत लेने के लिए कई बातें बताई और सावधानी से काम निकालने के मंत्र भी दिए। उपदेश के पश्चात् आशीर्वाद भी दिया। वंशीधर घर से घर से शुभ घड़ी में निकले थे और नमक विभाग में दारोगा के पद पर नियुक्त हो गए। वेतन अच्छा और ऊपर की कमाई का तो ठिकाना ही नहीं। उसके वृद्ध पिता मुंशी जी को जब यह समाचार मिला तो उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। पड़ोसियों को भी 'जलन होने
वंशीधर ने शीघ्र ही पद सम्भाला और पूरी ईमानदारी से अपना कार्य करने लगे। कुछ ही समय में उसने अपनी कार्यकुशलता और अच्छे व्यवहार से बड़े-बड़े अधिकारियों को विश्वास जीत लिया। नमक के दफ्तर से एक मील की दूरी पर जमुना नदी बहती थी जिस पर नावों का पुल बना हुआ था। एक बार जाड़े की रात में दारोगा वंशीधर को पुल पर से गाड़ियों के गुजरने की आवाज सुनाई दी। उन्हें सन्देह हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है। वे तुरन्त तैयार हुए और घोड़े पर सवार होकर नदी के पास पहुँच गए। वहाँ उन्हें गाड़ियों की एक लम्बी कतार दिखाई दी। उन्होंने डाँट कर पूछा, किसकी गाड़ियाँ हैं। कुछ देर की चुप्पी के बाद उत्तर मिला-पंडित अलोपीदीन उस इलाके के प्रतिष्ठित जमींदार तथा बड़े व्यापारी भी थे और अंग्रेज अधिकारियों में उनकी पैठ थी; लेकिन यह पूछने पर कि इनमें क्या है सन्नाटा छा गया। वंशीधर का संदेह बढ़ गया। बोरे को टटोलकर देखा तो भ्रम दूर हो गया। यह नमक ही था । पंडित अलोपीदीन अपने सजे हुए रथ पर सवार कुछ सोते-जागते से चले आते थे। गाड़ीवानों ने घबराकर जगाया और बोले "महाराज दारोगा ने गाड़ियाँ रोक दी हैं और घाट पर खड़े आपको बुलाते हैं।"
पंडित अलोपीदीन को विश्वास था कि लक्ष्मी जी के सामने सब झुक जाते हैं यहाँ तक कि न्याय व नीति भी । पंडित जी लेटे-लेटे बोले “चलो, हम आते हैं।" फिर पान खाकर, लिहाफ ओढ़कर दारोगा के पास पहुँचकर बोले- बाबूजी आशीर्वाद कहिए, हमसे कौन-सा अपराध हुआ कि गाड़ियाँ रोक दी गईं। वंशीधर बोले सरकारी हुक्म है। पंडित अलोपीदीन ने वंशीधर को पच्चीस हजार रुपए तक की रिश्वत देने का लालच दिया किन्तु उस पर धन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा यहाँ तक कि चालीस हजार पर भी नहीं। धर्म ने धन को को पैरों तले कुचल डाला और दारोगा जी ने पंडित अलोपीदीन को हिरासत में ले लिया। पंडित अलोपीदीन हथकड़ियों को देखकर मूर्छित होकर गिर पड़े।
प्रातः होते ही जो लोग पंडित जी की जय जय करते थे, उनकी इस स्थिति पर तरह-तरह टीका-टिप्पणी करने लगे। जब पंडित अलोपीदीन हथकड़ियाँ पहन अदालत की तरफ चले तो पूरे शहर में हलचल मच गई। लोगों की बहुत बड़ी भीड़ उन्हें देखने के लिए जमा हो गई। लोगों को विश्वास नहीं हो रहा था कि पंडित अलोपीदीन कानून के पंजे में फँस गए। उसी समय वकीलों की एक फौज उनकी सहायता के लिए प्रस्तुत हो गई। अब धन और धर्म में युद्ध आरम्भ हो गया था। वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवाए कोई दूसरा बल 'था। उनकी तरफ के गवाह भी लोभ से डाँवाडोल हो रहे थे। मुकद्दमा डिप्टी मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ और कुछ ही क्षणों में पंडित अलोपीदीन को रिहा कर दिया गया। उनके पक्ष में मजिस्ट्रेट ने भी लिख दिया कि वे भले आदमी हैं, उनके खिलाफ दिए गए प्रमाण निर्मूल हैं। नमक दारोगा वंशीधर के लिए भी कहा गया कि हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम के प्रति सजग और सचेत हैं। उन्हें भविष्य में सचेत रहने को कहा गया।
जब पंडित अलोपीदीन मुसकुराते हुए अदालत से बाहर निकले सभी लोग उनकी तारीफ कर रहे थे और उनके स्वजन धन लुटा रहे थे। दूसरी ओर वंशीधर पर व्यंग्य बाण छोड़े जा रहे थे। आज वंशीधर को संसार का खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि ये न्याय व विद्वत्ता के पुजारी सम्मान के पात्र नहीं हैं।
वंशीधर ने धन से बैर मोल लेकर अच्छा नहीं किया था। एक सप्ताह के पश्चात् ही उन्हें नौकरी से निकाले जाने का पत्र मिल गया। वह बहुत दुःखी मन से घर गया। बूढ़े पिता जी को पता चला तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने वंशीधर को भला-बुरा सुना दिया। वंशीधर की माता जी की भी चार धाम की यात्रा की कल्पनाएँ मिट्टी में मिल गई थीं। पत्नी ने भी कुछ दिन सीधे मुँह बात नहीं की।
एक सप्ताह के पश्चात् एक दिन संध्या के समय पंडित अलोपीदीन वंशीधर के घर आ पहुँचे। मुंशी जी उनके स्वागत-सत्कार के लिए भागे आए। झुककर सलाम किया तथा खुशामदी की बातें करने लगे और अपने बेटे वंशीधर की बुराई की तथा उसे कुल कलंक तक कह डाला। किन्तु पंडित अलोपीदीन ने उन्हें ऐसा कहने से रोक दिया और उसे कुल तिलक, धर्मपरायण मनुष्य बताया। उन्होंने वंशीधर को अपने कारोबार का स्थायी मैनेजर नियुक्त करने के लिए विनम्र भाव से प्रार्थना की। यह सुनकर वंशीधर के मन का मैल भी धुल गया। पंडित अलोपीदीन ने वेतन के अतिरिक्त हर सुविधा देने का वायदा भी किया। पंडित जी ने अपराध बोध से भरी हुई वाणी में निवेदन करते हुए कहा- 'परमात्मा से यही प्रार्थना है कि आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर किन्तु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।'
प्रस्तुत कहानी को पढ़कर पता चलता है कि अन्तिम प्रसंग से पहले तक की सभी घटनाओं में प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार और समाज द्वारा इस भ्रष्टाचार को स्वीकार करने की भावना को यथार्थ रूप में उजागर किया गया है। यहाँ ईमानदार व्यक्ति के अभिमन्यु के समान निहत्थे और अकेले पड़ जाने की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करना भी कहानी का लक्ष्य है। किन्तु पंडित अलोपीदीन द्वारा वंशीधर की ईमानदारी के फलस्वरूप उसे मैनेजर के पद पर नियुक्त कर देना ईमानदारी का सत्कार करना और मानवीय मूल्य को बढ़ावा देना है।
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