भाषा बहता नीर निबंध का सारांश - Bhasha Behta Neer Nibandh ka Saransh: 'भाषा बहता नीर' के माध्यम से कुबेरनाथ राय ने भाषाओं की स्थिति व भाषाओं को लेकर व
भाषा बहता नीर निबंध का सारांश - Bhasha Behta Neer Nibandh ka Saransh
'भाषा बहता नीर' के माध्यम से कुबेरनाथ राय ने भाषाओं की स्थिति व भाषाओं को लेकर विद्वानों के एकाकी सोच पर चिंता व्यक्त की है। वे महान दार्शनिक कवि कबीर के भाषा संबंधी कुछ विचारों जैसे भाषा एक प्रवाहमान नदी है, भाषा बहता हुआ जल आदि को लेकर काफी प्रभावित है। लेकिन कबीर की इस उक्ति " संस्कृत कूप जल है, पर भाषा बहता नीर" का खंडन करते हैं।
कुबेरनाथ का मानना है कि 'नीर' को व्यापक संदर्भ में देखने की आवश्यकता है। वे कहते हैं कि संस्कृत मात्र कूप जल कभी नहीं था। उनका मानना है कि यदि कबीर जैसा व्यक्ति ऐसा कहता है तो उसे या तो इतिहास का बोध नहीं था और था भी तो अधूरा था। अन्यथा वे अत्याचारी व अत्याचारग्रस्त दोनों को एक ही लाठी से नहीं पीटते। अतः निबंधकार कहता है कि संस्कृत की भूमिका भारतीय भाषाओं और साहित्य के संदर्भ में 'कूपजल' से कहीं ज्यादा विस्तृत है। निबंधकार कहता हैं कि कबीर के वाक्यांश ‘संस्कृत भाषा कूप जल' का संबंध भाषा साहित्य से है ही नहीं। यह वाक्यांश पुरोहित तंत्र के खिलाफ ढेलेबाजी भर है जिसका प्रतीक थी संस्कृत भाषा।
आगे निबंधकार कहता है कि संस्कृत मेघ व हिमवाह के समान हैं जो अन्य भारतीय भाषा रूपी नदियों को अपना स्नेह से सनाथ करती है। उसे जीवित रखती है। अतः कहा जा सकता है कि संस्कृत एक प्राणवान स्रोत के रूप में भाषा-संस्कृति और आचार-विचार को हस्तांतरित करती रही है।
'लेखन में बोलचाल की भाषा का प्रयोग लेखन को सबल और स्वस्थ रखता हैं।' लेखक कबीर के इस बात का शत-प्रतिशत समर्थन करते हैं। लेकिन जब इसी बात का उपयोग हिन्दी को जड़ - मूल से अलग (रूटलेस) करने के लिए किया जाता है तो बात आपत्तिजनक हो जाती है। कबीर ने स्वयं अपनी भाषा में संस्कृत का उपयोग किया है। परंतु कहीं न कहीं जाकर वे भी आम आदमी ही ठहरते हैं और 'संस्कृत भाषा कूपजल' वाली बात उसी 'आम आदमी' की खीझ है।
निबंधकार कहता है कि कबीर की सार्वभौम सत्य 'भाषा बहता नीर' के सारे अंतर्निहित पटलों को खूब समझकर ही हमें इसे स्वीकार करना चाहिए। लेखक कहता है कि उसने कबीर के भाषा - सिध्दांत को अपने लेख में 'सतही अर्थ' में ही नहीं बल्कि 'सर्वांग अर्थ' में स्वीकार किया है। इसीलिए उनके लेख में बाजारू हिन्दी, भोजपुरी, आदि का प्रयोग दिखाई देता है। उन्होंने अपनी पुस्तक लोक-संस्कृति पर केन्द्रित पुस्तक 'निषाद बाँसुरी' में भारत की पुर्नव्याख्या करने की कोशिश की है। जिसमें आर्येत्तर तत्वों पर जोर देते हुए गाँव-देहात की शब्दावली का प्रयोग किया है। जो शब्द जन-समाज के कंठ से निकले होते हैं । वे कहीं भी, कभी भी अपवित्र या अश्लील नहीं होते । अश्लील या अपवित्र तो संदर्भ या उद्देश्य होते हैं।
निबंधकार इस बात को लेकर चिंतित है कि १९८१ के बाद कबीर के 'भाषा बहता नीर' का गंभीर चिंतन किए बिना स्थूल और सतही दृष्टि से सोचना कबीर के एक महाकाव्य को पुनः लंगड़ा और बौना कर देना होगा। 'भाषा बहता नीर' है तो भी भाषा के कुछ शर्तों को ध्यान में रखते हुए ही किसी युग व क्षेत्र के शब्दों को शामिल किया जा सकता है । १९८१ के बाजार में केवल चालू शब्दों के प्रयोग से ही हमारा काम नहीं चल सकता क्योंकि लेखक फिल्मकार ही नहीं बल्कि वह शिक्षक भी है। उसका दायित्व फिल्म निर्माता के व्यावसायी दायित्व से बड़ा है।
निबंधकार इस बात को स्वीकार करता है कि भाषा को अकारण दूरूह या कठिन नहीं बनाना चाहिए। सकारण कोई दोष नहीं है। जैसे गोस्वामी तुलसीदास ने मानस की
भाषा में ये पक्तियाँ लिखी हैं- 'होड़ घुणाक्षर न्याय जिम, पुनि प्रत्यूह अनेक ।' और कबीर भी जरूरत पढ़ने पर योगशास्त्र और वेदांत की शब्दावली का प्रयोग करते हैं। जैसे - लुकाठी और मोती मानस चून आदि। साथ ही लेखक स्वयं की रचना में प्रयुक्त वाक्य का उल्लेख करता है- " मैंने नदी की ओर अनिमेष लोचन दृष्टि से देखा।” निबंधकार कहता है कि साहित्यकार पाठक की उँगली पकड़कर नहीं चलता, बल्कि पाठक साहित्यकार की उँगली पकड़कर चलता है। लेखक व पाठक के इस संबंध को जनवादीयुग का सस्ता नारा परिवर्तित नहीं कर सकता है।
निबंधकार कहता है कि आज हिन्दी की भूमिका बहुत बड़ी हो गई है। उसे अब वही काम करना है जो कभी संस्कृत किया करती थी जो आज खंडित रूप में अंग्रेजी कर रही है। हिन्दी को आज शिक्षित वर्ग के माध्यम से संपूर्ण ज्ञान विज्ञान का माध्यम बनना है। अतः 'भाषा बहता नीर' को एक सतही अर्थ में न लेकर उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। संस्कृत के जो शब्द पर्ययावाची रूप में आए हैं। वे सभी कहीं न कहीं जनभाषा के सामान्य शब्द ही हैं। जिन्हें हिन्दी में प्रयोग कर प्रचलन में लाना होगा।
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