कृष्ण का चरित्र चित्रण - अन्धायुग नाटक

कृष्ण का चरित्र चित्रण- कृष्ण का चरित्र युग-युगों से भारतीय संस्कृति और जन चेतना को आप्लावित करता आ रहा है। पौराणिक काल से ही कृष्ण भारतीय जन-मानस को

कृष्ण का चरित्र चित्रण - अन्धायुग नाटक

कृष्ण का चरित्र चित्रण- कृष्ण का चरित्र युग-युगों से भारतीय संस्कृति और जन चेतना को आप्लावित करता आ रहा है। पौराणिक काल से ही कृष्ण भारतीय जन-मानस को प्रेरित करते आ रहे हैं इसीलिए इनके अनेक रूपों का चित्रण भारतीय साहित्य में हुआ है। इनके रसिक रूप को यदि छोड़ दिया जाए तो तीन महत्त्वपूर्ण रूपों में श्रीकृष्ण हमारे सामने आते हैं और वे रूप हैं भगवान, राजनीतिज्ञ और योगिराज। वैष्णव भक्ति के अन्तर्गत कृष्ण का चित्रण ईश्वर रूप में हुआ है और इनका यह रूप भारतीय जन-मानस को इतना भाव विहल करता रहा है कि इस देश में चलने वाले सभी धार्मिक आन्दोलनों में कृष्ण भक्ति शाखा सर्वाधिक विस्तृत और सुसंगठित रही है। योगिराज रूप में इनके चरित्र का विशुद्ध चित्रण अत्यल्प हुआ है किन्तु एक प्रखर राजनीतिज्ञ के रूप में महाभारत में सर्वप्रथम उनके दर्शन होते हैं और उसके बाद अन्य अनेक रचनाओं में कृष्ण का यह रूप देखा जा सकता है। महाभारत में तो युग की समस्त राजनीति के नियंता के रूप में ही उनका प्रादुर्भाव होता है और एक विलक्षण राजनीतिज्ञ के रूप में युग की नकेल उनके हाथ में दिखाई देती है। महाभारत युद्ध के संचालक स्वयं कृष्ण थे और इसीलिए उन्हें महाभारत का अस्त्रविहीन संचालक माना जाता है।

पहले तो महाभारत के युद्ध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण पाण्डवों के दूत के रूप में दुर्योधन के पास गये और उससे शान्ति वार्ता करनी चाही किन्तु दुर्योधन की मदान्धता से निराश होकर उन्होंने पाण्डवों को युद्ध करने के लिए उकसाया और उन्हें विजय दिलाने के लिए अपनी समस्त कूटनीति का प्रयोग किया। युद्ध के प्रारम्भ में ही अर्जुन के युद्ध विरत हो जाने पर उन्होंने उसे कर्मयोग का उपदेश दिया और 'युद्ध में मैं ही मरूँगा बार-बार' कहकर अर्जुन को प्रेरित किया। इतने पर भी पूर्ण विश्वास न होने के कारण वह अर्जुन को बहका कर संसप्तकों को मारने के नाम पर कहीं दूर ले गये, ताकि कौरव उसके पुत्र अभिमन्यु की हत्या कर सकें और इस प्रकार अर्जुन पूर्णतः युद्ध के लिए सन्नद्ध हो जाए। यही हुआ और अर्जुन की प्रतिशोधाग्नि ने महाभारत जैसा युद्ध भारत को दिया। कृष्ण की कूटनीति से ही भीष्म, द्रोण, कर्ण और दुर्योधन जैसे अपराजेय वीर भूलुंठित हो गए तथा विजयश्री पाण्डवों को मिली।

‘अन्धायुग' गीतिनाट्य में भी सर्वाधिक प्रभविष्णु चरित्र कृष्ण का ही है और यह चरित्र राजनीतिज्ञ एवं भगवान् दोनों ही रूपों में उजागर हुआ है। यद्यपि इस नाटक के अधिकाँश पात्र उन्हें अन्यायी, प्रभुता का दुरुपयोग करनेवाला, शत्रु और कूट बुद्धि ही कहते हैं किन्तु उनके चरित्र में यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है कि वह प्रखर राजनीतिज्ञ, अमित शौर्यवान, कर्मयोग के प्रणेता-प्रेरक, दयालु, मर्यादा और मानव-भविष्य के रक्षक, क्षमावान, शत्रु को भी अपना समझनेवाले और प्रभामण्डित किन्तु शान्त व्यक्तित्व सम्पन्न हैं। गाँधारी को तो प्रारंभ में ही उनकी प्रभुता पर संदेह हो जाता है और वह विदुर को प्रताड़ित करती हुई अत्यन्त विक्षुब्ध स्वर में कह उठती है-

'इसमें संदेह है, और किसी को मत हो 'अर्पित कर दो मुझको मनोबुद्धि' उसने कहा है यह जिसने पितामह के बाणों से आहत हो अपनी सारी ही मनोबुद्धि खो दी थी? उसने कहा है यह, जिसने मर्यादा को तोड़ा है बार-बार' ( प ० 20 )

इस प्रकार गाँधारी उन्हें मर्यादा को तोड़ने वाला सबसे बड़ा मर्यादाहीन व्यक्ति मानती हैं और दूसरी ओर स्वयं उनके भाई बलराम भी उन्हें कूटबुद्धि और मर्यादाहीन मानते हैं-

'जानता हूँ मैं तुमको शैशव से, रहे हो सदा से ही मर्यादाहीन कूटबुद्धि' (प० 61)

बलराम कृष्ण को कूटबुद्धि इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हीं के संकेत पर भीम ने दुर्योधन पर अधर्म-वार किया था और दुर्योधन मारा गया था। कृष्ण की इसी दुर्नीतियुक्त प्रेरणा से गांधारी और अश्वत्थामा भी उन्हें अन्यायी कहते हैं, जब गांधारी यह कहती है कि-

'अन्यायी कृष्ण इसके बाद अश्वत्थामा को जीवित नहीं छोड़ेंगे।' (प० 81 )

और अश्वत्थामा भी यही कहता है कि मुझे अकेला जानकर कृष्ण पाण्डवों के साथ मिलकर मुझे मार डालना चाहते हैं-

'मैं था अकेला और अन्यायी कृष्ण पाण्डवों के सहित मेरा वध करने को आतुर थे।' (प० 63)

प्रायः सभी कौरव पक्षी यही मानते हैं कि यदि कृष्ण की इच्छा न होती तो महाभारत युद्ध को रोका जा सकता था। किन्तु कृष्ण ने ऐसा नहीं होने दिया। उन्होंने अपनी चतुराई से अपराजेय कौरवों को पराजित कर दिया क्योंकि उन्होंने अवध्य शिखण्डी के द्वारा भीष्म को मरवाया, युधिष्ठिर से झूठ बुलवा कर गुरु द्रोण को अस्त्रहीन करवा दिया और ध ष्टद्युम्न ने उनकी हत्या कर दी, कर्ण को भी तब मरवाया जब वह निहत्था होकर अपने रथ के धँसे पहिये को ठीक कर रहा था तथा तथा दुर्योधन के उस स्थान पर भीम द्वारा आक्रमण कराया जो उचित न था, इससे दुर्योधन भी मत्युगामी हो गया। इसीलिए गाँधारी कहती है कि धर्म, नीति या मर्यादा से सब केवल दिखाने की वस्तुएँ हैं, निर्माण के क्षण में इनका कोई महत्त्व नहीं रहता-

"मैंने यह बाहर का वस्तु-जगत अच्छी तरह जाना था धर्म, नीति मर्यादा, यह सब हैं केवल आडम्बर मात्र, मैंने यह बार-बार देखा था । ' (प० 21 )

गाँधारी को जब यह ज्ञात होता है कि कृष्ण ने अश्वत्थामा को भ्रूण हत्या का शाप दे दिया है और कोढ़ फूट आने के कारण अश्वत्थामा का शरीर अत्यन्त विकृत और घ णास्पद हो गया है, तब वह अत्यधिक खिन्न हो उठती है और उसे लगता है कि इस सारे विनाश की जड़ कृष्ण हैं। वह क्रोधावेश में उन्हें शाप दे बैठती हैं-

'प्रभु हो या परात्पर हो, कुछ भी हो सारा तुम्हारा वंश इसी तरह पागल कुत्तो की तरह एक-दूसरे को परस्पर फाड़ खायेगा तुम खुद उनका विनाश करके कई वर्षों बाद किसी घने जंगल में साधारण व्याध के हाथों मारे जाओगे, प्रभु हो पर मारे जाओगे पशुओं की तरह।' (प० 100)

गाँधारी को लगता है कि कृष्ण ने अपनी प्रभुता का दुरुपयोग किया है। किन्तु इन आरोपों के बाद भी कृष्ण के उदात्त चरित्र में कोई कमी नहीं आई है। गाँधारी के शाप को अपनी महानता के कारण कृष्ण स्वीकार कर लेते हैं तो वहाँ पर एक तो उनके भगवान होने का पूर्ण परिचय मिल जाता है। और दूसरे उनमें स्थित गाम्भीर्य तथा धैर्य के भी दर्शन हो जाते हैं। गाँधारी का शाप सुनकर वह केवल इतना ही कहते हैं-

'प्रभु हूँ या परात्पर पर पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माता हो।' (प० 101 )

इसके साथ ही वह अपने कर्ता और फल-भोक्ता होने की बात कहकर भी अपने ईश्वरत्व को प्रकट कर देते हैं-

'सारे तुम्हारे कर्मों का पाप-पुण्य, योग क्षेम मैं वहन करूँगा अपने कंधों पर, अठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार।'

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'जीवन मैं हैं तो मत्यु भी तो मैं ही हूँ माँ (प० 100)

कृष्ण के इसी उदार और ममत्व भरे चरित्र के कारण गाँधारी उनके प्रति कटु होती हुई भी अपने शाप के प्रति स्वयं रो पड़ती हैं, उनके प्रति अपनी अगाध ममता का प्रदर्शन करती हुई वह व्यथित स्वर में कहती है-

'रोई नहीं मैं अपने सौ पुत्रों के लिए लेकिन कृष्ण तुम पर मेरी ममता अगाध है, कर देते शाप यह मेरा तुम अस्वीकार तो क्या मुझे दुख होता ।' (प० 101 )

श्रीकृष्ण को इस कृति में सर्वत्र मर्यादा के रक्षक रूप में दिखाया गया है। नाटककार के प्रारम्भ में ही जो उद्घोषणा करता है, उसमें वह स्पष्ट कह देता है कि एक पतली डोरी मर्यादाकी शेष रह गयी है और वह भी कौरव पाण्डव दोनों पक्षों में उलझी हुई है। केवल कृष्ण मे ही उसे सुलझाने की क्षमता और साहस है । वद्ध याचक की प्रेतात्मा के इस कथन में भी उनकी मर्यादा की शक्तिमत्ता का वर्णन किया गया है-

'नहीं, उनमें सारे समय के प्रवाह की मर्यादा बँध जाती है बाँध नहीं सकता हूँ उसको मैं।' (प० 105 )

कृष्ण के चरित्र में दयालुता का भी अजस्र स्रोत मिलता है। वह पूर्ण क्षमाशील है। गाँधारी जब कृष्ण को वंचक कहकर पुकारती है तो विदुर कृष्ण की अभ्यर्थना करते हुए कहते हैं कि गाँधारी पुत्रशोक से जर्जर है इसलिए उसकी उद्धत अनास्था को वह क्षमा कर दें। जब आस्था को उन्होंने अपने चरणों में स्थान दिया है तो फिर अनास्था को कौन देगा? इसी प्रकार जब अश्वत्थामा क्रोधावेश में अपने ब्रह्मास्त्र को उत्तरा के गर्भ पर फेंक देता है तो कृष्ण उसकी हत्या नहीं करते वरन् उसे शाप देकर और मणि लेकर क्षमा कर देते हैं। इसी प्रकार जिस वृद्ध याचक की हत्या अश्वत्थामा ने की थी उसे भी यह कहकर वह मुक्ति प्रदान कर देते हैं-

'अश्वत्थामा ने किया था तुम्हारा वध उसका था पाप, दण्ड मैं लूँगा, मेरा मरण तुमको मुक्त करेगा प्रेतकारा से।' (प० 126 )

मर्यादा के रक्षक होने के साथ ही वह मानव- भविष्य के रक्षक भी हैं इसीलिए अश्वत्थामा द्वारा उत्तरा के गर्भ पर फेंके गए ब्रह्मास्त्र की चिन्ता से पाण्डवों को मुक्त कराते हुए कहते हैं-

'बोले वे यदि यह ब्रह्मास्त्र गिरता है तो गिरे लेकिन जी मुर्दा शिशु होगा उत्पन्न उसे जीवित करूँगा मैं देकर अपना जीवन ।' (प० 66 )

और अन्त में व्याध के बाण लगने के उपरान्त वह मानवता के समक्ष अपना यह संदेश देकर जाते हैं कि संसार का कल्याण और मानव भविष्य की सुरक्षा किस प्रकार हो सकती है-

'सबका दायित्व लिया मैंने अपने ऊपर, 

अपना दायित्व साँप जाता हूँ मैं सबको

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'मेरा दायित्व वह स्थित रहेगा हर मानव-मन के उस वस में जिसके सहारे वह सभी परिस्थितियों का अतिक्रमण करते हुए नूतन निर्माण करेगा पिछले ध्वंसों पर । मर्यादायुक्त आचरण में नित नूतन सजन, निर्भयता के, साहस के, ममता के, रस के क्षण थे जीवित और सक्रिय हो उठूंगा मैं बार-बार '

अन्ततः ‘अन्धायुग’ मे चित्रित कृष्ण के चरित्र के उपर्यक्त विवेचन के उपरान्त हम यही कह सकते हैं कि उनका चित्रण आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हुआ है। वह ईश्वर या परात्पर चाहे हों या नहीं, एक सफल नीतिज्ञ और युग पुरुष अवश्य हैं जो इतिहास की गति को बदल देने में समर्थ हैं, जैसा कि वृद्ध याचक ने धतराष्ट्र के समक्ष स्वयं कहा है-

'पता नहीं प्रभु हैं या नहीं किन्तु, उस दिन यह सिद्ध हुआ जब कोई भी मनुष्य अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को, उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।'

और यह अनासक्त पुरुष कृष्ण ही थे जिन्होंने भविष्य वक्ता की भविष्यवाणी को भी झुठला दिया और इतिहास को चुनौती देकर नक्षत्रों की दिशा ही बदल दी थी।

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