मार्क्सवादी लेनिनवादी उपागम का वर्णन कीजिये। मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम पर निबंध लिखिए। मार्क्सवाद के लेनिन के योगदान का मूल्यांकन कीजिए। मार्क्सवादी
मार्क्सवादी लेनिनवादी उपागम का वर्णन कीजिये।
- मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम पर निबंध लिखिए।
- मार्क्सवाद के लेनिन के योगदान का मूल्यांकन कीजिए।
मार्क्सवादी लेनिनवादी उपागम
मार्क्सवादी-लेनिनवादी उपागम सोवियत संघ का महाशक्ति के रूप में उदय तथा चीन, वियतनाम, क्यूबा और पूर्वी यूरोपीय राज्यों में साम्यवाद के स्थापित होने के परिणामस्वरूप एक ऐसे उपागम की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जिससे मार्क्सवादी लेनिनवादी दृष्टिकोण के आधार पर राजनीति सामान्यीकरण तथा सम्भावनाओं की ओर ध्यान दिया जा सके। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका में अनेकों देशों का साम्राज्यवादी चंगुल से मुक्त होकर स्वतंत्र राज्यों के रूप में उदय राजनीति विज्ञान के विद्वानों के लिए एक तरफ तो क्रान्तिकारी विकास था, क्योंकि उनके द्वारा प्रस्थापित सिद्धान्तों की जाँच व परख के लिए पाश्चात्य देशों से भिन्न राजनीतिक वातावरण पहली बार सामने आने लगा था। दूसरी तरफ उनके लिए नये देशों में होने वाले राजनीतिक उथल-पुथल जिनका ना कोई क्रम था और न कोई निश्चित दिशा या प्रतिमान ने अनेक चुनौतियाँ प्रस्तुत कर दी जिनका उन्हें सामना करना था। इन नये राज्यों की राजनीतियों और राजनीतिक व्यवस्थाओं में राजनीतिक संरचनाओं द्वारा विशेष चुनौतियाँ ही प्रस्तुत नहीं हुईं, किन्तु इन देशों में राजनीतिक प्रक्रियाओं ने अनिवार्य शोध-उपकरणों व प्रत्ययी ढाँचों में परिवर्तन आवश्यक बना दिए।
परंपरागत राजनीति विज्ञान की मान्यताएँ, अध्ययन विधियाँ तथा प्रत्यायी ढाँचे और अध्ययन दृष्टिकोण, जो दो विश्वयुद्धों के बीच के काल में हुए विकासों के कारण बहुत कुछ निरर्थक से बन गए थे, अब नए राज्यों में बहुत तेजी से होने वाले आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकासों के कारण पूरी तरह बेकार बन गये। पश्चिमी देशों के राजनीतिक शास्त्रियों, मुख्यतया अमरीकन राजनीतिशास्त्रियों ने नए राज्यों द्वारा प्रस्तुत चनौतियों को नए अवसर समझकर इन्हें समझने व इन देशों में होने वाले राजनीतिक विकासों को समझने के लिए, नए अध्ययन दृष्टिकोणों तथा नवीन प्रत्ययों का सर्जन व प्रयोग आरम्भ कर दिया था। राजनीति विज्ञान में परिवर्तन की सामान्य धारा में 1950 के दशक में व्यवस्था सिद्धांतवादियों का प्रभाव अपने चरमोत्कर्ष पर था। राजनीति-शास्त्र में इसी समय तुलनात्मक राजनीति एक उप-अनुशासन के रूप में अधिक बल पकड़ रही थी, क्योंकि परंपरागत राजनीतिक विज्ञान को नवीन युग में प्रवेश दिलाने में इस उप-अनुशासन की उपयोगिता बहुत स्पष्ट नजर आने लगी थी। विविधिता वाले नए राज्यों के उदय ने तुलनात्मक राजनीति के विद्वानों को तो स्वर्ण अवसर प्रदान कर दिया था। अब तुलना के लिए विविध राजनीतिक व्यवस्थाओं से कहीं अधिक विभिन्न राजनीतिक सांस्कृतियों, संरचनाओं और प्रक्रियाओं के उदाहरण व आँकड़े प्रस्तुत हो गए थे। इस कारण तुलनात्मक राजनीति अध्ययनों में नए प्रत्ययों, परिष्कृत प्रविधियों तथा नये-नये उपागमों का प्रचलन बढ़ने लगा। इन सब दृष्टिकोणों का एक ही उद्देश्य था कि राजनीतिक व्यवस्था के बारे में ऐसा कोई सिद्धांत या ऐसे सिद्धांत निर्मित किए जा सकें जो हर राजनीतिक घटनाक्रम का नहीं तो कम से कम प्रमुख व क्रान्तिकारी परिवर्तनों को समझने की क्षमता से युक्त हों। इस सभी उपागमों से हमने यह पाया कि यह सब तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययनों में नए-नए प्रत्ययों का प्रयोग करके राजनीतिक व्यवहार या यह कहें तो अधिक उपयुक्त होगा कि राजनीतिक अस्तव्यस्तता व उथल-पुथल के बारे में सामान्यीकरण या सीमित स्तर पर सिद्धांत निर्माण का लक्ष्य रखते रहे हैं। किन्तु तुलनात्मक राजनीतिक अध्ययनों के इन सब उपागमों में एक सामान्य धारा यह पाई गई कि इनमें मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण से राजनीति उथल-पुथल को समझने या समझाने का कोई व्यवस्थित प्रयास नहीं किया गया था। इस कथन से यह तात्पर्य नहीं है कि पाश्चात्य जगत के राजनीतिशास्त्रियों ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी की अवहेलना की थी। वास्तव में रूस के सुपर पावर के रूप में उदय तथा साम्यवाद के पूर्वी यूरोप के राज्यों, चीन व वियतनाम में स्थापित होने से इनका ध्यान साम्यवाद की तरफ अधिकाधिक आकृषित किया और गहनतम अध्ययन भी इस सम्बन्ध में किए गए। किन्तु राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में तुलनात्मक अध्ययन के दृष्टिकोण व उपकरण के रूप में मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारबन्द का प्रयोग नहीं किया गया। साम्यवाद के विस्तार व प्रसार एवं बढ़ते हए प्रभाव से राजनीतिशास्त्रियों ने मार्क्सवादी लेनिनवादी परिपेक्ष्य के द्वारा राजनीतिक सामान्यीकरण करने की सम्भावनाओं की तरफ ध्यान देना शुरू किया।
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