भवानी प्रसाद मिश्र का साहित्यिक जीवन परिचय, रचनाएँ, काव्यगत विशेषताएँ एवं भाषा शैली

भवानी प्रसाद मिश्र  हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। मित्रों इस लेख में हम भवानी प्रसाद मिश्र का जीवन परिचय , उनकी रचनाएँ , काव्यगत विशेषताएँ ए...

भवानी प्रसाद मिश्र हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे। मित्रों इस लेख में हम भवानी प्रसाद मिश्र का जीवन परिचय, उनकी रचनाएँ, काव्यगत विशेषताएँ एवं भाषा शैली आदि के बारे में जानेंगे। In this article, you will learn Bhavani Prasad Mishra Biography (Jivan Parichay) in Hindi.

    भवानी प्रसाद मिश्र का साहित्यिक जीवन परिचय

    भवानीप्रसाद मिश्र आधुनिक कविता के अत्यन्त समर्थ कवि हैं। उनके गीतों ने आधुनिक हिन्दी कविता को नयी भंगिमा और नयी दिशा प्रदान की। इसलिए आधुनिक हिन्दी कविता में उनका महत्त्वपूर्ण स्थान बन गया है।
    Bhavani Prasad Mishra
    मिश्र जी का जन्म सन् 1914 में होशंगाबाद जिले (मध्यप्रदेश) के टिगरिया नामक गाँव में हुआ। उनके पिता पं. सीताराम मिश्र साहित्यिक रुचि के व्यक्ति थे। हिन्दी, संस्कृत तथा अंग्रेजी तीनों भाषाओं पर उनका अच्छा अधिकार था। मिश्र जी को अपने पिता से साहित्यिक अभिरुचि और माँ गोमती देवी से संवेदनशील दृष्टि मिली। उन्होंने बी. ए. तक शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद उन्होंने अपने ज्ञानवर्द्धन के लिए स्कूली शिक्षा की अपेक्षा जिन्दगी के क्षेत्र में व्यावहारिक शिक्षा लेना अधिक उचित समझा।

    आजीविका के लिए आरम्भ में उन्होंने स्वयं एक पाठशाला खोली। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कारावास भी हआ। इसके बाद सन् 1946 से सन् 1950 तक वे महिलाश्रम, वर्धा में शिक्षक रहे। तत्पश्चात् सन् 1952 से सन् 1955 तक हैदराबाद में 'कल्पना' मासिक का संपादन किया। सन् 1956 से सन् 1958 तक आकाशवाणी बंबई व दिल्ली में हिन्दी के कार्यक्रमों का संचालन भी किया। सन् 1958 से 1972 तक उन्होंने 'सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय' का संपादन किया। इसके बाद से वे गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, गाँधी स्मारक निधि और सर्व सेवा संघ से जुड़े रहे हैं।

    मिश्र जी का बचपन मध्यप्रदेश के प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त अंचलों में बीता। अतः प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति आकर्षण और प्रेम के संस्कार उनमें बहुत गहरे हैं। उनकी कविताओं में सतपुड़ा-अंचल, मालवा-मध्यप्रदेश के प्राकृतिक वैभव का चित्रण मिलता है। इन कविताओं को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मिश्र जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर उनके आसपास के भौगोलिक और प्राकृतिक परिवेश का बहुत प्रभाव पड़ा है। अपने भौगोलिक परिवेश की साधारणता के बारे में उन्होंने 'दूसरा सप्तक' के वक्तव्य में लिखा है -

    "छोटी-सी जगह में रहता था, छोटी-सी नदी नर्मदा के किनारे छोटे से पहाड़ विन्ध्याचल के आंचल में छोटे-छोटे साधारण लोगों के बीच। एकदम घटना विहीन, अविचित्र मेरे जीवन की कथा है। साधारण मध्य वित्त के परिवार में पैदा हुआ, साधारण पढ़ा-लिखा और काम जो किए वे भी असाधारण से अछूते। मेरे आस-पास के तमाम लोगों की सुविधाएं-असुविधाएं मेरी थीं।" ।

    इस साधारण परिवेश का एक विशेष संस्कार उनके मन पर पड़ा है। ग्रामीण जीवन के साधारण क्रिया-कलापों ने उन्हें प्रभावित किया। ये सब प्रभाव उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं।

    भवानीप्रसाद मिश्र ने अपनी काव्य दृष्टि स्वयं निर्मित की है। हालांकि वे बहुत से नए-पुराने कवियों से प्रभावित हुए लेकिन किसी कवि को एकमात्र आदर्श मानकर उसका अंध अनुसरण उन्होंने नहीं किया। उन्होंने 'दाग, मीर, जौक, मीर अनीस, सौदा और गालिब की चुनी हुई रचनाओं को पढ़ा था जिसके कारण उनकी कविताओं में उर्दू की बोलचाल-पूर्ण शैली आ गई। हिन्दी में कबीर और तुलसीदास ने उन्हें प्रभावित किया। जिस समय उन्होंने लिखना शुरू किया उस समय छायावादी कवियों का बहुत जोर था। लेकिन इनमें से कोई भी कवि आदर्श के रूप में उनके सामने नहीं रहा। संस्कृत कवियों में कालिदास और बंगला में रवीन्द्रनाथ से वे अत्यन्त प्रभावित हुए। अंग्रेजी के स्वच्छदतावादी कवियों ने भी उन्हें आकृष्ट किया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा है

    'मुझ पर किन-किन कवियों का प्रभाव पड़ा है यह भी एक प्रश्न है। किसी का नहीं। पुराने कवि मैंने कम पढ़े, नये कवि जो मैंने पढ़े मुझे जंचे नहीं। मैंने जब लिखना शुरू किया तब अगर श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री सियारामशरण गुप्त को छोड़ दें तो छायावादी कवियों की धूम थी। 'निराला', 'प्रसाद' और 'पंत' फैशन में थे। ये तीनों ही बड़े कवि मुझे लकीरों में अच्छे लगते थे। किसी एक की भी एक पूरी कविता नहीं भायी। तो उनका प्रभाव क्या पड़ता। अंग्रेजी कवियों में मैंने वर्ड्सवर्थ पढ़ा था और ब्राउनिंग विस्तार से। बहुत अच्छे मुझे लगते थे दोनों........भारतीय कवियों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर मेरे लिए एक बड़े अरसे तक बंद रहे। ........जेल में मैंने बंगला सीखी और कविता ग्रन्थ गुरुदेव के प्रायः सभी पढ़ डाले। उनका बड़ा असर पड़ा।"

    इससे स्पष्ट है कि उनकी काव्य दृष्टि किसी भी कवि से विशेष प्रभावित नहीं हुई। उन्होंने अपनी रचना प्रक्रिया और काव्यानुभव के भीतर से अपने साहित्यिक विचार और सिद्धांत विकसित किए। 'कवि से' नामक एक कविता में उन्होंने अपने साहित्यिक विचार प्रकट किए हैं
    “जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
    और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।" 
    इससे स्पष्ट है कि मिश्र जी ने अपने कथ्य में सामाजिकता और शिल्प में सादगी को स्वीकार किया। उनकी यह काव्य दृष्टि उनकी सभी कविताओं में मिलती है।

    मिश्र जी पर रवीन्द्रनाथ टैगोर का बहुत असर पड़ा। सन् 1937 में उन्होंने 'रवीन्द्रनाथ से' नामक कविता लिखी। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी कविताएं उन्होंने रवीन्द्रनाथ के प्रभाव में लिखीं। लेकिन रवीन्द्रनाथ के काव्य में जो रहस्यवादी स्वर मिलता है, उसका मिश्र जी की काव्य-चेतना पर प्रभाव नहीं पड़ा।

    मिश्र जी गाँधी जी से सबसे अधिक प्रभावित हुए। उन्होंने कविता और कार्य क्षेत्र में गाँधी दर्शन को पूरी तरह से अपनाया। फलतः उनकी ख्याति एक गाँधीवादी कवि के रूप में है। वर्तमान जीवन की विसंगतियों से गुजरते हुए भी गाँधीवादी आस्था के कारण उनका स्वर कभी निराशा से बोझिल नहीं हुआ। मिश्र जी ने विभिन्न विषयों पर कविताएं लिखी हैं। पर इन सभी कविताओं का मूल स्वर गाँधीवादी प्रभाव से युक्त है। उनका खंडकाव्य 'कालजयी' भी गाँधी दर्शन के प्रति उनके अटूट विश्वास और आस्था का परिचायक है। 

    भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाएँ

    मिश्र जी ने विद्यार्थी काल से ही काव्य रचना आरम्भ कर दी थी। सन् 1939-40 तक उन्होंने बहुत सी कविताएं लिख डाली थीं और पत्र-पत्रिकाओं तथा कवि सम्मेलनों के माध्यम से चर्चा के विषय बन चुके थे। सन् 1951 में अज्ञेय द्वारा संपादित 'दूसरा सप्तक' प्रकाशित हुआ। इसमें मिश्र जी की कई कविताएं छपी और चर्चित हुई।

    'दूसरा सप्तक' की रचनाओं के बाद उनके अनेक काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं- गीतफरोश, चकित है दुख, अंधेरी कविताएं, बुनी हुई रस्सी, खुशबू के शिलालेख, गाँधी पंचशती, परिवर्तन किए, त्रिकाल संध्या, इदं न मम्, कालजयी आदि।

    'गीतफरोश' मिश्र जी का प्रथम काव्य संकलन है। इसकी अधिकांश कविताएं प्रकृति के रूप वर्णन से सम्बन्धित हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिकता और राष्ट्रीय भावना से युक्त कविताएं भी हैं। 'गीतफरोश' इस संकलन की प्रतिनिधि कविता है। इस संकलन से पहले सन् 1951 में 'प्रतीक' नामक पत्रिका में प्रकाशित यह कविता नए भावबोध की आरंभिक हिंदी कविताओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कविता की पृष्ठभूमि के विषय में स्वयं कवि का कहना है- "गीतफरोश' शीर्षक हँसाने वाली कविता मैंने बड़ी तकलीफ में लिखी थी। मैं पैसे को कोई महत्त्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है। मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास था नहीं तो मैंने कलकते में बन रही फिल्म 'स्वयं-सिद्धा' के गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए। लेकिन मुझे इस बात का दुख था कि मैंने पैसे लेकर गीत लिखे। मैं कुछ लिखू इसका पैसा मिल जाए, यह अलग बात है, लेकिन कोई मुझसे कहे कि इतने पैसे देता हूँ तुम गीत लिख दोयह स्थिति मुझे बहुत नापसंद है। क्योंकि मैं ऐसा मानता हूँ कि आदमी की जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए। फिर कविता तो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज़ है।"

    इस तकलीफदेह पृष्ठभूमि में लिखी गई 'गीतफरोश' कविता कविकर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का मार्मिक निरूपण भी है। 'चकित है दुख' की कविताओं में उनकी आस्था और जिजीविषा व्यक्त हुई है। 'अँधेरी कविताएं' में दुख के अंधकार की कविताएं नहीं हैं। बल्कि दुख और मृत्यु के प्रति अपनी ईमानदार स्वीकृति से उत्पन्न आशा और उल्लास की कविताएं हैं 'गाँधी पंचशती' की कविताओं में मिश्र जी ने गाँधी जी को अपनी मार्मिक श्रद्धांजलियां अर्पित की हैं। सन् 1971 में उनका 'बुनी हुई रस्सी' काव्य संकलन प्रकाशित हुआ। चिंतन और शिल्प की प्रौढ़ता इसकी कविताओं की मुख्य विशेषता है। इस काव्यकृति को सन् 1972 में साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत किया गया था। 'खुशबू के शिलालेख' नामक संग्रह की अधिकांश रचनाएं छोटी और प्रतीक बहुला हैं। इनके अतिरिक्त उनके अन्य काव्य संग्रह भी अपनी विशिष्टताओं के कारण चर्चित हुए हैं। 

    भवानी प्रसाद मिश्र की काव्यगत विशेषताएँ

    भवानीप्रसाद मिश्र की कविताएं भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से बहुत अधिक प्रभावशाली हैं। इन कविताओं में उन्होंने अपनी अनुभूतियों को बहुत सरल शब्दों में व्यक्त किया है। उनकी कविताओं का भावपक्ष सामाजिक भाव बोध, संवेदनशीलता, आत्मीयता, सहजता आदि जिन विशिष्टताओं से युक्त है, वे इस प्रकार हैं -

    (1) सामाजिक भाव - बोध-मिश्र जी की कविता व्यक्तिवादी कविता नहीं है, वह सामाजिक भाव-बोध से संपन्न है। मिश्र जी ने अपने काव्य में सामान्य जन-जीवन के विषम संघर्ष की उपेक्षा नहीं की वरन् सामाजिक अन्याय, शोषण, अभाव आदि का वर्णन किया है और इनके विरुद्ध आवाज उठाने की प्रेरणा दी। वे अपनी कविताओं के सारे विषय जीवन और समाज से ही उठाते हैं। लेकिन उन्होंने अपनी कविताओं को जीवन से जोड़कर भी सरस और सुन्दर बनाए रखा है। 

    (2) संवेदनशीलता - भवानीप्रसाद मिश्र की कविताओं की एक अन्य विशेषता है-संवेदनशीलता। उनकी प्रसिद्ध कविताएं जैसे-'सतपुड़ा के जंगल', 'घर की याद', 'आशा-गीत' आदि उनकी गहरी संवेदनशीलता के परिचायक हैं। उनके काव्य में अनुभूति और संवेदना की प्रधानता है। चिंतन, दर्शन आदि की बोझिलता उसमें नहीं है। अगर चिंतन के तत्त्व आए भी हैं तो वे उनकी संवेदनशीलता में ढलकर ही प्रकट हुए हैं। 

    (3) आत्मीयता - मिश्र जी की कविताओं में आत्मीयता का गुण भी मिलता है। वे अक्सर अपने पाठक को सम्बोधित करते हैं या फिर प्रश्न पूछते हैं। सम्बोधित करते समय वे अक्सर पाठक को आत्मीयता के साथ समझाते हैं या प्रश्न के द्वारा उसे फटकारते हैं। उनके काव्य की यह आत्मीयता पाठक को उनके साथ जोड़े रखती है। 

    (4) आस्तिकता और आस्था - मिश्र जी आस्तिक और आस्थावादी कवि हैं। हालांकि वे ईश्वर पर विश्वास नहीं करते। लेकिन मानव-मूल्यों के प्रति उनकी आस्तिकता और आस्था उनकी कविताओं में व्यक्त हुई है।

    (5) यथार्थ-बोध - भवानीप्रसाद मिश्र ने जीवन के सहज और यथार्थ रूप की अभिव्यक्ति अपनी कविताओं में की है। लेकिन उनका यथार्थ-बोध केवल जीवन की कटुता, निराशा और विषमता का चित्रण नहीं करता। वरन् उनके यथार्थ-बोध के पीछे मानवता की विजय और सुखपूर्ण भविष्य की आशा छिपी हुई है और इसका कारण है-उनकी गाँधीवाद में आस्था। गाँधीवादी आस्था के कारण ही उनके यथार्थ बोध में निराशा का स्वर नहीं मिलता।

    (6) प्रकृति-चित्रण-मिश्र जी के काव्य में प्रकृति के सहज, मोहक और यथार्थ रूप का चित्रण मिलता है। उनके प्रकृति चित्रण छायावादी सौंदर्य चित्रणों से भिन्न हैं। उनकी कविताओं में सतपुड़ा, विन्ध्य, रेवा और नर्मदा आदि के अनेक चित्र मिलते हैं। 'सतपुड़ा के जंगल' नामक उनकी कविता में प्रकृति के प्रति उनकी संवेदनशील अनुभूतियां इस प्रकार व्यक्त हुई हैं -
    "सतपुड़ा के घने जंगल 
    नींद में डूबे हुए से,
    उंघते अनमने जंगल।" 
    यहां जंगल निर्जीव न रहकर सजीव, सप्राण जीवन का प्रतिरूप बन गया है। जंगल के विभिन्न अवयव जीवन और जगत की विभिन्न स्थितियों को प्रतिबिंबित करते हैं।

    (7)सहजता- सहजता मिश्र जी के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है। उनकी कविताओं में साधारण जीवन के सहज-साधारण अनुभव व्यक्त हुए हैं। उन्होंने जीवन के सहज रूप को अपनी दृष्टि से देखा और अपने ढंग से उसकी सहज, अकृत्रिम अभिव्यक्ति को। लेकिन उनकी कविता सहज होते हुए भी पूर्णतः अर्थपूर्ण है जिसके कारण उनकी काव्य-पंक्तियाँ सूक्ति या सूत्रवाक्य का रूप धारण कर लेती हैं। इस प्रकार की सारी काव्य-पंक्तियाँ जीवन की गम्भीर स्थितियों को व्यक्त करती हैं।

    भवानी प्रसाद मिश्र की भाषा शैली

    भवानीप्रसाद मिश्र की भाषा शैली अत्यन्त सहज और बोलचाल की भाषा के निकट है। 'दूसरा सप्तक' के वक्तव्य में उन्होंने अपनी भाषा शैली के विषय में लिखा है कि, "वर्ड्सवर्थ की एक बात मुझे बहुत पटी कि 'कविता की भाषा यथासंभव बोलचाल के करीब हो।'..... तो मैंने जाने-अनजाने कविता की भाषा सहज रखी.........। बहुत मामूली रोजमर्रा के सुख-दुख मैंने इनमें कहे हैं जिनका एक शब्द भी किसी को समझाना नहीं पड़ता।"

    मिश्र जी की इस सहज सरल भाषा की सपाटबयानी में भी अद्भुत सौंदर्य है। इसका कारण यह है कि उनके अनुभवों में मौलिकता और ईमानदारी है अतः उनकी सीधी सपाट भाषा में भी आकर्षण और ताजगी आ गई है। हिन्दी काव्य-भाषा को मिश्र जी की सबसे बड़ी देन यह है कि उन्होंने बोलचाल की भाषा को साहित्यिक भाषा और काव्यभाषा का दर्जा प्रदान किया। उनकी कविताओं को पढ़ते समय ऐसा लगता है जैसे कोई मित्र हमसे बातचीत कर रहा हो अर्थात् कवि और पाठक के बीच कोई औपचारिकता या दूरी नहीं लगती है।

    उनकी काव्यभाषा में यह विशेषता उनके शब्द-चयन से आई है। उन्होंने तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशी सभी प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। उनके अधिकांश तत्सम शब्द भी वे हैं जो प्रचलित हैं और हिन्दी में अपना लिए गए हैं। लेकिन वे प्रचलित शब्दों का भी ऐसी ठीक जगह प्रयोग करते हैं कि शब्द अपने अर्थ को बहुत ही तीखेपन से उजागर करता है।

    तत्सम और तद्भव शब्दों के साथ ही उन्होंने ग्राम्य तथा प्रांतीय शब्दों का प्रयोग भी किया है। इस तरह के शब्दों ने उनकी भाषा को एक नयी शक्ति और ताजगी दी है। साथ ही इनसे कविताओं में लोकभाषा की लय और सीधापन आ गया है।

    मिश्र जी ने अधिकतर छोटी-छोटी कविताएं लिखी हैं। छोटे से छंद की दो-दो पंक्तियों के बाद वे तुक बदल देते हैं। इससे भाषा में लय और गति आ गई है। इन्हीं छोटे छंदों में वे छोटी से छोटी वस्तु और बड़ी से बड़ी बात का भी बहुत सुन्दर और लयात्मक वर्णन करते हैं।

    मिश्र जी की काव्य भाषा में विंबात्मक और प्रतीकात्मक क्षमता भी है। उनके बिंब और प्रतीक भी बहुत स्पष्ट और सहज हैं। उनमें कहीं भी जटिलता या बोझिलता नहीं मिलती। लाक्षणिक-आलंकारिक तत्सम काव्य शैली को उन्होंने प्रायः कहीं नहीं अपनाया है। वस्तुतः वे ठीक उसी प्रकार लिखते हैं जिस प्रकार हम रोजमर्रा के जीवन में बोलते हैं। अभिव्यक्ति की सहजता, आत्मीयता और कलात्मकता उनकी काव्यशैली की महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अनुभूति और अभिव्यक्ति की इन अप्रतिम विशेषताओं ने मिश्र जी को आधुनिक हिन्दी कवियों में एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान किया है।

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