विकास और पर्यावरण भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में
बीज
- अकुरण -
पौध - फूल
- फल
भ्रूण
- शैशव -
किशोर - यौवन
- वद्धावस्था
यह विकास का जैविक
संदर्भ है। समग्र रूप से विकास का अर्थ है अपूर्णता से पूर्णता की ओर की जाने वाली
यात्रा।
अत: विकास की समूची
अवधारणा अपूर्णता की व्याख्या से निर्धारित होती है। सभ्यता और संस्कृति के
सन्दर्भ में विकास विशिष्ट सभ्यता है एवं उसका मूल्य चेतना से परिभाषित होता
है। यह चेतना प्रकृति को किस दृष्टिकोण से देखती है। इसको हम पूर्वी और पश्चिमी
अवधारणा से समझ सकते हैं।
पश्चिम में मनुष्य का
जन्म तथा उसकी सभ्यता का विकास प्रकृति से प्रतिशोध की अवधारणा से प्रभावित है।
पश्चिमी सभ्यता में प्रकृति पर नियंत्रण तथा उस पर मानवीय सत्ता का वर्चस्व
विकास का पैमाना है। प्रकृति से दूरी तथा उसके उपयोग के अनुपात में ही पश्चिमी
विकास ही माप करता है। जो प्रकृति के जितना करीब है। वह उतना ही पिछड़ा हुआ है।
अत: हम कह सकते हैं कि पश्चिम में विकास का अर्थ है – प्रकृति के अनुशासन के
विरोध पर आधारित जीवन-पद्धति का निर्माण।
भारतीय संदर्भ में,
विकास प्रकृति से संस्कृति में की जाने वाली यात्रा है, भारतीय चिंतन में विकास
एक यात्रा है जो प्रकृति से प्रस्थान करते हुए संस्कृति में घटित होती है,
जैसे
‘तमसो
मां ज्योतिर्गमय’
‘मृत्यो माँ अमृतगमय’
यहाँ जीवन का संबंध
केवल बाह्यमूलक नहीं है। यह चेतना के निर्माण और संयोग पर आधारित है।
अत: हम कर सकते हैं कि
पश्चिमी मनुष्य योग की अंतिक क्षमता का नायक है तथा भारतीय मनुष्य व्यक्ति और
अन्य के बीच सहयोग और संतुलन को मूल्य का आधार बनाता है।
Related : पर्यावरण प्रदूषण और इसके प्रकार
Related : पर्यावरण प्रदूषण और इसके प्रकार
पर्यावरण किसी जाति की
संस्कृतिक अवचेतना का महत्वपूर्ण प्रसंग है। पर्यावरण का प्रश्न इस प्रश्न से
जुड़ा है कि जीवन का अर्थ क्या है? एक जीवन के बीच कैसा संबंध हो? सुख क्या है?
आदि। अगर सुख देह का भूगोल और इच्छा से संचालित है तो उससे एक ऐसा जीवन-दर्शन
संचालित होगा। जिसमें पर्यावरण का विनाश ही विकास का लक्ष्य होगा। पश्चिमी देशों
ने विकास की जो व्याख्या दी प्राय: वही व्याख्या तीसरी दुनिया के देशों में
प्रचलित हुई। विकास वर्चस्वशाली राष्ट्रों का ऐसा एजेण्डा है जिसका इस्तेमाल
तीसरी दुनिया के देशों के प्राकृतिक संपदाओं के दोहन के लिए किया जाता है। अन्तत:
तीसरी दुनिया के देश कुड़ा-घर बन गये हैं।
Related : पर्यावरण के प्रति हमारा दायित्व
विकास की यह चमत्कारिक
यात्रा हमारी संस्कृति एवं सामाजिक पर्यावरण को भला कैसे छोड़ देगी? इसने तकनीक के स्तर
पर टी.वी. (टेलिविजन) और इन्टरनेट अविष्कार किया है। टी.वी. समृद्धि का परिचायक
है। वह बताता है कि चमकीले दंत कैसे बनाए जाते हैं? चेहरे की झुर्रियों को दूर कर ‘जवान’
कैसे दिखेंᣛ?
किस कम्पनी के जुते और चश्मे पहनकर माडल बन सकते हैं। इस प्रकार का भ्रम और लालच
टी.वी. पैदा करता है। टी.वी. संस्कृति जीवन के प्रतिमानों का निर्धारण करती है।
श्रेष्ठ पोषक पदार्थ वे होते हैं जिसका प्रचार मॉडल करती हैं,
श्रेष्ठ पेय वह होगा जो क्रिकेट खिलाड़ी या अभिनेता पीता है। इस प्रकार टी.वी.
संस्कृति निर्माण का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी है। इस प्रकार उसी संस्कृति का
निर्माण हो रहा है जो प्रभावशाली लोग साधारण जनता तक पहुँच रहे हैं।
Related : वनों की उपयोगिता पर निबंध
शैक्षणिक पर्यावरण पर
इंटरनेट का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा है। जबकि इंटरनेट स्वयं में ज्ञान का कोश है वह
ज्ञान की रफ्तार को तेज करता है, मनुष्य जीवन को सूचना में तब्दीश कर देता है।
इस इंटरनेट ज्ञान में मनुष्य के अनुभव उसके सपनों तथा आकांक्षओं का कोई स्थान
नहीं है। सूर्यास्त और सूर्योदय जैसे जीवित ज्ञान को इंटरनेट पथरीली सूचनाओं में
तब्दील कर देता है। सूचनाओंका बहुत बड़ा हिस्सा प्रभुत्वशाली समाज का होता है
जो ज्ञान की विविधाताओं को नष्ट करता है।
आदमी,
विज्ञान और तकनीक ने सूचनाओं के संसार को अधिक व्यवस्थित बनाया है,
तथा जीवन में गति का संचार किया है। अन्तत: समाज के कुछ लोगों को अथाह शक्ति दी
है। इस तकनीक ने एक सुखी समाज नहीं, एक सुखी वर्ग पैदा किया है। आधुनिक
प्रौद्यागिकी के बल पर सौ साल के बाद भी मानव पीढ़ी के लिए पर्याप्त भोजन,
पीने का पानी और रहने की समुचित व्यवस्था नहीं हो सकी है। इस विकास विडंबना यह
है कि इसका चालक भविष्य के अपने सभी वंशजों का हिससा खुद खा जाता है। इस तकनीक
में पैदा करने की नहीं एकत्रित करने की क्षमता है। यह तकनीक यदि चमत्कार है तो यह
निर्माण का नहीं ध्वंसकारी चमत्कार है।
तकनीक के इस विकास के
साथ सत्ता और पैसा इस गहराई से जुड़े हैं कि प्रत्येक शिक्षित और योग्य व्यक्ति
की आकांक्षा तकनीक के इसी रूप से परिभाषित होती है। इसने समता की संभावनाओं को ध्वस्त
किया है। साथ ही प्रकृति तथा मनुष्य के साहचर्य को प्रभावित किया है।
Related : विश्व वानिकी दिवस एवं जैव विविधता
भूमंडलीकरण और नगरीकरण
प्रक्रिया में अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन प्रभाव में दोनों एक साथ हैं। इन्होंने
मनुष्य के सामुदायिक जीवन को नष्ट किया है। पर्यावरण और जीवन का वैविध्य नष्ट
हो रहा है। जीवन की विविधता के प्रति जिस संस्कृति में सम्मान नहीं वह संस्कृति
पर्यावरण व विकास विरोध होगी। पर्यावरणवादियों ने पिछले 50 सालों के विकास के
विरोध में कई आंदोलन चलाए जैसे नर्मदा बचाओ अभियान, टिहरी डैम आदि। इनके
अनुसार एक वर्ग के हितों की पूर्ति के लिए कई वर्ग के हितों के क्षति पहुंचायी जा
रही है।
विकास की पश्चिमी
अवधारणा की सम्यक आलोचना पूर्वी सभ्यता के नायक गाँधी के चिंतन में देखी जा सकती
है। उनकी स्पष्ट धारणा है कि विकास का वैकल्पिक ढांचा बिना मानव का विकास संभव
नहीं है। उन्होंनें आध्यात्मिकता को विकल्प के रूप में प्रस्तुत का भी
अविभाज्य अंग हो। जैसे चरखा।यह आधुनिक दुनिया के गरीब देशों में श्रम विकास और
प्रकृति के प्रति आदर भाव का प्रतीक है। सत्य, अहिंसा,
ब्रह्मचर्य, विश्वशांति तथा चरखा गांधी की दुनिया में स्थायी
रूप से उपस्थित है। गांधी की परिकल्पना में विकास समृद्धि पर नहीं बल्कि मानवीय
संबंधों और प्रकृति के प्रति गहरे आदर भाव पर निर्भर है। वे उपभोग के स्थान पर
संयम और प्रतियोगिता के स्थान पर प्रतिस्पर्धा तथा सहयोग को प्रस्तावित करते
हैं। अत: गांधी का विकास मूल्य-आधारित तथा मूल्य-चेतना से प्रभावित है।
आकड़ों,
सूचनाओं तथा अनुभवों के आधार कहा जा सकता है कि विकास की समूची प्रक्रिया ने
पर्यावरण के प्रदूषण को उत्पन्न किया है। इस प्रदूषण ने और जैव असंतुलन पैदा
किया है। विज्ञान की व्यावहारिक परिणति हवा और पानी को स्वास्थ्य विरोधी बनाती
है। जल प्रदूषण और वायु प्रदूषण विश्व सभ्यता की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याएं
हैं।
विषमता में वृद्धि भी
विकास द्वारा उत्पन्न एक प्रमुख संकेत है। यह विषमता मौलिक नहीं बल्कि
अनिवार्यत: पर्यावरण से जुड़े है। तकनीक पर आधारित यह सभ्यता विषमता को बढ़ावा
देती है। यदि संसाधनों का सम्यक विभाजन हो तो विलासिता को स्थान नहीं मिल सकता
है।
Related : ओजोन परत का क्षरण निबंध
इस समस्या ने विस्थापना
को भी जन्म दिया है। यह विकास की अवधारणा विस्थापन को अनिवार्य बनाती है। इस
विस्थापना ने मनुष्य–मनुष्य, मनुष्य–भाषा, मनुष्य-समाज के
संबंधोंको क्षतिग्रस्त किया है। इस विस्थापन के फलस्वरूप मानव तथा प्रकृति के
ऐतिहासिक संबंध विकृत हुए हैं। विस्थापित कर बांध और शहर बनाने की योजना प्रकृति
और मनुष्य दोनों के विरोध में खड़ी है। इस विकास के विकल्प में न प्रकृति को
बनाया जा सकता है न ही मनुष्य को।
निष्कर्ष रूप में कहा
जा सकता है कि विकास और पर्यावरण आधुनिक सभ्यता के सबसे संकटपूर्ण प्रश्न हैं,
जिसकी मौजूदा अवधारणा विकल्प होना दिखाती है। इस विकास की सहकारक परिस्थितियां
संस्कृति, सभ्यता और प्रकृति में स्पष्ट दिखाई दे रही
हैं। इस विकास के निहितार्थ को पर्यावरण की आंख से ही पहचाना जा सकता है। ऐसे
चिंतक जो विविधता और मूल्य आधारित विकास के लिए चिंतित हैं वे विकल्प ढूढ़ना
चाहते हैं। लेकिन उसकी तस्वीर स्पष्ट नहीं है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है
कि जब तक तीसरी दुनिया की राजनीति, आर्थिक हित और अस्मिताएं संगठित होकर प्रभुत्तशाली
राष्ट्रों को चुनौती नहीं देती जब तक विकास और पर्यावरण का संबंध नकारात्मक
रहेगा और हम धीरे-धीरे वेहद उत्तेजक तथा रंगीन आत्महत्या की ओर बढ़ते जायेंगे।
अज्ञेय – (नंदा देवी
चोटी)
नंदा,
बीस, तीस, पचास वर्षों में
तुम्हारी वनराजियों की
लुगदी बनाकर
हम उस पर अखबार छाप चुके
होगे ...
0 comments: