वीर कुँवर सिंह का जीवन परिचय। Veer Kunwar Singh Hindi Biography
नाम
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कुंवर सिंह
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जन्म
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23 अप्रैल 1777
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जन्म स्थान
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जगदीशपुर गांव, बिहार
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पिता का नाम
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बाबू साहबजादा सिंह
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माता का नाम
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पंच रतन देवी
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मृत्यु
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26 अप्रैल 1858
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भारतीय समाज का अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध असंतोष चरम सीमा पर था। अंग्रेजी सेना के भारतीय जवान भी अंग्रेजों के भेद-भाव की नीति से असंतुष्ट थे। यह असंतोष 1857 ई0 में अंग्रेजों के खिलाफ खुले विद्रोह के रूप में सामने आया। क्रूर ब्रिटिश शासन को समाप्त करने के लिए सभी वर्गोें के लोगों ने संगठित रूप से कार्य किया। 1857 का यह सशस्त्र संग्राम स्वतन्त्रता का प्रथम संग्राम कहलाता है। नाना साहब, रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और बेगम हजरत महल जैसे शूरवीरों ने अपने-अपने क्षेत्रों मेें अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया। बिहार में दानापुर के क्रांतिकारियों ने भी 25 जुलाई 1857 को विद्रोह कर दिया और आरा पर अधिकार प्राप्त कर लिया। इन क्रांतिकारियों का नेतृत्व कर रहे थे वीर कुँवर सिंह।
वीर कुंवर सिंह का जन्म 23 अप्रैल 1777 को बिहार स्थित भोजपुर जिले के जगदीशपुर गांव में हुआ था। कुँवर सिंह बिहार राज्य में स्थित जगदीशपुर के जमींदार थे। उनके पिता बाबू साहबजादा सिंह और माता का नाम महारानी पंच रतन देवी था। कुंवर सिंह मालवा के प्रसिद्ध शासक महाराजा भोज के वंशज थे। कुँवर सिंह के पास बड़ी जागीर थी किन्तु उनकी जागीर ईस्ट इण्डिया कम्पनी की गलत नीतियों के कारण छिन गई थी।
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय कुँवर सिंह की उम्र अस्सी वर्ष की थी। वृद्धावस्था में भी उनमें अपूर्व साहस, बल और पराक्रम था। उन्होंने देश को पराधीनता से मुक्त कराने के लिए दृढ संकल्प के साथ संघर्ष किया।
अंग्रेजों की तुलना में कुँवर सिंह के पास साधन सीमित थे परन्तु वे निराश नहीं हुए। उन्होंने क्रांतिकारियों को संगठित किया। अपने साधनों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने छापामार युद्ध की नीति अपनाई और अंग्रेजों को बार-बार हराया। उन्होंने अपनी युद्ध नीति से अंग्रेजों के जन-धन को बहुत क्षति पहुँचाई।
कुँवर सिंह ने जगदीशपुर से आगे बढ़कर गाजीपुर, बलिया, आजमगढ़ आदि जनपदों में छापामार युद्ध करके अंग्रेजों को खूब छकाया। वे युद्ध अभियान में बाँदा, रीवाँ तथा कानपुर भी गए। इसी बीच अंग्रेजों को इंग्लैण्ड से नयी सहायता प्राप्त हुई। कुछ रियासतों के शासकों ने अंग्रेजों का साथ दिया। एक साथ एक निश्चित तिथि को युद्ध आरम्भ न होने से अंग्रेजों को विद्रोह के दमन का अवसर मिल गया। अंग्रेजों ने अनेक छावनियों में सेना के भारतीय जवानों को निःशस्त्र कर विद्रोह की आशंका में तोपों से भून दिया। धीरे-धीरे लखनऊ, झाँसी, दिल्ली में भी विद्रोह का दमन कर दिया गया और वहाँ अंग्रेजों का पुनः अधिकार हो गया।
ऐसी विषम परिस्थिति में भी कुँवर सिंह ने अदम्य शौर्य का परिचय देते हुए अंग्रेजी सेना से लोहा लिया। उन्हें अंग्रेजों की सैन्य शक्ति का ज्ञान था। वे एक बार जिस रणनीति से शत्रुओं को पराजित करते थे दूसरी बार उससे भिन्न रणनीति अपनाते थे। इससे शत्रु सेना कुँवर सिंह की रणनीति का निश्चित अनुमान नहीं लगा पाती थी।
आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया के मैदान में अंग्रेजों से जब युद्ध जोरों पर था तभी कुँवर सिंह की सेना सोची समझी रणनीति के अनुसार पीछे हटती चली गई। अंग्रेजों ने इसे अपनी विजय समझा और खुशियाँ मनाईं। अंग्रेजों की थकी सेना आम के बगीचे में ठहरकर भोजन करने लगी। ठीक उसी समय कुँवर सिंह की सेना ने अचानक आक्रमण कर दिया। शत्रु सेना सावधान नहीं थी। अतः कुँवर सिंह की सेना ने बड़ी संख्या में उनके सैनिकों को मारा और उनके शस्त्र भी छीन लिए। अंग्रेज सैनिक जान बचाकर भाग खड़े हुए। यह कुँवर सिंह की योजनाबद्ध रणनीति का परिणाम था।
पराजय के इस समाचार से अंग्रेज बहुत चिंतित हुए। इस बार अंग्रेजों ने विचार किया कि कुँवर सिंह की फौज का अंत तक पीछा करके उसे समाप्त कर दिया जाय। पूरे दल बल के साथ अंग्रेजी सैनिकों ने पुनः कुँवर सिंह तथा उनके सैनिकों पर आक्रमण कर दिया। युद्ध प्रारम्भ होने के कुछ ही समय बाद कुँवर सिंह ने अपनी रणनीति में परिवर्तन किया और उनके सैनिक कई दलों में बँटकर अलग-अलग दिशाओं में भागे। उनकी इस योजना से अंग्रेज सैनिक संशय में पड़ गए और वे भी कई दलों में बँटकर कुँवर सिंह के सैनिकों का पीछा करने लगे। जंगली क्षेत्र से परिचित न होने के कारण बहुत से अंग्रेज सैनिक भटक गये और उनमें बहुत से मारे गए। इसी प्रकार कुँवर सिंह ने अपनी सोची समझी रणनीति में परिवर्तन कर अंग्रेज सैनिकों को कई बार छकाया।
कुँवर सिंह की इस रणनीति को अंग्रेजों ने धीरे-धीरे अपनाना शुरू कर दिया। एक बार जब कुँवर सिंह सेना के साथ बलिया के पास शिवपुरी घाट से रात्रि के समय किश्तियों में गंगा नदी पार कर रहे थे तभी अंग्रेजी सेना वहाँ पहुँची और अंधाधुंध गोलियाँ चलाने लगी। अचानक एक गोली कुँवर सिंह की बाँह में लगी। इसके बावजूद वे अंग्रेज सैनिकों के घेरे से सुरक्षित निकलकर अपने गाँव जगदीशपुर पहुँच गए। घाव के रक्त स्राव के कारण उनका स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया और 26 अप्रैल 1858 को इस वीर और महान देशभक्त का देहावसान हो गया।
Chay PEELO 💸💵💶💸
ReplyDeleteJarur piyenge.
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