एक डाकू की आत्मकथा हिंदी निबंध: लोग मुझे गुनाहगार कहते हैं, डाकू, लुटेरा. पर क्या कभी किसी ने मेरी कहानी सुनी? हर किस्से का दो पहलू होता है, एक वो जो
एक डाकू की आत्मकथा हिंदी निबंध - Ek Daku ki Atmakatha Nibandh in Hindi
एक डाकू की आत्मकथा हिंदी निबंध: लोग मुझे गुनाहगार कहते हैं, डाकू, लुटेरा. पर क्या कभी किसी ने मेरी कहानी सुनी? हर किस्से का दो पहलू होता है, एक वो जो दुनिया देखती है, और दूसरा वो जो सिर्फ किरदार खुद जानता है. अखबारों की सुर्खियों में छाया हुआ वो 'डाकू', मैं ही हूँ, जिसके नाम से पुलिस थानों में हलचल मची रहती है. आज मैं आपको अपनी कहानी सुनाना चाहता हूँ, एक डाकू की आत्मकथा, जिसे शायद ही आपने कभी सुनी होगी.
मेरा बचपन किसी मखमली फर्श पर नहीं, बल्कि सड़क के किनारे झुग्गी-बस्ती में बीता. मैंने गरीबी का दंश बचपन से ही झेला. हमेशा खाने के लिए तरसती आँखें और तन ढकने के लिए फटे-पुराने कपड़े, बस यही मेरी पहचान थी. मेरे आसपास हर तरफ चोरी-छिपी, जुआ और अवैध धंधे फल-फूल रहे थे. स्कूल जाने के बजाय, मैं भी उसी दलदल में फँस गया. छोटी-मोटी चोरी से शुरुआत हुई, जो धीरे-धीरे आदत में बदल गई.
एक रात, चोरी करते पकड़ा गया. जेल की सलाखों के पीछे बिताए उन दिनों ने मुझे तोड़कर रख दिया. अंधेरा, बदबू, और बेबसी का वो माहौल मुझे आज भी रातों में डरा देता है. जेल से छूटने के बाद बदला लेने की आग मेरे सीने में धधक रही थी. समाज ने जिसे अपराधी का ठप्पा लगा दिया था, उसके पास अब खोने के लिए कुछ नहीं बचा था. मैंने चोरी से लूट की तरफ रुख किया.
अपने साथियों के साथ मिलकर मैंने एक गिरोह बना लिया. हमारी योजनाएँ सटीक होती थीं, हम जल्दी वार करते थे और फरार हो जाते थे. शहर के अमीरों को निशाना बनाते थे, उन्हीं को जिन्होंने कभी मेरी गरीबी नहीं देखी. उनके चमचमाते घरों में घुसकर, उनके धन को लूटना मेरे लिए एक तरह का बदला भी था.
कुछ समय के लिए पैसा खूब कमाया. महंगे कपड़े, शराब और जुए की मेजों पर दांव लगाना, ये सब मैंने किया. लेकिन ऐशो-आराम के पीछे एक खौफ भी रहता था. पुलिस का लगातार खौफ, हर आहट में संदेह, और हर चेहरे में मुखबिर का डर. रातों की नींद हराम हो गई, जिंदगी लगातार भागदौड़ में बदल गई.
एक रात, एक बड़े हीरे के व्यापारी के घर डाका डालने का प्लान बना. सब कुछ बिल्कुल ठीक चल रहा था, लेकिन अचानक एक कमरे से चीख निकली. अंदर जाने पर एक छोटी बच्ची रो रही थी. उसके माता-पिता बेहोश पड़े थे. उस मासूम चेहरे पर डर देखकर, मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई. वह डर वैसा ही था, जैसा बचपन में पुलिस के सामने खड़े होने पर मुझे महसूस हुआ था.
उस रात हम खाली हाथ लौटे. पुलिस को भनक तक नहीं लगी. लेकिन उस बच्ची का चेहरा मुझे सताता रहा. पहली बार, मैंने अपने किए पर पछतावा किया. शायद यही वो मोड़ था, जिसने मेरी जिंदगी का रुख मोड़ दिया.
अपने गिरोह के साथियों से दूरी बना ली. मैंने चोरी करना छोड़ दिया. अब मेरी रातें चैन की नींद में कटती हैं, हालांकि पुलिस की तलाश जारी है. मैं छोटे मजदूरों के लिए काम ढूंढने में मदद करता हूँ. कमाई ज्यादा नहीं है, लेकिन इतना तो हो ही जाता है कि पेट भर खाना मिल जाए और सिर छिपाने को छत मिल जाए.
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