वैश्विक निरस्त्रीकरण पर निबंध। Essay on Global Disarmament in Hindi
समय की गति एक-सी नहीं रहती। समय के साथ-साथ मनुष्य की विचारधाराएँ भी परिवर्तित होती रही हैं। अपने जीवन को सुखी और समृद्धिशाली बनाने के लिये मानव ने विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति की। भयानक रोगों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये उसने नवीन वैज्ञानिक चिकित्सा-यन्त्रों का आविष्कार किया। अपनी इस आश्चर्यजनक सफलता पर उसे गर्व हुआ और वह अट्टाहास करने लगा। नवीन शक्तियों के प्रादुर्भाव के साथ-साथ मानव के हृदय में युगों की छिपी हुई दानवीय-प्रवृत्ति भी शनैः शनैः जागृत होती रही और उसने हिंसात्मक एवं विध्वंसकारी अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करना भी आरम्भ कर दिया। मानव युद्ध एवं संघर्ष-प्रिय तो पहले ही था अब उसकी यह भावना और बलवती हो उठी। हाइड्रोजन एवं कोबाल्ट बमों के विनाशकारी कृत्यों का वर्णन मात्र ही मनुष्य को रोमांचित कर देता है। विश्व के शक्तिशाली राष्ट्र एक-दूसरे को एक क्षण में समाप्त करने के लिए आज उद्यत बैठे हैं। मानवता भयभीत होकर आज काँप रही है। युद्ध की विभीषिकाओं ने छोटे-छोटे निर्बल राष्ट्रों के पग हिला दिये हैं। बड़े-बड़े राष्ट्र भी बाहर से नहीं तो भीतर से अवश्य ही युद्धजन्य दुष्परिणामों से आतंकित हैं। ऐसी भयानक स्थिति में मानव हृदय में फिर शान्ति की भावना जन्म लेती जा रही है। विश्व के समस्त अंचलों से यह ध्वनि कर्णगोचर हो रही है कि अब युद्ध नहीं चाहिये, युद्ध बन्द करो, युद्ध बन्द करो।
युद्ध समाप्ति कर एकमात्र यदि कोई सम्भव उपाय है, तो वह निरस्त्रीकरण है। अमेरिका और रूस जैसे सबल राष्ट्र भी आज निरस्त्रीकरण की समस्या पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर रहे है परन्तु ये विचार केवल मौखिक ही हैं, क्योंकि निरस्त्रीकरण का अर्थ है, युद्धात्मक एवं हिंसात्मक। अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण एवं प्रयोग पर पूर्ण नियन्त्रण करना, जबकि ये राष्ट्र इस प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में आज भी अहर्निश व्यस्त हैं। निरस्त्रीकरण की समस्या अन्तर्राष्ट्रीय जगत् की आज सबसे बड़ी समस्या है। जब तक यह समस्या पूर्णरूप से हल नहीं हो जाती, तब तक विश्व-शांति के किसी भी प्रकार सम्भव नहीं। आणविक शक्तियों के विध्वंसकारी दुष्परिणामों को देखकर विश्व के अनेक राष्ट्रों ने इन शक्तियों के निर्माण एवं प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रस्ताव किया है, परन्तु आज तक इस समस्या पर विश्व के महान् राष्ट्रों ने हृदय से विचार नहीं किया और यह सिमस्या उत्तरोत्तर उग्र रूप धारण करती जा रही है।
द्वितीय महायुद्ध के विध्वंसकारी दुष्परिणामों को देखकर विश्व के बड़े-बड़े राष्ट्रों ने सन् 1945 में नि:शस्त्रीकरण के प्रश्न को उठाया। न्यू मैक्सिको में प्रथम आणविक विस्फोट के पश्चात् अमेरिका और ब्रिटेन दोनों देशों ने मिलकर एक सम्मिलित उद्घोषणा की कि आणविक शस्त्रास्त्रों के उत्पादन एवम् उपयोग पर नियन्त्रण लगाने के लिये एक संयुक्त राष्ट्र आयोग की स्थापना की जानी चाहिये। इस घोषणा के फलस्वरूप जनवरी सन् 1946 में अमेरिका, ब्रिटेन तथा सोवियत रूस के तत्कालीन विदेश मन्त्रियों ने एक संयुक्त-राष्ट्र-अणुशक्ति-आयोग की नियुक्ति की। इसी वर्ष अमेरिका ने जून के महीने में बरुच योजना के नाम से एक योजना प्रस्तुत की। इस योजना के कुछ प्रस्ताव इस प्रकार थे-
(1) भयपूर्ण सम्भावनाओं से युक्त सम्पूर्ण आणविक क्रिया-कलापों तथा इसी प्रकार के अन्य कार्यों की व्यवस्था तथा नियन्त्रण एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के अधीन हो।
(2) इस अन्तर्राष्ट्रीय संस्था की आशाओं का उल्लंघन करने वाले राष्ट्र को दण्डित किया जाए तथा स्थायी सदस्यों का विशेषाधिकार भी इस निर्णय में बाधा उपस्थित न करे।
(3) दण्ड विधान के नियम के साथ ही आणविक उत्पादन पर नियन्त्रण लगाया जाये और इन आणविक शक्तियों के उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली समस्त सामग्री का मानव के कल्याण में उपयोग किया जाये।
इस बरुच योजना के इन प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्रसंघ में भिन्न-भिन्न प्रकार से विचार किया गया तथा 1949 में सदस्यों के बहुमत के आधार पर संयुक्त-राष्ट्र-संघ ने भी इसे स्वीकार कर लिया। परन्तु सोवियत रूस तथा उसके अन्य मित्र राष्ट्रों ने इसमें यह संशोधन उपस्थित किया कि सर्वप्रथम आणविक अस्त्रों के प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिये तथा नियन्त्रण-विधवा बाद में कार्यान्वित की जानी चाहिये। इसके कुछ समय पश्चात् सद्भावनाओं से प्रेरित होकर रूस ने यह निर्णय किया कि अणुबमों पर प्रतिबन्ध एवं नियन्त्रण दोनों कार्य साथ-साथ ही प्रारम्भ किया जाने चाहिये। इसके पश्चात् रूस के अनेक विरोधों के कारण संयुक्त-राष्ट्र-संघ की समिति, अणुशक्ति, अस्त्रायोग तथा आयोग को तोड़कर उन्हें केवल एक ही आयोग में “नि:शस्त्रीकरण आयोग के नाम से परिवर्तित कर दिया। कालांतर में रूस और अमेरिका के पारस्परिक वैमनस्य के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ की समिति ने इस आयोग के समस्त कार्य-कलापो को एक निष्पक्ष एवं मध्यस्थ उपसमिति के अधीन कर दिया। सन् 1953 और 1954 के बीच में इस समिति की अनेक बैठकें हुई। अक्टूबर 1954 में राष्ट्र-संघ ने यह प्रस्ताव पारित किया कि प्रमुख रूप से अस्त्र निर्माता पाँच महान् राष्ट्रों का सम्मिलित निर्णय होगा। इसके पश्चात् अब तक इन पाँच महान् राष्ट्रों की अनेक बैठकें हुईं, जिनमें बहुत से प्रस्ताव और संशोधन उपस्थित किये जाते रहे, परन्तु अभी तक कोई निश्चित निर्णय निकालना सम्भव न हो सका और न भविष्य में ही कोई आशा की किरण दिखाई पड़ती है।
सन् 1955 में रूस ने अपनी सेना में से सात लाख सेना कम करने की घोषणा की थी। विश्वशान्ति के लिये रूस का यह सद्भावनापूर्ण पदन्यास प्रशंसनीय था। अगस्त 1957 में निःशस्त्रीकरण की समस्या पर विचार करने के लिये एक सभा फिर हुई थी, जो केवल सुझाव और संशोधन तक ही सीमित रही। अमेरिका के तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री डलेस ने अमेरिका, रूस और वारसा संधि के देशों में “हवाई-निरीक्षण” का प्रस्ताव पेश किया। नाटो परिषद् ने भी निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी सभी बातों पर अपनी पूर्ण सहमति प्रदर्शित की। परन्तु दु:ख है कि विश्व के महान् राष्ट्र नि:शस्त्रीकरण के संबंध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सके। भारतवर्ष ने अपने सद्भावनापूर्ण प्रयत्नों से विश्व के समस्त महान् राष्ट्रों को नि:शस्त्रीकरण की पवित्र दिशा की ओर प्रेरित किया। पं० नेहरू की विदेशों की मैत्रीपूर्ण यात्राओं तथा वहां प्रकट किए हुये विचारों ने इस पुनीत कार्य को पर्याप्त रूप में आगे बढ़ाया था, फिर भी कोई उज्ज्वल भविष्य दृष्टिगोचर नहीं हुआ। इस प्रकार 1958 के बाद के कुछ वर्षों में नि:शस्त्रीकरण आयोग निष्क्रिय बना रहा। संयुक्त राष्ट्र महासभा के 15वें अधिवेशन में रूस के प्रतिनिधि ने एक नि:शस्त्रीकरण प्रस्ताव रखा, जिसके आधार पर मार्च, 1962 में 18 राष्ट्रों की एक निःशस्त्रीकरण समिति बनाई गई। इसके बाद 1963 में जेनेवा में नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन हुआ जो महाशक्तियों की स्वार्थ प्रियता के कारण विफल रहा। 25 जुलाई, 1963 को अणु परीक्षण प्रतिबन्ध सन्धि पर अमेरिका, ब्रिटेन तथा रूस ने हस्ताक्षर करके नि:शस्त्रीकरण के लिये एक नया पथ प्रशस्त किया। इसके बाद भी सभी नि:शस्त्रीकरण योजनायें विफल रहीं। 13 जून, 1968 ई० को परमाणु शक्ति निरोध सन्धि हुई, जिसे 61 राज्यों ने स्वीकार किया और यह 5 मार्च, 1970 ई० को लागू की गई। 1970 से 1978 तक अनेक नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन हुए, लेकिन इस दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रगति न हो सकी। सन् 1978 में अमेरिका ने न्यूट्रान बम बनाने की घोषणा कर दी, जिससे जेनेवा का नि:शस्त्रीकरण सम्मेलन भी विफल रहा। सन् 1981-82 में रीगन का अमेरिकी प्रशासन निःशस्त्रीकरण के पक्ष में नहीं था, इसी प्रकार 1987 में भी अमेरिका ने इसका विरोध किया। अतः यह समस्या निरन्तर जटिल होती जा रही है। शान्ति, शान्ति और प्रेम से ही स्थापित की जा सकती है, युद्ध और हिंसा से नहीं। जब तक विश्व में पूर्ण रूप से नि:शस्त्रीकरण न हो जाएगा, तब तक साम्राज्यवादी सबल राष्ट्र अबल राष्ट्रों को अपने चुंगल में फंसाते रहेंगे और मानवता इसी प्रकार ध्वस्त होती रहेगी। अतः नि:शस्त्रीकरण आज विश्व की प्रमुख समस्या है, विश्व के कूट-राजनीतिज्ञों ने एक स्वर से इसका समाधान करना अत्यन्त आवश्यक है। भारत की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधीभी इस दिशा में प्रयत्नशील रही हैं।
प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में भारत की सरकार विश्व-शान्ति और विश्व बंधुत्व की भावनाओं पर आधारित भारत की सत्य, अहिंसा और प्रेम की नीति का अनुसरण करती रही है। प्रधानमन्त्री ने अपनी ब्रिटेन, अमेरिका और सोवियत संघ की राजकीय यात्राओं में निःशस्त्रीकरण के ही सिद्धान्त पर बल देते हुए विश्व के अन्य राष्ट्रों से बार-बार कहा है कि निःशस्त्रीकरण से ही विश्व में शान्ति और मानवता की रक्षा हो सकती है। परन्तु अपने को बड़ा समझने वाले राष्ट्र अभी इस सिद्धान्त पर एकमत नहीं है। कल्याण इसी में है कि विश्व के शक्तिशाली राष्ट्र निःशस्त्रीकरण को स्वीकार कर लें अन्यथा तृतीय विश्व युद्ध की विभीषिकायें सदैव ही बनी रहेगी। प्रधानमन्त्री राजीव गांधी इस दिशा की ओर विश्व को महान् शक्तियों को प्रेरित करने में सतत् प्रयत्नशील हैं। परन्तु उनके अथक प्रयासों में अमेरिका विघ्न उपस्थित करता रहा है।
31 मई, 1988 से चार सप्ताह के लिये प्रारम्भ हुए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा बुलाये गये निःशस्त्रीकरण के विशेष अधिवेशन में भारत के प्रधानमन्त्री राजीव गांधी द्वारा निःशस्त्रीकरण सम्बन्धी सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करने में सफल सिद्ध न हो सके। 26 जून, 88 को यह प्रस्ताव अमेरिका विरोध के कारण पास नहीं हुआ।
निशस्त्रीकरण सम्बन्धी इस सर्वसम्मत समझौते के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ में 159 देशों के प्रतिनिधि लगातार 22 घंटे तक प्रयास करते रहे, लेकिन अमेरिका के अड़ियल रवैये के कारण उनकी तमाम कोशिशे निष्फल रहीं। संयुक्त राष्ट्र महासभा का चार सप्ताह तक चला सम्मेलन अपना मकसद हासिल किये बिना आज यहाँ समाप्त हो गया।
भारत ने सर्वसम्मत समझौता तैयार करने के लिए काफी प्रयास किये लेकिन आज अन्तिम क्षणों में सारे प्रयासों पर पानी फिर गया और 159 राष्ट्रों के प्रतिनिधि अमेरिका पर यह आरोप लगाते हुए जुदा हो गये कि अमेरिका विश्व निरस्त्रीकरण की दिशा में एक नयी कार्य-योजना के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है।
उल्लेखनीय है कि इस अधिवेशन को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने सन् 2010 तक पूर्ण विश्व नि:शस्त्रीकरण से सम्बन्धित कार्य योजना पेश की थी और संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों से अपील की थी कि वे इस योजना को यथा शीघ्र अमल में लाने के लिये प्रयास करें।
तीन चरणों की इस कार्य-योजना के प्रस्तावों के अनुरूप संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधि राष्ट्रों ने एक व्यापक समझौते की रूप-रेखा तैयार की थी। अधिवेशन समाप्त होने के 22 घंटे पहले से न कुछ प्रमुख राष्ट्रों के सदस्य इसे अन्तिम रूप देने के प्रयास में जुट गये थे, लेकिन उनकी ये अभिलाषाइस अधिवेशन में पूरी नहीं हो सकी।
प्रस्तावित समझौते के अंतिम दस्तावेज के 67 पैरों में से 50 पैरों पर सभी प्रतिनिधियों में सहमति हो चुकी थी कि तभी अमेरिका ने आगे बातचीत में शामिल होने से इंकार कर दिया। नतीजतन अधिवेशन को वहीं समाप्त कर देना पड़ा।
अमेरिका इस दस्तावेज में उल्लिखित इन पैरों को नहीं पचा पाया जिनमें इजराइल और दक्षिण अफ्रीका के परमाणु कार्यक्रमों और अतंरिक्ष आयुधों की आलोचना की गई थी। अमेरिका ने नौसैनिक नि:शस्त्रीकरण पर जोर देने वाले पैरों पर भी आपत्ति प्रकट की।
भारत सहित तीसरी दुनिया के लगभग सभी देशों ने अधिवेशन की असफलता पर गहरा अफसोस जाहिर किया। संयुक्त राष्ट्र में भारतीय राजदूत चिन्मय आर० गरेखान ने भी इसे बेहद अफसोस जनक बताया।
भारत के साथ-साथ कई दूसरे देशों के प्रतिनिधियों ने अधिवेशन को असफल होने से बचाने की भरसक कोशिश की पर इसका कोई नतीजा नहीं निकला। अधिवेशन के आखिर में कोई घोषणा नहीं की गयी, बल्कि यह आशा व्यक्त की गयी कि इससे कुछ न कुछ तो हासिल होगा ही।
विकासशील देशों को इस अधिवेशन की सफलता को लेकर बड़ी-बड़ी आशायें थी। खासकर अमेरिका और सोवियत संघ के बीच वाशिंगटन और मास्को में मध्यम दूरी प्रक्षेपास्त्रों को खत्म करने के बारे में संधियों के होने से इस अधिवेशन के लिए अच्छा माहौल बन गया था। लेकिन अंततः सब निष्फल रहा और इस अधिवेशन का भी वही नतीजा रहा जो 1982 और 1987 में हुये अधिवेशनों का रहा था।
कुछ गुट निरपेक्ष देशों के प्रतिनिधियों ने तो अधिवेशन की असफलता पर अपने गुस्से का खुलकर इजहार भी कर दिया। तंजानिया के राजदूत ने आरोप लगाया कि अधिवेशन की कार्य-सूची को मनमाने तौर पर बदलकर कुछ ताकतों ने अधिवेशन को ही अपनी धौंस में लेने की कोशिशें की।
अधिवेशन में अपने रुख के बारे में सफाई देते हुए अमेरिकी राजदूत जॉन वर्न वाल्टर्स ने कहा “महज एक कागज के टुकड़े के लिये अमेरिका अपनी राष्ट्रीय नीतियों के अहम् पहलुओं में फेर बदल नहीं कर सकता। तीसरी दुनिया के देशों को चाहिये कि अगली बार समझौते की शर्तों को ज्यादा वाजिब रूप दें।”
1996 के अन्त में नि:शस्त्रीकरण की दिशा में विश्व ने फिर तेज प्रयास किये। परन्तु भारत के प्रधानमन्त्री श्री एच० डी० दैव गौड़ा ने उस ए बी सी के फार्मूले पर विश्व के दवाब के बावजूद हस्ताक्षर न किये। विकसित देश विकासशील देशों को हमेशा आगे बढ़ने से रोकते ही रहे हैं।
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