कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध: ऊई, थोड़ा धीरे खींचो न, मुझे चोट लग रही है। ग्यारह वर्षीय नेहा इस ध्वनि को सुन चकित हो इधर-उधर देखने लगी, पर, उसे कोई दिखा
कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध - Kursi ki Atmakatha par Nibandh
कुर्सी की आत्मकथा पर निबंध: ऊई, थोड़ा धीरे खींचो न, मुझे चोट लग रही है। ग्यारह वर्षीय नेहा इस ध्वनि को सुन चकित हो इधर-उधर देखने लगी, पर, उसे कोई दिखाई न दिया। वह कुछ समझ पाती कि उसे पुन: सुनाई दिया 'नेहा, मैं तुम्हारी कुर्सी हूँ।' विस्फारित नेत्रों से कुर्सी की ओर देख नेहा किंकर्तव्यविमूढ़ रह गई। उसे अचंभित एवं अवाक् देख कुर्सी फुसफुसाते हुए बोली- 'नेहा, तुम मुझे बात करते देख इतनी हैरान क्यों हो।' तुम्हें यही लग रहा होगा कि एक कुर्सी कैसे बात कर सकती है ? इससे पहले कि नेहा कुछ कहती, कुर्सी ने बड़ी कोमलता से नेहा को अपने पास बिठाया। नेहा आश्चर्य से अभी तक अवाक् थी। कुर्सी स्वयं बोली— नेहा, मैं तो तुम्हें अपनी सखी उसी दिन से मान चुकी हूँ जिस दिन तुम मुझे दुकान से यहाँ खरीदकर लाई थीं। मैं तभी से तुमसे बात करने को उत्सुक थी। आज ही अवसर मिला है, इसलिए, आराम से बैठो। 'लेकिन, तुम तो निष्प्राण हो, फिर कैसे बात कर रही हो ?' आश्चर्य से नेहा ने पूछा। 'नेहा, अब हैरानी दूर करो। माना, मैं अब निष्प्राण हूँ। पर, एक समय वृक्ष के रूप में मैं भी जीवित थी। तुम्हारी ही तरह साँस लेती, पानी पीती और भोजन खाती थी। दुख- सुख का अनुभव करती थी। आज प्राकृतिक रूप से वह क्षमता अब मुझमें नहीं है, पर, एक कुर्सी के रूप में अभी भी मेरा अस्तित्व जीवित है। अच्छा छोड़ो, तुमसे मन की कहने की इच्छा बलवती होती जा रही है, ध्यान से मेरी सुनती जाओ।' यह सुन अब नेहा को भी आनंद आने लगा था, इसलिए अपने चेहरे को हथेलियों पर टिका वह अपनी प्रिय कुर्सी को ध्यान से देखती जा रही थी। कुर्सी ने बच्चों की सी उत्सुकता से कहना आरंभ किया - मेरा जन्म भारत में हिमालय की तराइयों में स्थित जंगल में हुआ था। वृक्ष के छोटे से टुकड़े को विशेष रूप से काटकर वर्षा के दिनों में हमें धरती में लगाया जाता है। साथ ही हमारी देखभाल भी अच्छी तरह की जाती है। उपजाऊ भूमि और वर्षा की सहलाती, तृप्त करती शीतल बूँदें हमें बड़े प्यार से माँ की ममता देकर जगाती और हमारे फूटते अंकुरों को टॉनिक देकर बड़ा करती जाती है। इस प्रकार अनुकूल एवं स्वास्थ्यवर्द्धक वातावरण में हम बहुत जल्दी बढ़ते जाते हैं। मेरी जाति के हजारों पेड़ मेरी ही आयु की तरह धीरे-धीरे बढ़ते गए। हमारी देख-रेख करने वालों ने हमारा नाम 'सागौन' का पेड़ रखा। उनकी बातों द्वारा ही मुझे पता चला था कि हम अन्य वृक्षों से कई बातों में भिन्न थे। जैसे हमारी लकड़ियाँ बहुत मूल्यवान एवं सौंदर्यपूर्ण होती हैं। इसी से हमसे सुंदर-सुंदर वस्तुएँ बनाई जाती हैं जो बेशकीमती एवं लंबे समय तक टिकाऊ होती हैं। उस समय मेरी समझ में यह बातें नहीं आती थीं अब कहीं जाकर वह बातें समझ पाई हूँ।
दक्षिण की स्वास्थ्यवर्द्धक हवाएँ, पर्याप्त मात्रा में वर्षा एवं नमी वाली उपजाऊ भूमि में हम सभी वृक्ष बढ़ते जा रहे थे। आस-पास के वृक्षों में मेरा शारीरिक गठन, बनावट एवं सुंदरता सबसे निराली थी। सबसे मजबूत एवं कद्दावर शरीर होने के कारण सभी मुझे अपना नेता मानते थे। समय-समय पर अपनी समस्याओं के समाधान के लिए मुझसे सहायता लेते थे। इस प्रकार उस जंगल में मेरी काफी धाक थी, छोटे-बड़े सभी वृक्ष मेरा सम्मान करते थे और मेरी सलाह मानते थे। उदार हृदय तथा परोपकारी स्वभाव होने के कारण मैं अपने दल के वृक्षों का मुखिया चुना गया। मैं भी अपने कर्त्तव्यों को सुचारू रूप से निभाता था। एक बार 'वन - महोत्सव' नामक त्योहार के दिन हमारे जंगल में बहुत-से लोग आए। इतने सारे लोगों का जमावड़ा देख मैं तो घबरा ही गया कि शायद ये हमें अपने साथ ले जाने आए हैं, पर ऐसा नहीं हुआ। वहाँ हमारे जैसे पेड़ों के हजारों पौधे रोपे गए, बच्चों द्वारा सुंदर गीत गाए गए। हमारी उपयोगिता पर अनेक भाषण हुए उसी दिन मुझे पता चला कि यदि धरती पर हम न हों तो प्रदूषण नाम के कई राक्षस मनुष्यों को इकट्ठा ही निगल जाएँ। हमारे ही कारण वायु शुद्ध एवं सुगंधित रहती है और मनुष्य जीवित हैं। हमारे ही कारण यह धरती सुंदर एवं सलोनी है। यह सुनकर हम सबका सिर गर्व से ऊँचा हो गया। मेरे आनंद का तो पारावार ही नहीं रहा। रिमझिम वर्षा में अपने जीवन की उपयोगिता एवं प्रशंसा सुन मेरे पैर ज़मीन पर टिक ही नहीं रहे थे। सुखद समय बहुत जल्दी बीत जाता है। एक रात कुछ गाड़ियों की ध्वनि सुन मेरी नींद खुल गई और सब कुछ समझकर मैंने सबको दुश्मनों से चौकन्ना कर दिया, पर होनी बलवान होती है। हमारी विडंबना भी देखो कि हम प्राणियों को जीवन देते हैं, पर अपने प्राणों की रक्षा स्वयं नहीं कर पाते।
एक दिन प्रातः कई लोग हमारे संरक्षक वन अधिकारी के साथ आए। उन्हें देख मुझे किसी प्रकार की घबराहट नहीं हुई, क्योंकि अब तक इतना कुछ सह चुका था कि स्वयं को भाग्य के भरोसे छोड़ दिया था। उनकी बातों से हम समझ गए थे कि वे हमारा सौदा कर रहे हैं और खरीद कर अपने साथ ले जाएंगे। पुरानी जगह एवं पुराने लोगों से बिछुड़ने का दुख नई जगह जाने एवं नए लोगों से मिलने का उत्साह दोनों के झूले में झूलते - झूलते हम एक नई जगह आ गए जो एक बड़ा-सा कारखाना जैसा था। हमें एक - एक करके उस कारखाने के भीतर पहुँचाया गया। उस रात हम असमंजस की अवस्था में रहे। मेरी आँखों से नींद कोसों दूर जा चुकी थी। हर आहट पर दिल अंजाने भय से धड़कने लगता कि न जाने अब क्या होगा। मेरे साथी मुझे समझाते कि अब जो होगा अच्छा ही होगा। चिंता करके अपना स्वास्थ्य खराब मत करो, होगा तो वही जो भाग्य में बदा है।
दो-चार दिन पश्चात् हमें उस स्थान से उठा-उठाकर एक नई जगह ले जाया गया। वहाँ एक लंबी गर्दन एवं बड़े- बड़े पंजों वाला राक्षस था जो एक-एक करके हम सबको एक ऐसी जगह ले गया जहाँ उससे भी भयानक उसका दूसरा भाई बैठा था। उसके लंबे-लंबे दाँत देख मैंने तो अपनी आँखें मींच लीं पर, अधिक देर तक आँखें बंद न रख पाया। वह दानव अब मेरी गर्दन जकड़ने आया, मैंने स्वयं को बचाने का बहुत प्रयास किया, पर वह बहुत शक्तिशाली था। अपनी मौत सामने देख अपने बीते सुखद जीवन पर मैंने एक क्षण नजर डाली और अपने शरीर को ढीला छोड़ दिया क्योंकि मुझे याद आया कि जीते जी हम प्राणियों के लिए उपयोगी हैं पर, मरने के पश्चात् भी हम उपयोगी और परोपकारी बन जाते हैं। इस सोच ने मुझे शक्ति प्रदान की थी। मुझे तो बड़े-बड़े दाँतों वाली उस दानवी (आरी) पर क्रोध आ रहा था तो हमारे शरीर को विच्छिन्न करती हुई भयानक चीखभरी अट्टहास कर रही थी। दूसरों की पीड़ा पर हँसना ठीक नहीं। पर मैं विवश था, उस जड़ बुद्धि राक्षसी को कैसे समझाता। अपने सुंदर और कद्दावर शरीर को टुकड़ों में देख मैं बिलख-बिलखकर रोया। मेरे सभी साथियों का यही हाल हुआ। रात भर हम उसी अवस्था में पड़े कराहते और अपने भाग्य पर रोते रहे।
दूसरे दिन प्रातः कई लोग हमें उठा-उठाकर एक साफ-सुथरी जगह पर रख आए जहाँ पर विभिन्न प्रकार के हथियार थे। वहाँ उपस्थित लोगों ने हमारे शरीर के टुकड़ों को परखा और मेरे टुकड़ों को एक ओर रख दिया। फिर मेरे एक-एक टुकड़ों को काट-काट कर, घिस - घिस कर कोई रूप दिया जाने लगा। अपने शरीर की इतनी दुर्गति के बारे में मैंने कभी नहीं सोचा था। संतोष करने के अतिरिक्त मेरे पास दूसरा कोई चारा न था। इसके बाद उन्होंने मेरे टुकड़ों को मोटी-मोटी सुइयाँ चुभोकर जोड़ना शुरू किया। मेरी पीड़ा और चीखों की वहाँ कोई सुनवाई नहीं थी। रो-रोकर, कराहकर स्वयं को सांत्वना दे रही थी। जब मैंने अपनी आँखों से आँसू पोंछे तो अपने नए रूप को देखकर मैं अचंभित रह गई। इतने सुंदर रूप की तो मैंने कभी कल्पना ही नहीं की थी। उस समय मुझे गर्व का अनुभव हुआ जब सबके बीच मेरी प्रशंसा की गई। कई प्रकार की क्रीम, पाउडर आदि लगाकर मेरा रूप सँवारा गया। कई सुगंधित तेल मुझ पर मले गए। फिर एक बड़े से शीशे वाली जगह पर मुझे रख दिया गया। वहाँ बैठी - बैठी मैं सारा दिन लोगों को देखती और अपनी सुंदरता की प्रशंसा सुनकर अपने भाग्य पर इठलाती। इस प्रकार एक दिन तुम अपने माता-पिता के साथ वहाँ आईं और मुझे खूब खुशी हुई जब तुम मुझे लेने की जिद करने लगीं। माँ ने तुम्हारी जिद्द पूरी की और अन्य कुर्सियों के साथ - साथ मुझे भी अपने पास रख लिया। इस प्रकार मैं तुम्हारे घर आ गई। उस दिन तो मैं बहुत खुश हुई जब मुझे तुम्हारे कमरे में भेजा गया। वह दिन मेरे जीवन का सबसे भाग्यशाली दिन था इसे केवल मेरे स्थान को प्राप्त करने वाले ही जान सकते हैं। जानती हो नेहा, आज मैं अपने विगत जीवन के बारे में सोचती हूँ तो मुझे लज्जा अनुभव होती है। वह समय याद आता है जब मैं अपने नश्वर सौंदर्य एवं कद्दावर शरीर पर व्यर्थ गर्व करती थी। गर्व तो मुझे अपने आप पर अब होता है, क्योंकि तुम मुझ पर बैठकर सच्चा ज्ञान प्राप्त करती हो अर्थात् तुम्हें ज्ञान प्राप्त करने में मेरा भी पूर्ण सहयोग है, यही मेरे गर्व का कारण है। नेहा ने सजल आँखों से अपनी प्रिय कुर्सी को देखा और स्नेह से उसे हाथ से सहलाते हुए बोली, “सखी, अब मैं तुम्हें और भी चाहने लगी हूँ, क्योंकि तुमने जीवन में बहुत पीड़ा और कष्ट सहा है।" यह कहते-कहते नेहा उबासियाँ लेती हुई कुर्सी को पकड़े - पकड़े वहीं सो गई। माँ ने आकर उसे धीरे से उठाकर पलंग पर लिटा दिया।
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