राष्ट्रीयता और अन्तर्राष्ट्रीयता "वसुधैव कुटुम्बकम" पर निबंध।
राष्ट्रीयता का अर्थ है “देश-प्रेम की उत्कृष्ट भावना”। यह भावना राजनीतिक आन्दोलन का भी रूप धारण कर लेती है, परन्तु तब जबकि देश आपदाग्रस्त हो। स्वतन्त्रता-प्राप्ति से पूर्व भारतवर्ष में भी राष्ट्रीयता की भावना को प्रचण्ड रूप से जाग्रत किया गया था। देशवासियों को देश के स्वर्णिम अतीत की स्मृति दिलाई जाती थी। प्राचीन सभ्यता की श्रेष्ठतम परम्पराओं और अपने पूर्वजों के शौर्य और युद्धों की याद दिलाकर देशवासियों के हृदय में राष्ट्रीयता की भावना को विकसित किया गया था, जिसके फलस्वरूप असंख्य भारतीयों ने वर्षों तक जेलों की असह्य यातनायें सहीं, लाठी और गोलियों के शिकार हुए, फाँसी का हँसते-हँसते आलिंगन किया, परन्तु अपने अटल ध्येय से विचलित न हुए। उनका एक ही नारा था हमको जीना होकर स्वतन्त्र हमको मरना होकर स्वतन्त्र और फिर वे बढ़े यही लौ ले कार्य पर प्रति-हिंसा का भाव नहीं। अन्त में विदेशियों को विवश होकर यहाँ से पलायन करना पड़ा। जब किसी देश में राष्ट्रीय भावना की इतनी तीव्रगति हो तब देश की शक्ति को दासता के पाश में बाँधे नहीं रह सकते। भारतवर्ष की ही नहीं, चीन तथा इण्डोनेशिया, आदि विश्व के अनेक राष्ट्रों की इसी प्रकार की गौरवपूर्ण गाथा है। आज से लगभग ढाई सौ वर्ष पूर्व, संयुक्त राज्य अमेरिका ने भी इसी प्रकार यूरोपियन जातियों से मुक्ति प्राप्त की थी । यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास उन्नीसवीं शताब्दी में अधिक हुआ, जिसके परिणामस्वरूप बिस्मार्क ने जर्मनी में, मैजिनी व मुसोलिनी ने इटली में एक सुसंगठित राज्य की स्थापना की। इटली ने तो अपना साम्राज्य बढ़ाने के लिए अबीसीनिया पर आक्रमण कर दिया और उसे अपने अधिकार में ले लिया। राष्ट्रीयता की उत्कृष्ट भावना को जाग्रत करने में देश के कवियों, उपन्यासकारों, संगीतज्ञों तथा ओजस्वी वक्ताओं का विशेष हाथ रहता है। उदाहरण के लिए, इटली में मैजिनी तथा जर्मनी में हीगल तथा नीत्शे का राष्ट्रीय भावना को दृढ़ करने में बहुत बड़ा सहयोग था। हमारे देश के अनेक वीरों ने राष्ट्रीयता की भवना से प्रेरित होकर ऐसे-ऐसे स्तुत्य कार्य किये हैं, जो राष्ट्रीयता की भावना बिना जाग्रत हुए नितान्त असम्भव थे। सरदार भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस और चन्द्रशेखर आजाद आदि वीर ऐसे ही महापुरुषों में से हैं। सुभाषचन्द्र बोस की ‘आजाद हिन्द फौज' और उनका देश से अंग्रेजों के कारागार निकल जाना। इसी भावना के ज्वलन्त उदाहरण हैं। जिन दिनों जर्मन वायुसेना इंग्लैण्ड पर धुआंधार बम बरसा रही थी, उस द्वितीय युद्ध के भयंकर समय में अंग्रेजों की राष्ट्रीयता की भावना ही उन्हें बचा पाई थी। घोर कष्ट सहते हुए भी अंग्रेज यही कहते रहे थे कि हम आत्म-समर्पण कभी नहीं करेंगे। इंग्लैण्ड का बच्चा-बच्चा अपने देश की आन-बान की रक्षा के लिए सहर्ष अपने प्राणों का उत्सर्ग करने के लिये उत्सुक था।
भारतवर्ष में भी मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, सोहनलाल द्विवेदी तथा रामधारी सिंह "दिनकर" आदि ऐसे ही राष्ट्र कवि हुए हैं, जिन्होंने भारत माँ की दासता की बेड़ियाँ काटने में अपनी कविता-रूपी तलवार से पूर्ण सहयोग दिया है। राष्ट्रीयता की भावना के उदय होते ही मनुष्य का स्वाभिमान जाग उठता है, आत्महीनता के भाव नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार वह अपने देश के लिये मृत्यु का भी सहर्ष आलिंगन करने के लिए उद्यत हो जाता है।
राष्ट्रीयता की भावना से केवल राष्ट्र का ही कल्याण नहीं होता, अपितु राष्ट्रीय भावनाओं से पूर्ण व्यक्ति भी अनेक प्रकार से लाभान्वित होते हैं। मनुष्य अपने संकुचित 'स्व' की सीमाओं को छोड़कर आगे बढ़ता है। उसके हृदय में “आत्मवत् सर्वभुतेषू" और "वसुधैव कुटुम्बकम्” जैसे पवित्र आदर्शों का उदय होता है। एक प्रकार वह नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर होता हुआ एक कर्तव्यशील विवेकी पुरुष बन जाता है। वह अपने हितों की अपेक्षा देश के हितों को महान् समझता है। इस प्रकार उसके हृदय में त्याग का सुन्दर सरोज विकसित होकर दिदिगन्तों को सौरभान्वित कर देता है। देश-भक्ति की पवित्र सलिला उसके हृदय की मलिनताओं को नष्ट कर देती है। उनके विचारों में दृढ़ संकल्प और हृदय में स्वाभिमान निवास करने लगता है।
प्रत्येक वस्तु अपनी उचित सीमा में लाभकारी सिद्ध होती है। जब कोई वस्तु अपने औचित्य की सीमाओं का उल्लंघन कर देती है तो वहीं घातक पदार्थ के रूप में सामने आ जाती है। राष्ट्रीयता की भावना के विषय में भी यही सत्य है। जब लोगों में यह भावना सीमा से अधिक बढ़ जाती है, तो वे लोग विश्व के अन्य देशों व जातियों को तुच्छ समझकर उन्हें अपने अधीन करने के लिए अधीर हो उठते हैं। यह राष्ट्रीयता का भयानक रूप होता है। जर्मन विचारकों, लेखकों और वहाँ के नेताओं ने जर्मन जनता में यह भावना दूंस-ठूस कर भर दी थी कि जर्मन जाति ही विश्व की श्रेष्ठतम जाति है और उसी में शुद्ध आर्यत्व विद्यमान है और हिटलर इसी विचारधारा का प्रबल समर्थक था। इसी अति राष्ट्रीयता के आवेश में उसने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। इसी आवेश में इटली के मुसोलिनी ने अबीसीनिया पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लिया। जब राष्ट्रीयता बढ़ते-बढ़ते अपने इस भयंकर रूप में आ जाती है, तो वह विश्व के लिए एक भयानक समस्या बन जाती है। द्वितीय विश्वयुद्ध ऐसी ही अति राष्ट्रीयता का परिणाम था।
आज का युग विज्ञान का युग है। विश्व के सुदूर स्थान भी आज एक-दूसरे के अत्यन्त निकट आ गये हैं। समय और दूरी का अन्तर लगभग समाप्त हो गया है। सात समुद्र पार बैठे व्यक्ति से आप आसानी से बातें कर सकते हैं, देख सकते हैं और कुछ घण्टों में ही आप वहाँ पहुँच भी सकते हैं। परिणामस्वरूप विश्व के सभी राष्ट्र एक-दूसरे के घनिष्ठ सम्पर्क में आ रहे हैं। तथा व्यापारिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो रहे हैं। व्यापारिक, राजनीतिक और धार्मिक दृष्टिकोण से विश्व के अनेक राष्ट्र परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। आज एक देश की किसी विशेष वस्तु के अधिक उत्पादन का प्रभाव तुरन्त ही दूसरे देशों पर पड़ने लगता है। आज वह समय नहीं रहा कि कोई देश चुप-चाप अलग कोने में पड़ा रहकर अपना निर्वाह कर सके। ऐसी स्थिति में, यदि सब राष्ट्र अपनी-अपनी राष्ट्रीयता की भावना का प्रचार करने लगे और अपने को अन्य राष्ट्रों की अपेक्षा महान् समझने लगें, तो विभिन्न देशों के परस्पर मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध असम्भव हो जायेंगे। आज संकुचित राष्ट्रीयता का युग समाप्त हो चुका है, अतः विश्व के सभी राष्ट्रों के पारस्परिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को सुदृढ़ बनाने के लिये आवश्यक है कि अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना का अधिक प्रचार और प्रसार किया जाये । वसुधैव कुटुम्बकम् के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए सभी राष्ट्र आपस में सहनशीलतापूर्वक जीवन व्यतीत करें तथा सह-अस्तित्व के सिद्धान्तों का पालन करें तभी विश्व के समस्त राष्ट्रों में मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना के ही विकास के लिये प्रथम युद्ध से जर्जर और शिथिल तथा भावी आशंकाओं से भयभीत संसार में ‘लीग ऑफ नेशन्स' की स्थापना की गई थी। उस समय विश्व के सभी राष्ट्रों ने यह निश्चय किया था कि अब से सभी राष्ट्र अपने पारस्परिक झगड़ों को शान्तिपूर्ण प्रयासों से हल किया करेंगे। परन्तु दु:ख का विषय है कि कुछ स्वार्थी और युद्ध की। इच्छा रखने वाले राष्ट्रों ने उसकी सफलता में अनेक बाधायें उपस्थित की और अन्त में उसे समाप्त ही होना पड़ा। अबीसीनिया और मंचूरिया, इटली और जापान इस दुष्प्रवृत्ति के ही परिणाम थे। उस समय अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना राष्ट्रों के समक्ष एक अपरिचित विचारधारा थी। अतः उस समय इस भावना का इतना मान नहीं था, परन्तु आज युग बदल गया है। जब तक विश्व के सभी राष्ट्र एक वृहत् परिवार की भाँति नहीं रहेंगे, एक-दूसरे के सुख-दु:ख में हाथ नहीं बंटायेंगे, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व को स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक विश्व में सुख और शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। आज विश्व राष्ट्रीयता से अन्तर्राष्ट्रीयता की ओर तेजी से बढ़ रहा है। एक देश यदि दूसरे देश पर आक्रमण कर बैठता है, तो तुरन्त एक परिवार की भाँति संयुक्त राष्ट्र संघ और सुरक्षा परिषद में विश्व के देश विचार-विनिमय और पारस्परिक सौहार्द से शान्ति स्थापित कर देते हैं।
अतः यह ध्रुव सत्य है कि यदि आज का मानव सुखी और शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहता है, तो उसे राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं का परित्याग करके अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करना होगा।
परमाणु अस्त्रों की संहारक क्षमता और इन संहारक अस्त्रों के भण्डार को देखते हुए यह निश्चित है कि यह तीसरा विश्व युद्ध होता है तो भू-लोक से सभ्यता और संस्कृति लुप्त हो जाएगी। एक बार मानव फिर आदि मानव बन जाएगा और उसके उपरान्त जो युद्ध होगा या होंगे वह लाती डण्डे अथवा पाषाण युग के अस्त्रों से लड़े जायेंगे। अतः मानवता के हित में अन्तर्राष्ट्रीय सहयो और अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना अपनी राष्ट्रीयता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य है।
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