अपठित गद्यांश किसे कहते हैं: 'अपठित' शब्द का अर्थ होता है- 'बिना पढ़ा हुआ'। सामान्यतः अपठित वह गद्यांश होता है जो आपके निर्धारित पाठ्यक्रम के बाहर का
अपठित गद्यांश किसे कहते हैं उदाहरण सहित लिखिए।
'अपठित' शब्द का अर्थ होता है- 'बिना पढ़ा हुआ'। सामान्यतः अपठित वह गद्यांश होता है जो आपके निर्धारित पाठ्यक्रम के बाहर का हो। भले ही उस गद्यांश को आपने निचले पाठ्यक्रम में पढ़ा हो, किन्तु प्रस्तुत पाठ्यक्रम से परे होने के कारण ही वह अपठित है। यह गद्यांश किसी पत्र-पत्रिका या साहित्यिक, शास्त्रीय अथवा वैज्ञानिक कृति से लाया जा सकता है, किन्तु यह सर्वथा ध्यान रखा जाता है कि उक्त अवतरण भाषा एवं भाव की दृष्टि से परीक्षार्थियों की पाठ्य पुस्तकों के ही स्तर का होना चाहिए।
किसी अपठित गद्यांश को पढ़कर उसके अर्थ या भाव को समझना अर्थग्रहण कहलाता है। गद्यांश में यदि किसी शब्द का अर्थ समझ में न आए तो घबराना नहीं चाहिए बल्कि उस पंक्ति को दो-तीन बार पढ़कर उसका भाव समझने का प्रयास करना चाहिए। भाव का ज्ञान होने से भी उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। अपठित गद्यांश के नीचे उससे सम्बन्धित प्रश्न दिए रहते हैं जिनका उत्तर देने के लिए कहा जाता है।
प्रश्नों का उत्तर देने के लिए निम्न तथ्यों पर ध्यान देना चाहिए-
- सर्वप्रथम अपठित गद्यांश को मन ही मन एक-दो बार पढ़ना और उसका अर्थ समझने का प्रयास करना चाहिए।
- गद्यांश को पढ़ते समय विशिष्ट स्थलों को रेखांकित करना चाहिए।
- अपठित के प्रश्नों का उत्तर देते समय भाषा पूर्ण रूप से सरल, व्यावहारिक और सहज होनी चाहिए। भाषा में कठिन शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए।
- प्रश्न का उत्तर लिखने में कम-से-कम शब्दों में अपनी बात अपने शब्दों में कहने का प्रयास करना चाहिए।
- गद्यांश का शीर्षक छोटा, सरल और आकर्षक होना चाहिए। शीर्षक पूरे गद्यांश का प्रतिनिधित्व करने वाला होना चाहिए।
अपठित गद्यांशों के प्रश्नों के उत्तर देने का अभ्यास करने से अर्थग्रहण की शक्ति और शब्द भण्डार का विकास होता है। इसके माध्यम से अपने विचारों तथा भावों को अपने शब्दों में व्यक्त करने की क्षमता में वृद्धि होती है। इससे धीरे-धीरे भाषा पर हमारा अधिकार बढ़ता जाता है। यहाँ उदाहरणस्वरूप कुछ अपठित गद्यांश प्रस्तुत हैं-
निर्देश - निम्नलिखित गद्यांशों को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर लिखिए-
अपठित गद्यांश उदहारण - 1
श्रद्धा एक सामाजिक भाव है, इससे अपनी श्रद्धा के बदले में हम श्रद्धेय से अपने लिए कोई बात नहीं चाहते। श्रद्धा धारण करते हुए हम अपने को उस समाज में समझते हैं जिसके अंश पर चाहे हम व्यष्टि रूप में उसके अन्तर्गत न भी हों, जान-बूझकर उसने कोई शुभ प्रभाव डाला। श्रद्धा स्वयं ऐसे कर्मों के प्रतिकार में होती है जिनका शुभ प्रभाव अकेले हम पर ही नहीं, अपितु सारे मनुष्य समाज पर पड़ सकता है। श्रद्धा एक ऐसी आनन्दपूर्ण कृतज्ञता है जिसे हम केवल समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट करते हैं। सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है। यह काम उसने इतना भारी समझा है कि उसका भार सारे मनुष्यों को बाँट दिया है, दो-चार मानवीय लोगों के ही सिर पर नहीं छोड़ रखा है। जिस समाज में सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध प्रकट करने के लिए जितने ही अधिक लोग तत्पर पाये जायेंगे, उतना ही वह समाज जागृत माना जायेगा। श्रद्धा की सामाजिक विशेषता एक इसी बात से समझ लीजिए कि जिस पर हम श्रद्धा रखते हैं उस पर चाहते हैं कि और लोग भी श्रद्धा रखें, पर जिस पर हमारा प्रेम होता है उससे और दस - पाँच आदमी प्रेम रखें। इसकी हमें परवाह क्या, इच्छा ही नहीं होती, क्योंकि हम प्रिय पर लोभवश एक प्रकार का अनन्य अधिकार या इजारा चाहते हैं। श्रद्धालु अपने भाव में संसार को भी सम्मिलित करना चाहता है, पर प्रेमी नहीं।
अपने साथ या किसी विशेष मनुष्य के साथ किये जाने वाले व्यवहार के लिए जो कृतज्ञता होती है वह श्रद्धा नहीं है। श्रद्धालु की दृष्टि सामान्य की ओर होनी चाहिए, विशेष की ओर नहीं। अपने सम्बन्धी के प्रति किसी को कोई उपकार करते देख यदि हम कहें कि उस पर हमारी श्रद्धा हो गई है तो यह हमारा पाखण्ड है, हम झूठ-मूठ अपने को ऐसे उच्च-भाव का धारणकर्ता प्रकट करते हैं, पर उसी सज्जन को दस-पाँच और ऐसे आदमियों के साथ जब हम उपकार करते देखें जिन्हें हम जानते तक नहीं और इस प्रकार हमारी दृष्टि विशेष से सामान्य की ओर हो जाये, तब यदि हमारे चित्त में उसके प्रति पहले से कहीं अधिक कृतज्ञता या पूज्य बुद्धि का उदय हो तो हम श्रद्धालु की उच्च पदवी के अधिकारी हो सकते हैं। सामान्य रूप में हम किसी के गुण या शक्ति का विचार सारे संसार से सम्बद्ध करके करते हैं, अपने से या किसी मनुष्य में कोई गुण या शक्ति है जिसका प्रयोग वह चाहे जहाँ और जिसके प्रति कर सकता है।
प्रश्न – श्रद्धा को सामाजिक भाव क्यों कहा गया है ?
उत्तर- श्रद्धा ऐसा भाव है जो श्रद्धा के पात्र को देखकर उत्पन्न होता है। यह भाव किसी एक व्यक्ति में ही नहीं, बल्कि सभी में रहता है और जब- जब श्रद्धेय दिखाई देता है, तब-तब यह भाव हृदय में अपने आप जागृत हो जाता है। इसका प्रभाव अकेले एक व्यक्ति पर नहीं, बल्कि सारे समाज पर पड़ता है और सभी लोग इसके द्वारा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। इसी कारण श्रद्धा को सामाजिक भाव कहा गया है।
प्रश्न – कौन-सा समाज अधिक जागृत माना जायेगा ?
उत्तर- जिस समाज में सदाचार पर श्रद्धा करने वाले लोग जितने ही अधिक होंगे, अत्याचार - अन्याय पर क्रोध प्रकट करने में जितने ही अधिक लोग तत्पर रहेंगे, वह समाज उतना ही अधिक जागृत माना जायेगा।
प्रश्न – श्रद्धा और कृतज्ञता में क्या अंतर है?
उत्तर- प्रेम एवं भक्ति की चरम स्थिति हो जाने पर हम श्रद्धा रखने लगते हैं। इस प्रकार श्रद्धा व्यक्ति के विशिष्ट आचरण को लेकर उत्पन्न होती है, जबकि अपने साथ किये गये अच्छे व्यवहार के लिए, उपकार भावना के प्रति मन में कृतज्ञता का भाव उत्पन्न होता है। श्रद्धा भाव व्यापक तथा कृतज्ञता भाव सीमित रूप में होता है।
प्रश्न – 'अत्याचार' एवं 'सज्जन' शब्दों में उपसर्ग की स्थिति बताइए।
उत्तर- अत्याचार - अति + आ उपसर्ग चर (चार) शब्द। सज्जन - सत् उपसर्ग + जन शब्द ।
प्रश्न – उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक है-श्रद्धा-भाव का महत्व।
अपठित गद्यांश उदहारण - 2
राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय और विकास के लिए भाषा एक प्रमुख तत्व है। मानव समुदाय अपनी संवेदनाओं, भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा का साधन अपरिहार्यतः अपनाता है, इसके अतिरिक्त उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। दिव्य-ईश्वरीय आनन्दानुभूति के सम्बन्ध में भले ही कबीर ने 'गूँगे केरी शर्करा' उक्ति का प्रयोग किया था, पर इससे उनका लक्ष्य शब्द-रूप भाषा के महत्व को नकारना नहीं था । प्रत्युत उन्होंने भाषा को 'बहता नीर' कहकर भाषा की गरिमा प्रतिपादित की थी। विद्वानों की मान्यता है कि भाषा तत्व राष्ट्रहित के लिए अत्यावश्यक है । जिस प्रकार किसी एक राष्ट्र के भूभाग की भौगोलिक विविधताएँ तथा उसके पर्वत, सागर, सरिताओं आदि की बाधाएँ उस राष्ट्र के निवासियों के परस्पर मिलने-जुलने में अवरोधक सिद्ध हो सकती हैं, उसी प्रकार भाषागत विभिन्नता से भी उनके पारस्परिक सम्बन्धों में निर्बाधता नहीं रह पाती । आधुनिक विज्ञान युग में यातायात और संचार के साधनों की प्रगति से भौगोलिक बाधाएँ अब पहले की तरह बाधित नहीं करतीं। इसी प्रकार यदि राष्ट्र की एक सम्पर्क भाषा का विकास हो जाए तो पारस्परिक सम्बन्धों के गतिरोधक बहुत सीमा तक समाप्त हो सकते हैं।
मानव-समुदाय को एक जीवित, जाग्रत एवं जीवन्त शरीर की संज्ञा दी जा सकती है और उसका अपना एक निश्चित व्यक्तित्व होता है। भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से इस व्यक्तित्व को साकार करती है, उसके अमूर्त मानसिक, वैचारिक स्वरूप को मूर्त एवं बिम्बात्मक रूप प्रदान करती है। मनुष्यों के विविधि समुदाय हैं, उनकी विविध भावनाएँ हैं, विचारधाराएँ हैं, संकल्प एवं आदर्श हैं, उन्हें भाषा ही अभिव्यक्त करने में सक्षम होती है। साहित्य, शास्त्र, गीत-संगीत आदि में मानव-समुदाय अपने आदर्शों, संकल्पनाओं, अवधारणाओं और विशिष्टताओं को वाणी देता है, पर क्या भाषा के अभाव में काव्य, साहित्य, संगीत आदि का अस्तित्व सम्भव है ? वास्तव में ज्ञानराशि और भावराशि का अपार संचित कोश जिसे साहित्य का अभिधान दिया जाता है, शब्द-रूप ही तो है । अत: इस सम्बन्ध में वैमत्य की किंचित् गुंजाइश नहीं है कि भाषा ही एक ऐसा साधन है जिससे मनुष्य एक-दूसरे के निकट आ सकते हैं, उनमें परस्पर घनिष्ठता स्थापित हो सकती है। यही कारण है कि एक भाषा बोलने और समझने वाले लोग परस्पर एकानुभूति रखते हैं, उनके विचारों में ऐक्य रहता है। अतः राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए भाषा तत्व परम आवश्यक है।
प्रश्न – (क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिए।
उत्तर- प्रस्तुत गद्यांश का शीर्षक- राष्ट्रीय एवं भाषा तत्व ।
प्रश्न – (ख) भाषा के सन्दर्भ में मानव समुदाय की सोच क्या है?
उत्तर- भाषा के सन्दर्भ में मानव समुदाय की सोच यह है कि भाषा ही वह साधन है, जिसके द्वारा मानव समुदाय की संवेदनाओं, भावनाओं तथा विचारों की सफल अभिव्यक्ति हो सकती है। इनकी अभिव्यक्ति के लिए उसके पास कोई अन्य सशक्त साधन नहीं है। इसके अलावा राष्ट्रीय भावना के अभ्युदय, पनपने, फलने-फूलने आदि के लिए भी भाषा एक प्रमुख तत्व है।
प्रश्न – (ग) पारस्परिक सम्बन्ध बढ़ाने में विद्वान भाषा को किस प्रकार उपयोगी मानते हैं?
उत्तर- विद्वानों का मानना है कि जिस प्रकार किसी राष्ट्र की भौगोलिक विविधताएँ लोगों के आवागमन को बाधित करती हैं, उसके पर्वत, सागर, सरिताएँ आदि की बाधाएँ मार्ग को दुर्गम बनाती हैं और उस राष्ट्र के लोगों के परस्पर मिलन में बाधक सिद्ध होती हैं, उसी प्रकार अनेक प्रकार की भाषाएँ भी लोगों के पारस्परिक सम्बन्धों में बाधा उत्पन्न करती हैं। वर्तमान में जिस प्रकार यातायात और संचार के साधनों ने भौगोलिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर ली है, उसी प्रकार राष्ट्र की एक सम्पर्क भाषा पारस्परिक सम्बन्ध बढ़ाने में उपयोगी सिद्ध होगी और गतिरोध समाप्त होंगे।
प्रश्न – (घ) राष्ट्रीय भावना के विकास हेतु भाषा - तत्व क्यों आवश्यक है ?
उत्तर- राष्ट्रीय भावना के विकास हेतु भाषा एक आवश्यक तत्व इस कारण है क्योंकि भाषा ही एकमात्र ऐसा तत्व है, जिससे मनुष्य के बीच की दूरियाँ कम हो सकती हैं, वे परस्पर निकट आ सकते हैं और उनमें घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं। एक ही भाषा बोलने, समझने और व्यवहार में लाने वाले लोग परस्पर समान अनुभूति रखते हैं। उनके विचारों में एकता रहती है। वे भाषागत मतभेद त्यागकर परस्पर सौहार्दपूर्वक रहते हैं।
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