वसंत एकांकी का प्रतिपाद्य / उद्देश्य: 'वसंत' एकांकी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987 ) द्वारा रचित है। 'वसंत' एकां
वसंत एकांकी का प्रतिपाद्य / उद्देश्य
'वसंत' एकांकी सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (7 मार्च, 1911 - 4 अप्रैल, 1987 ) द्वारा रचित है। 'वसंत' एकांकी नारी मनोविज्ञान पर आधारित है जिसमें आरंभ से अंत तक नायिका के मन में कई प्रश्न उठते हैं कि आखिर वह कौन है ? वह क्या थी - फूल या मिट्टी ? क्या होगी मिट्टी या फूल। वह स्वयं से बार-बार यह प्रश्न करती है आखिर वह कौन है ? क्योंकि जन्म के साथ नारी कई संबंधों में गढ़ती ढलती चली जाती है- "बालिका से किशोरी, कुमारी से पत्नी, बेटी से मां, एक निस्संग आत्मा से एक परिगृहीत कुनवा - वे निरन्तर कुछ न कुछ होती ही चलती हैं। -
वसंत एकांकी में नारी उदासीनता का चित्रण भी किया गया है। वह स्त्री जो सुबह से रात तक केवल अपना परिवार देखती है परिवार के लिए ही अपना सारा जीवन समर्पित करती है पर उस घर में पुरुष केवल उसे घर चलाने वाली बाई ही समझकर उसकी तरफ कोई ध्यान नहीं देता। न वह उसके स्वप्नों का सत्य जानता है और न ही उन्हें पूरा करने में सहयोग ही देता है। पूरे नाटक में वह पति की ओर से उदासीन भाव लिए रहती है। जहाँ तक उसकी अपनी संतान भी अपनी उमंगों में खोई हुई हैं। जब कि संतान मां के जीवन का आधार है।
वसंत का आगमन मन-मन की नवीन उमंगों को जागृत करता है। प्रकृति वसंत के आने पर खिल जाती है नवीन श्रृंगार कर लेती है। और मन-मन में भी नये-नये स्वप्न हिलोरे लेने लगते हैं। प्रस्तुत एकांकी में वसंत -1 और वसंत - 2 नायिका मालती के जीवन के अतीत व भविष्य के प्रतीक हैं जो उसके जीवन को गति दे रहे है। वसंत - 1 यदि उसका अतीत है तो उसी अतीत की सफलता के आधार पर ही वह भविष्य के स्वप्न बुनती है ताकि उन स्वप्नों की पूर्ति कर वह स्व को तलाश कर पाएगी। वसंत -1 उसके पति का प्रतीक है। यह वह स्वप्न एवं खुशियां थीं जो विवाह होने पर उसे अपने पति से मिली और वसंत - दो उसके पुत्र का प्रतीक है जिसके साथ उसका जीवन बहुरंगी हो गया है।
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